[केसी त्यागी]। देश में सीवर टैंकों की सफाई के दौरान सफाई कर्मियों की मौतें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। हाल में दिल्ली और उससे सटे नोएडा एवं फरीदाबाद में कई जगहों पर हाथ से सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान कई सफाई कर्मियों की जान चली गई। देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी घटनाएं रह-रहकर सामने आती ही रहती हैं। हालांकि मृतकों के परिजनों की शिकायत पर संबंधित संस्थानों और अधिकारियों के खिलाफ आइपीसी की धारा 304 (2) के तहत विभिन्न स्थानों पर केस दर्ज किए जाते हैं, लेकिन उसका कोई सकारात्मक असर नहीं दिखता। अगर कोई हाथ से मैला ढोने से रोकने वाले कानून का उल्लंघन करता है तो इसमें हर उल्लंघन के लिए संबंधित व्यक्ति को एक वर्ष का कारावास और जुर्माने का प्रविधान किया गया है।
अगर उल्लंघन किसी कंपनी द्वारा किया जाता है तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई का प्रविधान है। इस विषय में एक अच्छी बात यह हुई है कि दिल्ली में हुई मौतों का दिल्ली हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया है। उसकी यह टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी गरीब हाथ से मैला उठाने का काम करने को मजबूर हैं। न्यायालय ने सीवर की जहरीली गैस से मरने वाले दो लोगों के स्वजनों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा है। उचित कार्रवाई न करने पर दिल्ली विकास प्राधिकरण को फटकार तो लगाई है, लेकिन किसी भी अधिकारी को दोषी मानकर उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की कोई बात नहीं कही है।
अफसोस कि स्वच्छता अभियान के तमाम दावों के बीच समाज को शर्मसार करने वाली घटनाएं हमारे महानगरों में घटित हो रही हैं। छोटे-बड़े सभी शहरों के आवासीय-कार्यालय परिसरों के सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए ठेकेदारों द्वारा 400-500 रुपये के लालच में अकुशल सफाई कर्मचारियों को बिना बेल्ट, मास्क, टार्च और अन्य बचाव उपकरणों के ही 10-15 मीटर गहरे टैंकों में उतार कर सफाई प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है। रोजगार के अभाव में सफाई कर्मचारी अपनी जान पर खेलकर उन गैस चैंबरों में उतरने का जोखिम उठाते हैं, जहां कई बार अमोनिया, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड आदि जहरीली गैसों से उनकी मौत हो जाती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर पांचवें दिन एक सफाई कर्मचारी मौत का ग्रास बनता रहा है।
तमाम तकनीकी उपलब्धियों के बावजूद सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई में मशीनरी का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। 2021 के आंकड़ों के मुताबिक देश में शुष्क शौचालयों की संख्या 26 लाख है। करीब 14 लाख शौचालयों का अपशिष्ट खुले में प्रवाहित किया जाता है, जिसमें आठ लाख से ज्यादा शौचालयों के मल की सफाई हाथों से की जाती है। हालांकि हाथ से मैला सफाई की व्यवस्था खत्म करने के लिए 1.25 लाख करोड़ रुपये की लागत से नेशनल एक्शन प्लान तैयार किया गया है, जिसके तहत 500 शहरों समेत सभी बड़ी ग्राम पंचायतों में भी सफाई के लिए हाइटेक मशीनों का इस्तेमाल किया जाना है, लेकिन राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़े कुछ और ही कहानी बता रहे हैं।
संसद में दी गई जानकारी के अनुसार बीते पांच वर्षों में अकेले सीवर की सफाई के दौरान करीब 350 लोगों की जान गई है। हालांकि सफाई आंदोलन से जुड़े लोगों का मानना है कि मौतों की संख्या कहीं अधिक बताते हैं। शुष्क शौचालयों की सफाई की प्रक्रिया भी जटिल और अपमानजनक है। इनमें पानी नहीं होता है।
आधुनिक शौचालयों में फ्लश की व्यवस्था होती है, जो सामान्य तौर पर सीवर लाइन या बड़े नालों से जुड़े होते हैं। इसके उलट शुष्क शौचालयों में मल का निस्तारण खुद नहीं होता, बल्कि इसे हाथों द्वारा करना पड़ता है। सफाईकर्मी जब किसी सीवर लाइन या सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए उसमें उतरते हैं तो वहां उन्हें जहरीली गैसों से जलन, सांस, उल्टी, सिरदर्द, संक्रमण और हृदय रोगों तक की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
ऐसे भी मामले प्रकाश में आए हैं जब अधिक दुर्गंध के कारण किसी सफाईकर्मी ने असमर्थता जाहिर की तो उसे शराब के नशे में सफाई के लिए उतारा गया। देश में शुष्क शौचालय निर्माण रोकथाम कानून भी है, पर प्रशासनिक उदासीनता के चलते इसका कोई असर देखने को नहीं मिलता है। यही कारण है कि तमाम सख्त कानूनों के बाद भी ऐसे कार्यों में संलिप्त ठेकेदारों की गिरफ्तारी की खबरें मुश्किल से मिलती हैं। स्वच्छता अभियान केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है, पर इसके बजट में पिछले वर्षों की तुलना में वृद्धि नहीं हुई है।
बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर का मानना था कि भारत में कोई अपने काम की वजह से सफाईकर्मी नहीं है, बल्कि जन्म के चलते सफाईकर्मी है। हाथ से मैला साफ करना या मल से भरी टोकरी उठाने का काम सामंती उत्पीड़न की निशानी है। देखा जाए तो जातिगत व्यवस्था की मजबूत जकड़ से बंधे हुए ये बेबस लोग समाज में आज भी सर्वाधिक तिरस्कृत हैं। इसीलिए इनकी बेरहम मौतों पर सभ्य समाज में न तो कोई प्रतिक्रिया होती है, न इनकी स्मृति में कोई कैंडल मार्च निकाला जाता है और न ही यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनता है। शायद इसलिए कि ये घटनाएं जाति श्रेष्ठता के बोध वर्ग की संवेदनाओं को झकझोरती भी नहीं हैं। आज समूचा देश आजादी का अमृत काल मना रहा है। इस अवसर पर देश में हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा को पूरी तरह खत्म करने का हमें प्रण लेना चाहिए। इसी के साथ सफाई कर्मियों की सुध ली जानी चाहिए।
(लेखक पूर्व सांसद एवं जदयू के प्रवक्ता हैं)
Edited By: Arun kumar Singh
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