डॉ. कपिल भार्गव
मनुष्य के जीवन में कई प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं और जाते हैं परंतु, मनुष्य इन उतार-चढ़ाव से बिना थके आगे बढ़ता रहता है। इस यात्रा में कुछ सफल होते हैं तो कुछ विफल, कुछ अपने नाकामयाबी को अपने जीवन का हिस्सा मानते हैं तो कुछ उसे भाग्यलिखित मानकर निराश होकर पुनः सफलता की सीढ़ी चढ़ना छोड़ देते हैं। मनुष्य स्वभाव से ही प्रभावग्राही होता है, बाह्य क्रियाकलापों और आचार-विचार का निर्दिष्ट प्रभाव अच्छा हो या बुरा पढ़ता जरूर है। इन्हीं प्रभावों को संस्कार कहते हैं वैदिक धर्म 16 संस्कारों का विधान करता है। वह संस्कार इस प्रकार हैं-
1. गर्भाधान संस्कार
इस संस्कार के माध्यम से हिंदू धर्म संदेश देता है कि स्त्री पुरुष संबंध पशुवत न होकर वंश वृद्धि के लिए होना चाहिए। मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर गर्भधारण करने से संतति स्वस्थ और बुद्धि मती होती है। स्त्री-पुरुष के मन में इस संस्कार के माध्यम से यह विचार डाला जाता है।
2. पुंसवन संस्कार
गर्भिणी को शक्ति प्रदान करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। मां और बच्चे को स्वस्थ और आरोग्य पूर्ण रखने के लिए यह संस्कार किया जाता है।
3. सीमंतोन्नयन संस्कार
गर्भिणी का मन सदैव संतोष से पूर्ण रहे इस हेतु से इस संस्कार का आचरण किया जाता है। दूसरे एवं तीसरे संस्कार के आचरण करने से गर्भस्थ शिशु पर उत्तम प्रभाव पड़ता है, या यूं कहें कि उत्तम संस्कार पड़ते हैं तो भी सही है।
4. जातकर्म संस्कार
इस संस्कार का आचरण शिशु के जन्म के बाद किया जाता है। शिशु के जन्म के बाद होम विशेष का आचरण शास्त्रोक्त है। तत्पश्चात शिशु के पिता स्वर्ण या चांदी के धागे को शहद में भिगोकर शिशु के जिह्वा के ऊपर ओम् लिखते हैं और कानों में वेदोऽसी तुम ‘ज्ञानमय’ हो ऐसा उच्चारण करते हैं।
5. नामकरण संस्कार
शिशु के 11 दिन 101 अथवा 1 वर्ष का होने पर होम विशेष का आयोजन करके नाम रखा जाता है। वैदिक धर्म में नाम व्यावर्तन, निर्देशन, और आदर्शन इनको ध्यान में रखते हुए रखा जाता है। इसका मतलब है कि दूसरों से अलग करना व्यावर्तन कहलाता है, ऐसा है यही है यह पहचानना निर्देशन कहलाता है, और एक श्रेष्ठ लक्ष्य को रखना यह आदर्शन कहलाता है। इन तीनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए नाम रखा जाता है। नामकरण करते समय पिता इस मंत्र का उच्चारण करते हैं –
।।कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि कोऽनामासि।। ( यजु. वेद. ७.२६ )
सामान्य तौर पर यह मंत्र प्रश्नार्थक है- कौन हो? कौन सा नंबर है? किस के हो? और नाम क्या है? प्रथम बार जब पिता शिशु के कर्ण में इस मंत्र का उच्चारण करते हैं तो यही अर्थ होता है।
6. निष्क्रमन संस्कार
छठा संस्कार है निष्क्रमण। जब शिशु 4 माह का होता है तो उसे पहली बार घर से बाहर ले जाया जाता है। घर से बाहर निकल कर शिशु को सूर्य भगवान को दिखा कर पुत्र अथवा पुत्री जिस सूर्य को तुम देख रही हो या रहे हो उसी के समान प्रकाश पुंज बनना। धीरता और वीरता के साथ दीर्घायु रहो एतदर्थक मंत्र का उच्चारण करते हैं इस संस्कार में।
7. अन्नप्राशन संस्कार
सातवा संस्कार है अन्नप्राशन। 5 माह के बाद जब बालक अन्न को पचाने की शक्ति पा लेता है तब विशिष्ट होम कर रुचिकर, मृदु और शिशु योग्य आहार बालक को खिलाया जाता है। उस समय उच्चरित किया जाने वाला मंत्र जीवन पर्यंत आहार के विषय में आदर्श प्रदान करता है।
।।अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो देह्यनमीवस्य द्विपदे चतुष्पदे।। ( यजुः. ११.८३.)
भोजन ग्रहण कर्ता आहार देने वाले स्वामी से प्रार्थना करता है कि हमें रोग रहित बल प्रयादक अन्न का भाग दें । अन्न प्रदान करने वाले कृषिक को सभी कष्टों से बचाना।
8. चूड़ाकर्म संस्कार
आठवां संस्कार है चूड़ाकर्म। जन्म से आए हुए बाल आरोग्य कर नहीं होते, अगर उन्हें काट दिया जाता है तो बालक नाना प्रकार के रोगों के आक्रमण से बच सकता है। उसके बाद आने वाले बाल सुंदर और आरोग्य पूर्ण भी होते हैं। इस संस्कार में होम विशेष का करना आवश्यक है। होम के दौरान बालक की दीर्घायु और कीर्ति की प्रार्थना की जाती है।
9. कर्णवेध संस्कार
इस संस्कार में बच्चे के कान के युक्त स्थान पर छेद किया जाता है। इसकी अनिवार्यता भी है, क्योंकि इस क्रिया के करने से अंत्रवृद्धी नामक बीमारी दूर होती है, एवं अभरण पहनने से बच्चे की सुंदरता में भी वृद्धि होती है। इस संस्कार में भी होम विशेष करके शिशु के कानों में हमेशा उत्तम शब्द ही पड़े यह प्रार्थना करते हैं।
10. उपनयन संस्कार
आचार्य या गुरु को गर्भाष्टम: कहा जाता है क्योंकि 8 वर्ष के बालक बालिकाओं को अगले 12 वर्ष के लिए गुरु अपने साथ ले जाते है और अपने पास रखते हैं।गुरु का शिष्यों के प्रति व्यवहार पूर्णत: एक पिता के समान रहता है।जैसे माता अपने पुत्र की हर बात का हर जरूरत का ध्यान रखती ही ठीक उसी प्रकार 8 वर्ष के बाद यह सारे दायित्व और कर्तव्य गुरु के होते हैं और गुरु उन्हें निभाते भी हैं इसीलिए गुरु को गर्भाष्टम: कहा जाता है। 8 वर्ष के बालक या बालिका को मंत्रोच्चारण पूर्वक तीन धागों वाला यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करवाते हैं। आचार्य उस मंत्र में सत्कर्मों के साथ ही यज्ञोपवीत का उद्भव होता है यज्ञोपवीत में विद्यमान तीन धागे मन:शुद्धि, वाक्शुद्धि और कायशुद्धि तीन प्रकार की शुद्धि को सूचित करते हैं। शुद्ध एवं पवित्र जीवन रहे यही उस मंत्र का तात्पर्य है। यहाँ यज्ञोपवीत धराण केवल बालकों को ही करना चाहिए ऐसा नहीं हैं क्यों की वह तो हमे हमारे जीवन के लक्ष्यों को ध्यान दिलाने के लिए होता है, और लक्ष्य तो बालक बालिका दोनों के होते हैं।इस संस्कार के तहत बालक या बालिका का धार्मिक जीवन प्रारंभ होता है। हवन विशेष को कर बालक बालिकाएं अनृतात् सत्यमुपैति (यजुर्वेद 1.5) असत्य से सत्य की ओर जाएंगे इस महाव्रत को स्वीकार करते हैं। उप नयन अर्थात पास ले जाना। कौन? किसे? किस के पास ले जाता है? तो कहते हैं- आचार्य बालक बालिकाओं को शिक्षा प्रदान करने के लिए अपने समीप बुलाते हैं। इस प्रक्रिया को ही उपनयन संस्कार कहते हैं।
11. वेदारंभ संस्कार
उपनयन संस्कार के तत्काल बाद वेदारंभ संस्कार किया जाता है। इसे विद्या अध्ययन का उद्घाटन या शुभारंभ भी कहा जा सकता है। इसी संस्कार में आचार्य शिष्य शिष्याओं को प्रार्थना में उत्कृष्ट प्रार्थना को, अनुपम, सार्वभौम और सार्वकालिक अद्भुत गायत्री मंत्र का उपदेश देते हैं। वैदिक धर्म का सौंदर्य पूर्ण गायत्री मंत्र इस प्रकार है-
ओम् भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।। ( यजु:.36.3 )
(परम आत्मा सर्व रक्षक प्राण स्वरूप दुख निवारण आनंद स्वरूप सर्व जगत उत्पादक)
इस संस्कार के बाद बालक बालिकाएं विद्याभ्यास को आरंभ करके ब्रम्हचर्य पूर्वक साधनामय जीवन का निर्वहन करते हुए समस्त विद्याओं को ग्रहण करते हैं।
12. समावर्तन संस्कार
विद्या अभ्यास के पूर्ण होते ही समावर्तन संस्कार किया जाता है। विशिष्ट होम आदि कार्य के उपरांत युवक युवतियां 8 कलशों में रखे हुए जल से स्नान करते हैं। 8 दिशाओं में जहां कहीं भी जाएं जल की शांति का और पवित्रता का प्रसार करेंगे ऐसा संकल्प करना इस संस्कार का रहस्य है। कलशा में रखे हुए जल से स्नान करने के बाद वह स्नातक अथवा स्नातिका कहलाते हैं। यहां पर ब्रह्मचारी आश्रम समाप्त होता है।
13. विवाह संस्कार
ब्रम्हचर्य से दृढकाय, सदाचारी, सभी विद्याओं में निष्णात हुए, कनिष्ठ पक्ष 25 वर्ष के युवक और 18 वर्ष के युवतियां एक समान गुण, कर्म, स्वभाव युक्त परस्पर एक-दूसरे से सहमत होकर विवाह करते हैं। यह मनुष्य के जीवन के महत्वपूर्ण पहलूओं में दूसरा पहलू है। विवाह संस्कार की प्रत्येक प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थगर्भित है। दो आत्माएं अपने जीवन के घनत्व को दूर कर एक संयुक्त जीवन को बनाने का संकल्प लेते हैं-
।। समजंतु विश्वे देवा: समापो
हृदयानि नौ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री
दधातु नौ।। (ऋक्.10.85.47)
यहां पर उपस्थित सभी विद्वान और विदुशियाँ सुनें- हमारे ह्रदय जल में मिले जल के समान एक हो गए हैं, प्राणशक्ति, जगत धारक, वेदों के द्वारा उपदेश देने वाले प्रभु हमें अच्छे से, एक करें, प्रीति से एक करें। इस के पश्चात वर वधू का हाथ पकड़ कर गम्भीरता से सभ्य गृहस्थों के समक्ष कहता है-
।।गच्छामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर् यथासः
भगो अर्यमा सविता पुरंधिर्ममह्यं त्वा दुर्गार्हपत्याय देवाः।। (ऋक्.१०.८५.३६)
पति स्वरूप मेरे साथ आजीवन आध्यात्मिक, भौतिक सौभाग्य प्राप्ति के लिए तुम्हारा हाथ पकड़ता हूं। तेजोमय, न्यायकारी, जगत उत्पादक, सर्वाधारक प्रभु, और यहां पर उपस्थित सभी गुरुजनों ने गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए तुम्हें मुझे दिया है
।।पत्नी त्वमसि धर्मणाहं गृहपतिस्तव ।। (अथर्व. १४.१.५१)
धर्म पूर्वक तुम मेरी पत्नी हो और धर्म पूर्वक मैं भी तुम्हारा ग्रह पति हूं, इस वाक्य को बोलकर यह निश्चित और व्यक्त करते हैं कि हम दोनों को धर्म ने ही एक बंधन में बांधा है न कि कामवासना ने इस भावना को सूचित करता है। अंत में-
।।न स्तेयमदमि मनसोदमुच्ये।। (अथर्व.१४.१.५७)
वर वधु से कहता है कि मैं तुम से छुपा कर कोई भी भोग नहीं भोगूंगा, अपने मन से एतादृश भावना को हमेशा के लिए निकालता हुँ, ऐसा आश्वासन वधु को देता हैं। मैं भी अपना संपूर्ण जीवन अपने वर को समर्पित करती हूं यह कहते हुए पत्नी घोषणा करती है-
।।इदम् नार्युप ब्रूते पूल्यान्यावपंतिका दीर्घायुरस्तु मे पतिर्जीवाति शरदः शतम्।। (अथर्व.14.2.63)
लाजा की आहुति देते हुए वधू मेरा पति दीर्घायु हो, शतायु हो ऐसी प्रार्थना करती है। सप्तपदी में हम दोनों परस्पर एक दूसरे के साथ तालमेल से जीवन व्यतीत करेंगे इस बात को सूचित करते हुए, वर वधू एक साथ सात कदम चलते हैं। दंपति परस्पर एक दूसरे के साथ सौजन्य से बर्ताव करें ऐसा वेद आदेश देता हैं-
।।इहैव स्तं मा वी यौष्टम् विश्वमायुर्व्यष्णुतम् क्रीडंत पुत्रैर्नपत्रभिर्मोदमानौ स्वे गृहे।। ( ऋक्. 10.85.42 )
गृहस्थ जीवन को पूर्ण काल तक अनुभव करें और पुत्र पौत्र आदि के साथ खेलते हुए खुशी खुशी अपने घर पर रहे।
14. वानप्रस्थ संस्कार
गृहस्थी जीवन के उपरांत पुरुष वानप्रस्थ आश्रम में जब प्रवेश करता है तब यह संस्कार विधान किया जाता है। विशिष्ट होम आदि कार्य करके भगवान को प्रार्थना समर्पित करके ज्येष्ठों का आशीर्वाद ग्रहण करके पत्नी के साथ अथवा एकाकी नूतन स्थान के लिए प्रस्थान करता है।
15. संन्यास संस्कार
वानप्रस्थ की समाप्ति के बाद जब वह संन्यास को ग्रहण करता है तब यह संस्कार किया जाता है। कोई और विद्वान सन्यासी वानप्रस्थि को संन्यास दीक्षा प्रदान करता है। संन्यास शब्द में न्यास शब्द का अर्थ है त्यागना। संन्यासी संकल्प करता है कि वह अब बच्चों के ऊपर जो आशा है उसका त्याग करता हूं,और धन विषय की जो आशा है उसका भी त्याग करता हूं। लोक में यश, समृद्धि विषयक जो आशा है उसका भी त्याग करता हूं। मुझ से समस्त प्राणियों को अभय रहे इस प्रकार घोषणा करके जल में स्थित होकर यज्ञोपवीत को और शिखा को विसर्जित करता है। स्नान करके, संन्यास वस्त्र धारण कर, परिव्राजक होकर वहां से प्रस्थान करता है।
16. अंत्येष्टि संस्कार-
मानव के मरण के बाद उसके शव को शीघ्र अति शीघ्र पंच भूतों में लीन करा देना चाहिए यह वेद कहता है-
।।भस्मान्तं शरीरम।। (यजु:.40.15)
शरीर भस्म में अंत होता है। दहन ही वैज्ञानिक क्रम है। किस प्रकार शव का दहन करना चाहिए तो कहते हैं- सही प्रमाण में घृत सामग्री( व्यक्ति के शरीर के भार के बराबर घृत होना चाहिए) चंदन की लकड़ी, कपूर इत्यादि का उपयोग करें तो दुर्गंध नहीं आती है। अर्थ गर्भित वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए चिता की अग्नि को आहुतियां देते हैं। अर्थ गर्भित मंत्रों से शव को कोई लाभ नहीं है, परंतु समशान में स्थित जो सदस्य हैं उनके मन पर जगत की नश्वरता का रूप चित्रित होता है, आध्यात्मिक भावनाओं का उद्भव होता है। उदाहरण के लिए मंत्र को देखते हैं
।। सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्
हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चाः।। ( ऋक्. 10.14.8 )
तृतीय दिन अस्थियों का संचय करके उनको कहीं पर जमीन में दबा देना चाहिए, जिससे वह वही नष्ट हो जाए, मिट्टी में मिल जाए। यहां पर अंत्येष्टि कर्म समाप्त होता है। मृतकों का श्राद्ध आदि कर्म करना अवैदिक है। इस तरह यह 16 वैदिक संस्कार मानव की बुद्धि पर, मन पर अद्भुत प्रभाव डालते है।
(लेखक, संस्कृत शिक्षक एवं साहित्यकार केन्द्रीय विद्यालय, भोपाल)
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