भारत के इस्पात उत्पादन को तीन गुणा बढ़ाकर भी साल 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी कमी लाना संभव है, लेकिन इसके लिए योजना, तकनीक और पैसे की जरूरत होगी
अब जब दुनिया जलवायु परिवर्तन पर आयोजित होने वाली 27वीं बैठक (कॉप-27) कर रही है और चरम मौसमी गतिविधियां नियंत्रण से बाहर होकर लोगों की जिंदगी और संपत्तियों को नुकसान पहुंचा रही हैं, तो साफ हो चला है कि हमें तुरंत कार्रवाई की जरूरत है।
लेकिन यह भी साफ तौर पर पता चल रहा है कि कार्रवाई हो नहीं रही है और उस स्तर या उस रफ्तार से नहीं हो रही है, जिसकी जरूरत है। इस पर हम बाद में कभी विस्तार से बात करेंगे।
इस समय हम भारत में लौह व इस्पात सेक्टर में डीकार्बनाइजेशन के विकल्पों पर विमर्श करना चाहते हैं।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के हमारे सहयोगी बताते हैं कि भारत के इस्पात उत्पादन को तीन गुणा बढ़ाकर भी साल 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी कमी लाना संभव है, बल्कि हम जितना उत्सर्जन अभी कर रहे हैं, उससे भी कम कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए योजना, तकनीक और पैसे की जरूरत होगी।
सच बात तो यह है कि भारत जैसे देशों को अभी और विकसित होने की जरूरत है और वह भी ऐसे समय में जब तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के लिए पूरी दुनिया में कार्बन बजट घट रहा है।
ऐसे में भारत की वृद्धि कम कार्बन उत्सर्जन करते हुए होनी चाहिए और हो सकती है। हमारी रिपोर्ट “डीकार्बनाइजिंग इंडिया:आयरन एंड स्टील सेक्टर” बताती है कि यह संभव है।
वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में लौह व इस्पात सेक्टर की बड़ी भूमिका है। कुल ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में 7 प्रतिशत भागीदारी लौह व इस्पात सेक्टर की है। वहीं, साल 2016 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में इस सेक्टर की भागीदारी पांच प्रतिशत है। लौह व इस्पात उत्पादन में भारत दूसरे स्थान पर है, लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देश के मुकाबले भारत में बहुत कम उत्पादन होता है।
दुनिया में चीन सबसे ज्यादा लौह व इस्पात का उत्पादन करता है, जो भारत से 10 गुना अधिक है। साल 2019 में चीन ने 10,500 लाख टन कच्चे इस्पात का उत्पादन किया था, जबकि भारत का उत्पादन महज 1,000 लाख टन था। भारत में बुनियादी ढांचे के लिए काफी इस्पात चाहिए और इसलिए भारत को इस्पात उत्पादन बढ़ाने की जरूरत होगी।
भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत भी कम है। आधिकारिक अनुमान के मुताबिक, साल 2030 तक भारत की उत्पादन क्षमता 3,000 लाख टन हो जाएगी और उत्पादन 2,550 लाख टन हो जाएगा, तब भी भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत 160 किलोग्राम ही रहेगी। वैश्विक स्तर पर अभी प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत 229 किलोग्राम है। उत्पादन बढ़ाने की हमारी जरूरत को लेकर बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं है।
सवाल सिर्फ यह है कि इस सेक्टर से होने वाले कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए क्या करने की जरूरत है? भारत को क्या करना चाहिए और इस संक्रमण को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया क्या कर सकती है?
लौह और अयस्क उद्योग से उत्सर्जन की कहानी अन्य उद्योगों सरीखी ही है। इस उद्योग में फर्नेस को जलाने के लिए कोयला, गैस या स्वच्छ बिजली जैसे ईंधन की जरूरत पड़ती है, जिससे उत्सर्जन होता है, लेकिन अन्य उद्योगों की तुलना में इस उद्योग में एक महत्वपूर्ण अंतर है। औद्योगिक इकाई से कितना कार्बन डाईऑक्साइड निकलेगा यह उत्पादन की प्रक्रिया तय करता है।
जब लोहे का उत्पादन ब्लास्ट फर्नेस से और फिर अयस्क का उत्पादन सामान्य ऑक्सीजन फर्नेस (बीएफ-बीओफ) के जरिए होता है, तो अयस्क को धातु में बदलने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करने वाले कोयले की जरूरत पड़ती है। इस वजह से इस सेक्टर को डीकार्बनाइज करना कठिन हो जाता है, लेकिन भारत में कुल लोहे और अयस्क का आधा हिस्सा इसी पद्धति से तैयार किया जाता है।
लोहा तैयार करने का अन्य तरीका डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (डीआरआई) या स्पंज आयरन है। इसमें लौह अयस्क को तरल में तब्दील नहीं किया जाता, बल्कि कोयला या गैस जैसे न्यूनकारक का इस्तेमाल कर लौह को निचोड़ कर निकाला जाता है और इसके बाद इलेक्ट्रिक आर्क या इंडक्शन फर्नेस के जरिए अयस्क का उत्पादन किया जाता है।
इस प्रक्रिया से डीकार्बनाइजेशन आसान है क्योंकि इसमें कोयले की जगह प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल किया जा सकता है। साथ ही इस प्रक्रिया में लौह अयस्क की जगह पूरी तरह रद्दी अयस्क ले सकता है। जबकि बीएफ-बीओएफ प्रक्रिया में रद्दी अयस्क का अधिकतम इस्तेमाल 30 प्रतिशत तक ही सीमित होता है।
हालांकि, भारत में लौह व इस्पात का उत्पादन डीआरआई पद्धति से होता है और चूंकि यह पद्धति कोयला आधारित है, इसलिए इससे अधिक प्रदूषण फैलता है। स्पंज आयरन प्लांट चूंकि लघु व मध्य इकाइयों के रूप में संचालित होते हैं इसलिए इनमें उत्सर्जन कम करने पर जोर नहीं होता। लेकिन यहीं अवसर भी है।
सरकार को एक पैकेज डील पर काम करना चाहिए जिसमें गैस जैसे स्वच्छ ईंधन शामिल हों और कच्चे माल के रूप में रद्दी अयस्क के अधिकाधिक उपयोग को बढ़ावा देकर पुनःचक्रित अयस्क के व्यवसाय में सुधार किया जाए। सीएसई रोडमैप दोनों उत्पादनों के लिए रणनीतियों पर फोकस करता है।
बीएफ-बीओएफ के मामले में कोयले की खपत घटाने और उत्पादन में पुनःचक्रित अयस्क का इस्तेमाल 30 प्रतिशत तक बढ़ाने के लिए प्राकृतिक गैस इंजेक्शन या हाइड्रोजन के इस्तेमाल की सिफारिश करने से शीर्ष खिलाड़ियों के स्वैच्छिक उत्सर्जन लक्ष्यों के चलते कार्बन उत्सर्जन कम करने में सुधार होता है।
इसके अतिरिक्त इस उद्योग को कार्बन को कैद करने और इसके इस्तेमाल की प्रक्रिया को लागू करना होगा। क्योंकि कोयला आधारित उत्सर्जन को कम करना होगा। इस महंगी तकनीकी हस्तक्षेप के लिए अंतरराष्ट्रीय फाइनेंस की जरूरत होगी, जिसे 2030 के लिए कठिन उत्सर्जन लक्ष्य तय कर सुरक्षित किया जा सकता है। उत्सर्जन लक्ष्य को एक टन लौह व अयस्क के उत्पादन पर 2.2 टन कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को घटाकर 1.5 टन से नीचे लाना होगा, जो वैश्विक स्तर पर बेहतर लक्ष्य है। तीन स्थापित कंपनियां- टाटा स्टील, सेल और जेएसडब्ल्यू (जिंदल) की एकमुश्त उत्पादन भागीदारी साल 2020-2021 में देश में हुए कुल उत्पादन में 45 प्रतिशत रही है और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 41-51 प्रतिशत भागीदारी रही है। और यही न्यून-कार्बन अयस्क के उत्पादन के लिए वित्तीय सहयोग को संभव बनाता है।
मूल बात यह है कि लौह और अयस्क जैसे सेक्टर में भी कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना संभव है। भारत जैसे देश बड़े स्तर पर उत्सर्जन में कमी लाकर भी विकसित हो सकते हैं। सवाल सिर्फ यह है कि क्या अमीर मुल्क जलवायु न्याय की अनिवार्यता समझते हुए भविष्य की क्षमता और प्रतिस्पर्द्धा को देखते हुए इस उद्योग में जरूरी तकनीकी बदलाव के लिए फंड देंगे। कॉप-27 में इसी पर बहस होनी चाहिए।
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