कासिम दादा ने एक शर्त रखी कि उनका ब्रांड नेम बरकरार रहेगा. अब मुश्किल ये थी कि इस नाम में यूनिलीवर की एंट्री कैसे पता चलती! हल ये निकाला गया कि इसके सबसे बीच में Unilever का ‘L’ डाल दिया जाए.
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डालडा याद है आपको? आज भले ही बाजार में कई सारे ब्रांड एवलेबल हों, लेकिन एक समय था, जब वनस्पति घी का मतलब ही डालडा हुआ करता था. थैली, प्लास्टिक के डिब्बे या टिन के डिब्बे में आने वाला डालडा भारतीय रसोई की जरूरत हुआ करता था. पूड़ी-कचौड़ी से लेकर मिठाइयों तक, डालडा में ही छांके जाते थे. आज डालडा ब्रांड के तहत केवल वनस्पति घी ही नहीं, बल्कि सरसों तेल, सोयाबीन ऑयल, सनफ्लावर ऑयल, राइस ऑयल वगैरह प्रॉडक्ट बिकते हैं.
डालडा ने भारतीय घरों में इस कदर अपनी पैठ बनाई कि वर्षों तक इस ब्रांड को कोई पीट नहीं पाया. 85 साल पहले शुरू हुए इस ब्रांंड का नाम ‘डालडा’ पढ़ने-सुनने में अजीब लगता है. इसकी भी एक अलग ही कहानी है. तो चलिए आज की ब्रांड स्टोरी में शुरू करते हैं, ‘डालडा’ की कहानी.
ब्रिटिश काल से हुई वनस्पति घी की शुरुआत
डालडा की नींव ब्रिटिश इंडिया में रखी गई थी. उस दौर में देसी घी महंगा प्रॉडक्ट था और आम लोगों की पहुंच से बाहर था. ऐसे में विकल्प के तौर पर वनस्पति घी की जरूरत महसूस हुई. कासिम दादा (Kassim Dada) नाम के व्यक्ति ने 1930 के दशक से एक डच कंपनी से वनस्पति घी का आयात शुरू किया.
हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी भी यह घी आयात करती थी, जिसे अब हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड और यूनिलीवर पाकिस्तान कहा जाता है. कासिम दादा घी को ‘दादा वनस्पति’ के नाम से बेचते थे. वहीं, यूनिलीवर के मालिक लीवर ब्रदर्स जानते थे कि यह मुनाफे वाला बाजार है. इसलिए हिंदुस्तान वनस्पति ने लोकल लेवल पर हाइड्रोजनेटेड वनस्पति बनाने का फैसला लिया.
DADA से ऐसे बना DALDA
लीवर ब्रदर्स ने अपने हाइड्रोजनेटेड वनस्पति घी के लिए कासिम दादा का सहयोग मांगा और फिर भारत में ‘दादा’ (DADA) बनाने के अधिकार खरीद लिए. लेकिन कासिम दादा ने एक शर्त रखी कि उनका ब्रांड नेम बरकरार रहेगा. अब मुश्किल ये थी कि इस नाम में यूनिलीवर की एंट्री कैसे पता चलती! हल ये निकाला गया कि इसके सबसे बीच में Unilever का ‘L’ डाल दिया जाए. कासिम दादा मान गए और इस तरह नया नाम DALDA अस्तित्व में आया.
1937 में लॉन्च किया गया डालडा
वनस्पति घी तैयार किया जाने लगा और 1937 में डालडा को लॉन्च कर दिया गया. भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ में सबसे लंबे समय तक चलने वाले ब्रांड्स में से एक बन गया. स्वाद और सुगंध के मामले में देसी घी के बरक्स डालडा को खड़ा करना शुरुआत में चुनौती थी. लेकिन देसी घी के मुकाबले यह बेहद सस्ता था, सो धीरे-धीरे बाजार में जगह बनाने लगा.
घर-घर में पहुंचा डालडा
1970s :: Dalda Tin In Kitchen For Cooking Poori pic.twitter.com/EXM8WDkA10
— indianhistorypics (@IndiaHistorypic) November 12, 2017
मार्केटिंग और विज्ञापन स्ट्रेटजी
कंपनी ने इसकी मार्केटिंग बड़े ही एग्रेसिव तरीके से शुरू की. एक शॉर्ट मूवी टाइप विज्ञापन बनवाया और सिनेमा हॉल में दिखाना शुरू किया. प्रिंट फॉर्मेट में भी विज्ञापन निकाले गए. इसके साथ ही एक स्ट्रेटजी थी, जरूरत के हिसाब से पैकेट, टिन और डिब्बों में पैकेजिंग. आम घरों, होटलों, रेस्तराओं को भी सुविधा हुई. डालडा की गाड़ी चल निकली. शुरुआती 3 दशकों तक डालडा के सामने बाजार में कोई ब्रांड नहीं था. 80 के दशक तक कंपनी का बाजार पर एकाधिकार रहा. भारतीय घरों में डालडा ने ऐसी जगह बनाई कि वनस्पति घी मतलब डालडा हो गया.
विवाद और प्रतिस्पर्धा
1950 के दशक में डालडा पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई. आरोप लगाया गया कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक देशव्यापी जनमत सर्वेक्षण तक कराना पड़ा था. हालांकि इसका कोई निर्णय नहीं निकला. फिर सरकार ने घी में मिलावट रोकने के उपायों के लिए एक सुझाव समिति गठित की. इससे भी हल नहीं निकल सका. मामला ठंडा पड़ गया. सालों बाद 1990 में डालडा पर फिर से आरोप लगे कि इसमें जानवरों की चर्बी होती है. विवादों के बीच बाजार में कंपीटिशन भी बढ़ गया.
बेचना पड़ गया ब्रांड
डालडा जिस तरह से यूनिलीवर के पास आया, उसी तरह उसकी विदाई की स्थिति बन गई. विवाद और प्रतिस्पर्धा के बीच डालडा की चमक फीकी पड़ने लगी. साल 2003 में यह ब्रांड बेचना पड़ गया. बंंज लिमिटेड (Bunge Limited) ने डालडा का अधिग्रहण कर लिया. फिर अगले साल यूनिलीवर पाकिस्तान ने भी अपना डालडा व्यवसाय बेच डाला. इसमें 6 वरिष्ठ यूनिलीवर अधिकारियों ने एक मैनेजमेंट ग्रुप बनाया और यूनिलीवर पाकिस्तान से डालडा व्यवसाय खरीद लिया.
बंज ने इसे फिर से फर्श से अर्श पर पहुंचाने के प्रयास शुरू कर दिए. आज भी डालडा के वनस्पति घी के अलावा सरसों तेल, सोयाबीन ऑयल, सनफ्लावर ऑयल, राइस ऑयल वगैरह प्रॉडक्ट बाजार में उपलब्ध हैं.
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