भीलूड़ा43 मिनट पहले
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धर्माचार्य कनकनंदी महाराज ने यहां के श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर से अंतरराष्ट्रीय वेबिनार में कहा कि धर्म करते समय व आहार दान करते समय मन व भावों की आंतरिक प्रफुल्लता होनी चाहिए। परमार्थ के लिए किए जाने वाले कार्यों में स्वयं में भक्ति व स्वयं में श्रद्धा होनी चाहिए। अहंकार रहित होकर दान धर्म के कार्य करे। उन्होंने कहा कि आहार दान आत्म केंद्रित होता है।
आहार दान देने वाला दाता स्वयं की आत्मा को सुख पहुंचाता है। दान दाता को खेद रहित, अवसाद रहित, ईर्ष्या रहित व निष्कपट होकर प्रसन्न व दयालु होकर बिना फल की अपेक्षा के आहार दान करना चाहिए तो ही वह फलदायी होता है। दान देकर मैं का भाव नहीं रखें क्योंकि मैं का भाव व प्रयोग पाप कारी है। अहंकार रहित किया गया आहार दान पुण्यकारी है।
आहार दान में कार्य व्यस्तता के कारण देव दर्शन ना भी हो सके तो कोई दोष नहीं है। दान ही तीर्थ बनता है उसके बाद धर्म तीर्थ प्रवर्तन होता है। आचार्य ने कहा कि अच्छी भावना बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधार्मिक हो जाता है। हर्ष से, प्रसन्न होकर आनंद भाव से ही धर्म कार्य करे।
आनंद से ही आत्मा के अनंत गुण प्रकट होते हैं। जिस प्रकार शरीर को सतत ऑक्सीजन की जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन जीने को सतत धर्म भाव की भी जरूरत होती है। धर्म कार्य अपेक्षा पूर्वक नहीं बल्कि विश्वास पूर्वक करे। अंतः करण विकल्प रहित होने पर श्रद्धा होगी। सम्यक रूप से स्व आत्मा में स्वगुणों से तृप्ति होनी चाहिए। भगवान व भक्त के बीच कोई नहीं आना चाहिए। भगवान, भक्त के बीच कोई दूसरा आए तो वह व्यापार, काम, लोभ हैं।आत्मा को परमात्मा से जोड़े वहीं धर्म है।
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