ईरान की राजधानी तेहरान में 13 सितंबर 2022 को ज़िंदगी आम ढर्रे पर थी. 22 साल की महसा अमीनी कुर्दिस्तान के अपने गृहनगर से यहां पहुंचीं. महसा के साथ उनके भाई भी थे.
वहां की मोरैलिटी पुलिस ने अचानक महसा को रोका. उन्हें गिरफ़्तार किया और एक वैन में डाल दिया. महसा पर आरोप था कि उन्होंने सिर पर स्कार्फ़ ढंग से नहीं पहना था.
ईरान में क़ानूनी तौर पर ज़रूरी है कि महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर अपने बालों को पूरी तरह ढककर रखें.
कुछ देर बाद महसा को अस्पताल ले जाया गया. तीन दिन कोमा में रहने के बाद उनकी मौत हो गई. इससे नाराज़ ईरान के हज़ारों लोग सड़कों पर आ गए.
कुछ प्रदर्शनकारियों ने 43 साल से जारी शासन व्यवस्था में बदलाव की मांग भी उठाई. लेकिन सवाल है कि क्या ईरान में विरोध प्रदर्शन से बदलाव आएगा?
बीबीसी ने इसका जवाब पाने के लिए चार एक्सपर्ट से बात की.
ईरान की क्रांति
स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में ईरानियन स्टडीज़ के डायरेक्टर और लेखक अब्बास मिलानी बताते हैं, “क्रांति के पहले ईरान की अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में थी.”
मौजूदा शासन के अस्तित्व में आने से पहले 1970 के दशक में अब्बास ईरान में रहते थे.
अब्बास मिलानी बताते हैं, “महिलाओं के पास अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहनने की आज़ादी थी. वो फ़ुटबॉल खेल सकती थीं और मैच देख सकती थीं. ईरान में 1976 में गे लोगों की सार्वजनिक तौर पर शादी हुई थी. वहां समाज में काफी खुलापन था लेकिन वहां के शासक तानाशाह थे.”
वो बताते हैं कि देश का शासन शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के हाथ था और सारे अहम फ़ैसले वो ही लेते थे.
शाह के पिता ने ईरान में सुधारों की शुरुआत की थी. साल 1936 में उन्होंने इस्लामिक मान्यता के तहत पहने जाने वाले तमाम पर्दों और पुरुषों के कुछ पारंपरिक परिधानों पर रोक लगा दी.
उनके बेटे ने 1941 में गद्दी संभाली. उनके दौर में बड़े ज़मींदारों से ज़मीन लेकर छोटे किसानों को दी गईं. 1963 में शाह को लगा कि महिलाओं के पास वोट देने का अधिकार होना चाहिए.
अब्बास मिलानी बताते हैं कि 1968 में ईरान में महिला मंत्री भी थीं.
1970 की शुरुआत में शाह को कैंसर होने की जानकारी मिली. 1977 के करीब ये साफ़ हो गया कि तेल संपदा संपन्न ईरान के शीर्ष पर उनके दिन पूरे हो चले हैं.
अब्बास मिलानी बताते हैं, “शाह ने जैसा अनुमान लगाया था, तेल की कीमतें उतनी नहीं बढ़ीं. तेल की कीमत स्थिर रखने के लिए सऊदी अरब साफ़ तौर पर अमेरिका के साथ था. उन्होंने शाह को कीमतें नहीं बढ़ाने दीं. ऐसे में एक फलती-फूलती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी.”
अमीर और ग़रीब के बीच की खाई बढ़ने लगी. हड़तालें और दंगे हुए. सुरक्षाबलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं. ईरान में सुधार लागू होने के बावजूद उनका शासन दमनकारी था. आलोचकों और राजनीतिक विरोधियों के लिए एक ही जगह थी, जेल.
अब्बास मिलानी बताते हैं कि उस समय कोई भी इस्लाम की आलोचना नहीं कर सकता था. लेकिन इस्लामिक ताक़तों के पास ये छूट थी कि वो चाहे जिसकी आलोचना करें.
ईरान के ताक़तवर मजहबी समूह ने शाह और उनके सुधारों को चुनौती दी. जनवरी 1979 में शाह ने ईरान से बाहर जाने के लिए उड़ान भरी और फिर कभी नहीं लौटे.
मार्च के महीने तक जनमत संग्रह के ज़रिए ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान’ के गठन पर मुहर लग गई.
नए शासन तंत्र के सुप्रीम लीडर थे आयातुल्लाह ख़ुमैनी. वो ताउम्र के लिए ईरान के राजनीतिक और धार्मिक नेता चुने गए.
अब्बास मिलानी बताते हैं, “ख़ुमैनी ने दोबारा रिलीजियस कोर्ट स्थापित किए. शरिया क़ानून का कड़ाई से पालन कराया जाने लगा. ये एक बड़ा बदलाव था. मैं उस वक़्त ईरान में था और तेहरान फैकल्टी ऑफ़ लॉ एंड पॉलिटिकल साइंस में पढ़ा रहा था. हमने एक याचिका पर दस्तख़्त करते हुए कहा कि आप देश के साथ ऐसा नहीं कर सकते लेकिन उन्होंने ऐसा किया. हम सभी को यूनिवर्सिटी के बाहर कर दिया गया.”
जिस क़ानून के तहत महिलाओं को शादी, तलाक़ और विरासत में समान अधिकार हासिल थे, उसे रद्द कर दिया गया. देश के इस्लामिक सिस्टम की सुरक्षा के लिए आईआरजीसी का गठन किया गया. अब ये एक अहम ताक़त है.
ईरान में अब तक सिर्फ़ दो सुप्रीम लीडर हुए हैं. मौजूदा नेता हैं 83 साल के आयातुल्लाह अली ख़ामनेई. उन्होंने साल 1989 में बागडोर थामी थी.
महिलाएं और आज़ादी
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर अज़ादेह मोवेनी कहती हैं, “कई बार ऐसा होता है कि एक त्रासद मौत किसी ऐसे देश को हिला देती है, जिसमें पहले से ही शिकायतें और गुस्सा भरा होता है.”
अज़ादेह मोवेनी पत्रकारिता की प्रोफ़ेसर हैं. महसा अमीनी की मौत की ख़बर आई, तब वो ईरान में ही थीं. अज़ादेह बताती हैं कि पश्चिमी ईरान से शुरु हुए प्रदर्शन जल्दी ही पूरे देश में फैल गए.
टिकटॉक पर पोस्ट किए गए वीडियोज़ ने ईरान के अंदर और बाकी दुनिया में प्रदर्शनकारियों का संदेश फैलाने में अहम भूमिका निभाई. टिकटॉक पर हैशटैग महसा अमीनी को एक अरब 20 करोड़ बार देखा गया.
प्रशासन प्रदर्शन रोक न सके, युवतियों, छात्राओं और दूसरे प्रदर्शनकारियों ने इसकी भी रणनीति बनाई.
अज़ादेह मोवेनी बताती हैं, “ईरान में अभी सूरज छह बजे के पहले छुप जाता है. वो उस समय पैदल या मोटरसाइकिल पर बाहर निकलतीं. प्रदर्शनकारियों में से ज़्यादातर के पास मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे ताकि पुलिस रोके तो उनकी पहचान न हो सके. वुमेन लाइफ़ फ्रीडम उनका प्रमुख नारा बन गया.”
वो कहती हैं, “तमाम प्रदर्शनों के दौरान एक बात अहम थी. महिलाएं अपने स्कार्फ़ जला रही थीं. कुछ महिलाएं कार के ऊपर खड़े होकर अपने बाल काटने लगतीं. ये अवज्ञा का एक शक्तिशाली प्रदर्शन था. मानो उनका सम्मान और गरिमा बाल ढककर रखने में है तो वो आज़ादी के लिए बदसूरत होने को तैयार हैं.”
महसा अमीनी के परिवार का कहना है कि मोरैलिटी पुलिस की पिटाई से उनकी मौत हुई. पुलिस इस आरोप को ख़ारिज करती रही है.
मोरैलिटी पुलिस की पहचान गश्ती दल के रूप में है. ईरान के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनका दखल, विवाद की वजह बनता रहा है.
अज़ादेह मोवेनी बताती हैं, “सरकार के ड्रेस कोड का कथित उल्लंघन करने वाली महिलाओं पर जुर्माना लगाना और उनका उत्पीड़न, उनके कामकाज का हिस्सा है. उनके निशाने पर थोड़े छोटे या तंग कपड़े पहनने वाली या फिर ऐसी महिलाएं होती हैं जिन्होंने अपने बालों को ठीक तरीके से नहीं ढका हो.”
अज़ादेह बताती हैं कि ईरान में उन्हें भी पुलिस ने कई बार रोका है. वो बताती हैं कि आज की पीढ़ी इससे कुछ हद तक अनजान थी लेकिन अगस्त 2021 में इब्राहिम रईसी के राष्ट्रपति बनने के बाद से मोरैलिटी पुलिस दोबारा प्रभावी हो गई है.
रईसी कट्टरपंथी विचारों के लिए जाने जाते हैं और ईरान के वरिष्ठता क्रम में सुप्रीम लीडर के बाद दूसरे नंबर पर हैं.
ईरान की ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट न्यूज़ एजेंसी का अनुमान है कि प्रदर्शन शुरू होने के बाद से देश में 222 लोगों की मौत हो चुकी है.
अज़ादेह मोवेनी कहती हैं, “ये मानना होगा कि प्रदर्शन छोटे स्तर पर हो रहे हैं. मुझे नहीं लगता है कि हमने कोई ऐसा प्रदर्शन देखा हो जहां कुछ हज़ार से ज़्यादा लोग रहे हों. इस देश की आबादी साढ़े आठ करोड़ है. बीते 20 साल के दौरान अलग अलग प्रदर्शन में हमने दस से बीस लाख लोगों को सड़कों पर देखा है.”
हालांकि, अज़ादेह ये भी कहती हैं कि संख्या भले ही बड़ी न हो लेकिन प्रदर्शनकारियों के साथ लोगों की सहानुभूति साफ़ नज़र आती है.
देख रही है दुनिया
वॉशिंगटन स्थित सेंटर फ़ॉर इंटरनेशनल पॉलिसी के सीनियर फ़ेलो सीना टूसी कहते हैं कि प्रदर्शनकारियों पर की गई सख्ती की दुनिया भर में निंदा की गई. ईरान की आलोचना करने वालों में कुछ उसके साझेदार भी हैं.
सीना टूसी बताते हैं, “ईरान की आलोचना करने वालों में लैटिन अमेरिकी देश शामिल हैं. इन देशों के साथ ईरान के संबंध हैं. ये देश अपने क्षेत्र में अमेरिका की विदेशी नीति की आलोचना करते रहे हैं. कई देश, नेता और आम लोग जो ईरान के घटनाक्रम पर नज़र नहीं रखते हैं, इस घटना ने उनका भी ध्यान खींचा है.”
लेकिन कुछ देश सार्वजनिक तौर पर चुप्पी साधे हुए हैं.
सीना टूसी कहते हैं, “ईरान की सरकार ने बीते दस साल में रूस और चीन के साथ अपने रिश्ते मजबूत किए हैं. ख़ुद पर लगे प्रतिबंधों के बाद उसने इलाक़े के कई देशों के साथ क़रीबी रिश्ते बनाए हैं. इन देशों ने चुप्पी साधी हुई है. चीन और रूस में तानाशाही रुख़ वाली सरकारें हैं. मध्य पूर्व में सऊदी अरब से लेकर मिस्र तक एकछत्र अधिकार वाली सरकारें हैं. मैं मानता हूं कि ईरान के प्रदर्शन को लेकर इन देशों के शासकों में भी डर होगा कि कहीं ये नज़ीर न बन जाए.”
रूस ने जब तक यूक्रेन पर हमला नहीं किया था, ईरान दुनिया का ऐसा देश था जिसपर सबसे ज़्यादा पाबंदियां लगी थीं. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर साल 2015 में एक समझौता हुआ. ईरान के साथ डील करने वाले छह देश थे अमेरिका, फ्रांस, रूस, जर्मनी, चीन और ब्रिटेन.
समझौते के तहत ईरान ने परमाणु संवर्धन की अपनी गतिविधियों को सीमित करने का वादा किया और निगरानी पर सहमति दी. इसके बदले उसे प्रतिबंधों में छूट दी गई. लेकिन तीन साल बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समझौते से बाहर निकलने का एलान किया और कहीं ज़्यादा प्रतिबंध लगा दिए.
सीना टूसी कहते हैं, “इसका असर ये हुआ कि ईरान की सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय कारोबार के ज़्यादातर रास्ते बंद हो गए. ईरान के तेल निर्यात पर भी इसका असर हुआ. प्रतिबंध के जरिए ईरान के ख़ास अधिकारियों को भी निशाने पर लिया गया.”
हाल में ब्रिटेन और अमेरिका ने ईरान की मोरैलिटी पुलिस और सीनियर अधिकारियों पर पाबंदी लगाई.
सरकारें बताती रही हैं कि घरेलू मुद्दों में विदेशी दखल देश की सामाजिक और आर्थिक दिक्कतों की वजह है. इसकी वजह लोगों का ध्यान अपनी ओर से हटाना और किसी बाहरी को दोषी बताना होता है.
सीना टूसी कहते हैं, “ईरान की सरकार का भी ये तरीका रहा है. ईरान के सुप्रीम लीडर आयातुल्लाह ख़ामनेई ने इन प्रदर्शनों के लिए अमेरिका और इसराइल को ज़िम्मेदार बताया. लेकिन देश के लाखों ईरानियों को अब इस बात पर भरोसा नहीं है. वो अपने जीवन के हर पहलू में गिरावट देख रहे हैं. वो ग़रीब हो गए हैं. उनकी सामाजिक और राजनीतिक आज़ादी सीमित हो गई है. इन सब बातों का बाहरी ताक़तों से कोई लेना-देना नहीं है.”
सीना टूसी कहते हैं कि क्रांति के बाद से ईरान में सुरक्षा की स्थिति अस्थिर रही है. क्रांति के बाद सद्दाम हुसैन की अगुवाई वाले इराक़ ने ईरान पर हमला किया. दोनों के बीच आठ साल लड़ाई चली. इन हालात में कट्टरपंथी ज़्यादा मजबूत होते गए.
वो ये भी कहते हैं कि ईरान पर पहले से ही बहुत प्रतिबंध लगे हुए हैं. ऐसे में अमेरिका और दूसरे देश उसकी आलोचना करने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं.
अहम मोड़
यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेरिस की प्रोफ़ेसर अज़ादेह कियान कहती हैं, “बीते सालों में प्रदर्शन आर्थिक कारणों से हुए थे. शायद आपको जानकारी हो कि ईरान में महिलाओं के रोज़गार की दर काफी कम है.”
अज़ादेह कियान ने ईरान पर कई किताबें लिखी हैं. वो बताती हैं, “पहले जो अभियान चलाए गए उनमें पुरुष बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे. हमने देखा कि कुछ महिलाएं भी इन पुरुषों का समर्थन कर रही थीं लेकिन एक महीने पहले महिलाओं ने जो अभियान शुरू किया, उसके पीछे आर्थिक कारण नहीं थे. इसकी वजह थी अपनी पसंद की आज़ादी. इसमें महिलाओं की भूमिका पहले के मुक़ाबले ज़्यादा अहम हो गई.”
अज़ादेह कियान बताती हैं कि साल 1979 में आयतुल्लाह ख़ामेनई ने पर्दे को ज़रूरी बना दिया तब भी तेहरान में हज़ारों कामकाजी महिलाएं और छात्राएं सड़कों पर उतर गईं थीं.
ईरान में पहले छात्रों ने भी प्रदर्शन की अगुवाई की है लेकिन इस बार का अभियान समाज के सभी हिस्सों तक पहुंच गया है और इस पर काबू पाना प्रशासन के लिए मुश्किल हो गया है.
अज़ादेह कियान कहती हैं, “मुझे लगता है कि ये गंभीर चुनौती बन गया है. इसके ज़रिए शुरुआत में महिलाओं ने अपनी पसंद से जुड़ी आज़ादी की मांग उठाई. उसके बाद ये मध्यवर्ग तक फैल गया और अब पेट्रोकेमिकल वर्कर और तेल कर्मी भी इसमें शामिल हो गए हैं. ये नहीं भूलना चाहिए कि ईरान तेल संपदा वाला देश है. अगर बेचने के लिए तेल नहीं होगा या तेल का उत्पादन नहीं होगा तो यहां की सरकार ढह जाएगी.”
अज़ादेह कियान कहती हैं कि ये एक टर्निंग प्वाइंट है. ये लगता है कि मौजूदा शासन आधुनिक समाज की अगुवाई नहीं कर सकता, उनके संस्थान पुराने पड़ चुके हैं.
वो कहती हैं कि ये पहला मौक़ा है जब समाज के अलग अलग तबके एक साथ सत्ता परिवर्तन की मांग उठा रहे हैं.
हालांकि, वो ये भी कहती हैं कि जब तक ख़ामनेई नेता हैं, वो लोगों की मांग नहीं मानेंगे. वो सशस्त्र बलों के ज़रिए प्रदर्शनों और बड़ी आबादी को दबाएंगे.
वो बताती हैं, “न्यायपालिका के प्रमुख ने हाल में कहा कि हमें एक-दूसरे से बात करनी चाहिए. न्यायपालिका प्रमुख की नियुक्ति भी सुप्रीम लीडर ही करते हैं. उन्होंने जो कहा, वो भी लोगों को शांत करने की रणनीति ही है. कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है क्योंकि इसी दौरान वो लोगों को गिरफ़्तार कर रहे हैं. पुलिस और सशस्त्र बल लोगों पर गोलियां चला रहे हैं. सशस्त्र बल सुप्रीम लीडर के समर्थन में हैं. जब तक वो अपना पक्ष नहीं बदलते हैं, हम सत्ता परिवर्तन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.”
अज़ादेह कियान कहती हैं, “मुझे लगता है कि इस अभियान को अंतरराष्ट्रीय समर्थन बहुत महत्वपूर्ण है. इससे ईरान के लोगों को अपनी क्रांति जारी रखने का साहस मिलता है.”
लौटते हैं उसी सवाल पर कि क्या ईरान में विरोध प्रदर्शन से बदलाव आएगा?
कुछ लोगों की राय ये हो सकती है कि देश में बदलाव का लम्हा आ चुका है.
दूसरे प्रदर्शनों की तुलना में इस बार प्रदर्शनकारियों की संख्या कम है लेकिन अलग-अलग तबके के लोगों का साथ होना नई बात है.
इसने ईरान में अलग-अलग मजहब, उम्र, नस्लीय समूह और अलग-अलग वर्ग के लोगों को एकजुट किया है.
एक अभियान के जरिए बरसों से खदबदाते राजनीतिक, सांस्कृति, सामाजिक और आर्थिक असंतोष सामने आ रहा है. सरकार प्रदर्शनकारियों की मांगें मानेगी, इसका अभी कोई संकेत नहीं मिला है.
सत्ता के शिखर पर हाल फिलहाल कोई बदलाव आएगा ये भी नहीं लगता है. ये भी लगता है कि हालात को काबू करने के लिए वो जो कुछ कर सकते हैं, वो सब करेंगे.
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