एक आरोपी व्यक्ति भी हमारे समाज का एक अंग होता है लेकिन वह अपने आप को सामान्य व्यक्ति से भिन्न समझता है और कभी कभी तो वह अपने आप से घृणा भी करने लगता है। आरोपी होने का मतलब यह नहीं है कि समाज में उसका कोई स्थान नहीं। संभव है वह निर्दोष हो और उसे किसी मामले में झूठा फंसा दिया गया हो।
या हो सकता है कि किसी प्रलोभन, ममता, मोहवश के भावावेश में आकर कोई अपराध कर दिया गया हो। ऐसे मे उसका कोई कार्य उसे आरोपी या अपराधी का नाम अवश्य दे सकता है लेकिन समाज एवं परिवार के स्थान से उसे वंचित नहीं किया जा सकता है। वह गिरफ्तारी से लेकर निर्णय तक वह अपने अधिकारों की मांग कर सकता है। कोई भी विधि (कानून) किसी आरोपी को सुनवाई का अवसर दिये बिना दण्डित नहीं कर सकती है ओर यही नीतिपूर्ण हैं।
भारतीय संविधान अधिनियम,1950 के अनुच्छेद 20 से 22 तक दोषसिद्धि के संबंध में आरोपी के विभिन्न अधिकारों का संरक्षण प्रदान किया गया है। इसी संदर्भ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 में आरोपी व्यक्ति को तीन प्रकार के संरक्षण दिये गए हैं:-
1. कार्योत्तर(वर्तमान लागू कानून) विधि से संरक्षण।
2. दोहरे दण्ड या आरोपों से संरक्षण।
3. स्व-अभिशंसन(जबर्दस्ती साक्ष्य के लिए मजबूर) करने से संरक्षण।
इस प्रकार अनुच्छेद 20 के अंतर्गत केवल आरोपी व्यक्ति को संरक्षण प्राप्त होते हैं। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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