दिव्या विजय
थकान काम के सिलसिले में की गई निरंतर यात्राओं से। एक यात्रा से निढाल वे दूसरी यात्रा के लिए तैयार रहते हैं। घबराहट जो अब तक हासिल किया उसे खो देने के डर से। यह सहज सवाल आया कि उन्हें सब कुछ सहज उपलब्ध है, फिर वे भयातुर क्यों हैं, तब जवाब था कि उनके लिए जीवन का दूसरा नाम भागते चले जाना है। जब वे रुकते हैं तो इस दौड़ में हार जाने का डर उन्हें सताने लगता है। वे जहां है, वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है। तो अब वे ठहरने का जोखिम मोल नहीं ले सकते। क्षण भर के लिए भी रुकने पर वे पीछे रह जाएंगे।
किसी मसले के स्रोत पर विचार करने वाले लिए यह स्वाभाविक द्वंद्व खड़ा होगा कि पीछे रह जाने का अर्थ क्या है। हम किस तरह के और किस पैमाने पर खुद को नापते हैं, जिसके एक निश्चित बिंदु पर हमारा होना आवश्यक है, अन्यथा हम इस समाज के लिए अनफिट या समाहित होने के अयोग्य करार दे दिए जाएंगे। जाहिर है, वह पैमाना हमारा अपना नहीं होता। दूसरों की दृष्टि हमें कैसे देखती है, बाहरी दुनिया के नियम-कायदे क्या कहते हैं, वही वह पैमाना होता है।
जीवन में ऊंचाई पर पहुंचने की इच्छा रखना बुरा नहीं है पर ऊंचाई तय करने वाला कारक क्या है, सिवा पद और पैसे के! व्यक्ति का निजी विकास इन बातों के आगे कोई अर्थ ही नहीं रखता। उसी संदर्भ में मित्र ने आगे कहा कि वे अपने जीवन से सौ फीसद संतुष्ट हैं। यह बात किसी को आश्चर्य से भर दे सकती है। मगर इसके बाद धीरे से उन्होंने कहा, लेकिन असंतुष्टि की मात्रा हजार फीसद है। इसका कारण उन्हें नहीं मालूम। जीवन में ठहराव यानी स्थिर होने की महत्ता हम सब भुलाते जा रहे हैं। एक बेलगाम, अंतहीन दौड़ का हिस्सा होते हुए हमें याद ही नहीं रहता कि किन बातों का अभाव हमें धीरे-धीरे लील रहा है।
इन दिनों एक जुमला बहुत प्रचलित है कि जरूरतें कम नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपनी आमदनी बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। लेकिन सच यह है कि इच्छाएं तो सुरसा की तरह मुंह फाड़ती जाती हैं। एक पूरी होने पर दूसरी तैयार मिलती है। इन लालसाओं को निर्धारित करने वाला केंद्र भी हमारे आसपास के लोग ही हैं। एक व्यक्ति ने जो खरीदा है, कुछ दिनों बाद दूसरे के पास भी वह दिखाई पड़ेगा। पहला जहां गया है, दूसरा वहां अवश्य जाना चाहेगा। ये लालसाएं एक व्यक्ति को भले ही निगल जाएं पर अपना अस्तित्व खत्म नहीं होने देतीं। सब्र और संतोष जैसे मूल्य निम्न-स्तरीय मान लिए गए हैं जो मात्र कमजोर लोगों के लिए है, ताकतवर-मजबूत लोगों के लिए नहीं। जो रुक गया, वह वहीं खत्म। इसलिए सरपट भागे चले जाओ।
नई पीढ़ी इसी फार्मूला या नीति का अनुसरण कर रही है। छोटी उम्र से ही वह नामी-गिरामी ‘ब्रांड’ के लिए सजग है। कपड़ों से लेकर गाड़ियों तक का ‘ब्रांड’ देखकर वे व्यक्ति का मूल्य आंकते हैं। जितनी कीमती वस्तुएं होंगी, उस व्यक्ति का उतना सम्मान उनकी नजरों में होगा। सड़क पर दौड़ती महंगी गाड़ियां देखकर उनके मुंह से ‘आह’ निकल जाती है। वे अपना मूल्य भी इसी से तय करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे बेहतर होने के अहंकार से ग्रस्त होकर जब कहते हैं कि उनके पास बिल्कुल नए माडल का मोबाइल है, तब उनके चेहरे के भाव देखे जाने चाहिए।
उन्हें कोई नहीं सिखाता कि भौतिक वस्तुएं अहंकार का के लिए नहीं होनी चाहिए। आगे चल कर जब वे सांसारिक प्रतिस्पर्धा से दो-चार होते हैं तब उनके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। अगर वे वहां तक नहीं पहुंच सके, जहां यह जीवनशैली आसानी से जुटा सकते हैं तो वे दूसरों की निगाह के साथ अपनी निगाह में भी असफल माने जाते हैं। करिअर में स्थापित होने की उठापटक बहुत-से लोगों को अवसाद तक पहुंचा रही है, क्योंकि सफलता की जो परिभाषा हम लोगों ने बना रखी है, वे उस पर खरे नहीं उतर पाते। कितने ही युवा इस तथाकथित असफलता का बोझ नहीं उठा पाते और दुनिया से प्रस्थान कर जाते हैं।
हम कैसे संसार का निर्माण कर रहे हैं, जहां असफलताओं के लिए स्थान नहीं है। नई पीढ़ी के सामने कैसा उदाहरण रख रहे हैं जो पराजय के स्वाद को एकदम वर्जित मान कर चल रही है। उन्हें कैसे मूल्य दे रहे हैं, जहां वे अपने सामर्थ्य को पहचानने के बजाय सिर्फ संसार के बनाए रास्ते पर आंख बंद कर चले जा रहे हैं। क्या हम इतने हृदयहीन हो गए हैं कि औसत कहे या माने जाने वाले लोगों के लिए हमारे समाज में कोई जगह नहीं है? क्या पीछे छूट जाने का डर हम पर इतना हावी हो गया है कि आगे बढ़ते-बढ़ते हम अपने आप से ही हारे चले जा रहे हैं?
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