निर्णय बेहद आम शब्द है लेकिन इसकी उत्पत्ति कानून से हुई है। आम जीवन में भी हम बहुत से संवादों में निर्णय शब्द को उपयोग करते है। कानून में निर्णय को भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। निर्णय देना अदालत का कर्तव्य होता है। किसी भी मामले में निष्कर्ष पर पहुंच कर अदालत द्वारा निर्णय दिया जाता है।
निर्णय विचारण का अन्तिम चरण है। विचारण पूरा हो जाने पर निर्णय सुनाया जाता है और निर्णय के साथ ही विचारण का समापन हो जाता है। आपराधिक न्याय प्रशासन में निर्णय का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि निर्णय से ही परिवादी अथवा पीड़ित पक्षकार को राहत मिलती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 353 से 365 तक में ‘निर्णय’ (Judgement) के बारे में प्रावधान किया गया है। इस आलेख भिन्न भिन्न बिंदुओं के अंतर्गत निर्णय पर चर्चा की जा रही है।
(A). निर्णय सुनाया जाना विचारण के समाप्त होने के पश्चात् तुरन्त या बाद में किसी समय पीठासीन अधिकारी द्वारा खुले न्यायालय में
(i) सम्पूर्ण निर्णय देकर सुनाया जायेगा, या
(ii) सम्पूर्ण निर्णय पढ़कर सुनाया जायेगा, या
(iii) अभियुक्त या उसके प्लीडर द्वारा समझी जाने वाली भाषा में निर्णय का प्रवर्तनशील भाग पढ़कर और निर्णय का सार समझाकर सुनाया जायेगा।
ऐसे निर्णय के सुनाये जाने की सूचना पक्षकारों को या उनके प्लीडरों (Pleaders) को दी जायेगी। ऐसा निर्णय पीठासीन अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित एवं दिनांकित किया जायेगा। यदि निर्णय स्वयं पीठासीन अधिकारी के हाथ से न लिखा गया हो तो उसके प्रत्येक पृष्ठ पर पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षर किये जायेंगे।
ऐसे निर्णय की एक प्रतिलिपि पक्षकारों को या उनके प्लीडरों (अधिवक्ताओं) को निःशुल्क एवं अविलम्ब दी जायेगी।
यदि अभियुक्त अभिरक्षा में है तो उसे निर्णय सुनने के लिये न्यायालय के समक्ष लाया जायेगा और यदि वह अभिरक्षा में नही है तो उससे निर्णय सुनाये जाने के लिए नियत तिथि को न्यायालय में हाजिर होने की अपेक्षा की जायेगी।
लेकिन कोई निर्णय केवल इस कारण विधित अमान्य न समझा जायेगा कि उसके सुनाये जाने के लिए सूचित दिन को या स्थान में कोई पक्षकार या उसका प्लीडर अनुपस्थित था। (धारा 353) यथासम्भव निर्णय ‘संक्षेप’ में लिखा जाना चाहिये। अत्यधिक लम्बे निर्णय को अच्छा नहीं माना जाता है।
निर्णय में पक्षकारों के विरुद्ध अनावश्यक ‘टिप्पणी’ नहीं की जानी चाहिये। कोई भी टिप्पणी करते समय न्यायिक विवेक, शालीनता, गंभीरता एवं निष्पक्षता का परिचय दिया जाना अपेक्षित है।
(B). निर्णय की भाषा
जब तक अन्यथा उपबंधित नहीं हो, प्रत्येक निर्णय न्यायालय की भाषा में लिखा जायेगा। धारा 354 के अनुसार न्यायालय की भाषा वह होगी जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाये।
‘नागेश्वर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि निर्णय में संयत भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिये।
(C).निर्णय की अन्तर्वस्तुयें संहिता की धारा 354 के अनुसार प्रत्येक निर्णय में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया जायेगा
(क) अवधारण के लिए प्रश्न ऐसे प्रश्नों का विनिश्चय और विनिश्चय के कारण
(ख) वह अपराध जिसके लिए और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 या अन्य विधि को वह धारा, जिसके अधीन अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है और वह दण्ड जो दिया गया है।
(ग) यदि निर्णय दोषमुक्ति का है तो उस अपराध का कथन जिससे अभियुक्त दोषमुक्त किया गया है और यह निदेश कि वह स्वतंत्र कर दिया जाये।
(घ) जब दोषसिद्धि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अधीन है और यह सन्देह है कि अपराध उस संहिता की दो धाराओं में से किसके अधीन या एक ही धारा के दो भागों में से किसके अधीन आता है, इस बात को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया जाना और अनुकल्पतः निर्णय दिया जाना।
(ङ) जब दोषसिद्धि मृत्यु दण्ड या अनुकल्पित आजीवन कारावास अथवा कई वर्षों की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिए हो, वहाँ निर्णय दिये गये दण्डादेश के कारण एवं मृत्यु दण्ड की दशा में ऐसे आदेश के विशेष कारण।
(च) जब दोषसिद्धि एक वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए हो किन्तु न्यायालय तीन माह से कम अवधि के कारावास का दण्ड अधिरोपित करें तब ऐसे दण्ड देने के कारण।
(छ) जब किसी व्यक्ति को मृत्यु दण्ड दिया गया हो, वहाँ आदेश में यह निदेश कि “अपराधी को गर्दन में फाँसी लगाकर तब तक लटकाया जाये जब तक कि वह मर न जाये।”
निर्णय में केवल निष्कर्ष का उल्लेख किया जाना मात्र पर्याप्त नहीं है, अपितु निष्कर्ष के कारणों का उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है।
मृत्यु दण्ड केवल विलक्षण प्रकृति के मामलों (Rarest of rare cases) में ही दिये जाने की बलात्कार के मामलों के निर्णय में बलात्कार की पीड़ित महिला का नाम नहीं दिये जाने की भी अनुशंसा की गई है
(D). महानगर मजिस्ट्रेट का निर्णय
धारा 355 के अनुसार महानगर मजिस्ट्रेट के निर्णय में निम्नांकित बातों का उल्लेख किया जायेगा
(क) मामले का क्रम संख्यांक,
(ख) अपराध किये जाने की तारीख,
(ग) यदि कोई परिवादी है तो उसका नाम,
(घ) अभियुक्त व्यक्ति का नाम, उसके माता-पिता का नाम और उसका
(ङ) अपराध जिसका परिवाद किया गया है या जो साबित हुआ है,
(च) अभियुक्त का अभिवाक् और उसकी परीक्षा (यदि कोई हो)
(छ) अंतिम आदेश,
(ज) ऐसे आदेश की तारीख, एवं
(झ) निर्णय के कारणों का संक्षिप्त कथन
(E). प्रतिकर का आदेश निर्णय में जुर्माने की राशि में से निम्नांकित के लिए ‘प्रतिकर’ का आदेश दिया जा सकेगा। यह प्रावधान धारा 357 में किए गए हैं।
(i) अभियोजन में उपगत व्यय,
(ii) पीड़ित पक्षकार को अपराध से कारित हानि या क्षति
(ii) घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 के अन्तर्गत प्रतिकर, आदि।
(F). परिवीक्षा का आदेश
धारा 360 के अनुसार जब ऐसा व्यक्ति जो
(i) 21 वर्ष से कम आयु का नहीं है; तथा
(ii) केवल जुर्माने से अथवा सात वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है; अथवा जब कोई व्यक्ति जो
(क) स्त्री है; या
(ख) 21 वर्ष से कम आयु का नहीं है; तथा
(ग) ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है
तब न्यायालय निम्नांकित बातों पर विचार करते हुए अभियुक्त को सदाचरण की परिवीक्षा पर या ‘भर्त्सना के पश्चात् छोड़ देने का आदेश दे सकेगा
(i) अपराधी की आयु
(ii) शील
(ii) पूर्ववृत एवं
(iv) अपराध की परिस्थितियों आदि
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संहिता की धारा 360 एवं परिवीक्षा अधिनियम की धारा 4 में काफी अन्तर है। दोनों धारायें एक साथ सह-अस्तित्व में नहीं रह सकती है।
(G). निर्णय में परिवर्तन नहीं किया जा सकना निर्णय या अन्तिम आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये जाने के पश्चात् न्यायालय द्वारा
(i) लिपिकीय या
(ii) गणितीय;
भूल को ठीक करने के सिवाय उसमें कोई परिवर्तन या पुनरावलोकन नहीं किया जा सकेगा।
स्पष्ट है कि निर्णय या अंतिम आदेश में केवल लिपिकीय या गणितीय त्रुटि को ही सुधारा जा सकता है, अन्य कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
निर्णय पर हस्ताक्षर होते ही न्यायालय का कार्य समाप्त हो जाता है। इसके पश्चात् न्यायालय द्वारा निर्णय में लिपिकीय या गणितीय त्रुटि को ही ठीक किया जा सकता है, उसमें अन्य किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
दण्ड न्यायालय द्वारा अपने ही निर्णय अथवा आदेश का पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता है।
अर्थात् दण्ड न्यायालय द्वारा अपने ही निर्णय अथवा आदेश को नहीं बदला जा सकता है।
(H). निर्णय की प्रति दिया जाना
जब अभियुक्त को कारावास का दण्डादेश दिया जाता है तब निर्णय के सुनाये जाने के पश्चात् निर्णय की एक प्रति उसे निःशुल्क तुरन्त दी जायेगी। यह प्रावधान धारा 363 में किए गए हैं। सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दिये गये निर्णय एवं दण्डादेश की एक प्रति सम्बन्धित जिला मजिस्ट्रेट को भेजी जायेगी।
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