धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों का इतिहास
आखिरकार संविधान सभा ने बहुत सूझबूझ से ‘प्रचार’ शब्द का इस्तेमाल किया और भारतीयों के अपने धर्म को मानने, उसका प्रचार करने और उसका पालन करने के हक को मौलिक अधिकार का अंग बनाया.
इस स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान के बावजूद ओड़िशा और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकारों ने ही सबसे पहले धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाए और विडंबना ही है कि उन्हें ‘”धर्म की स्वंत्रता” के कानून नाम दिया.
तब श्रीमती यूलिता हाइड और अन्य बनाम ओड़िशा राज्य (1972) मामले में ओड़िशा हाई कोर्ट ने ओड़िशा धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 1967 को असंवैधानिक ठहराया था.
हालांकि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने रेव स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1977) मामले में ऐसे ही एक्ट को बहाल रखा था. दोनों फैसलों की अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई और 17 जनवरी, 1977 को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने तर्क में इस तथ्य पर जोर दिया था कि अनुच्छेद 25(1) के तहत ‘प्रचार’ शब्द किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देता कि वह किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मांतरित करे. यह शब्द इस बात का अधिकार देता है कि लोगों को अपने धार्मिक विचारों और परंपराओं का प्रचार या प्रसार करने का अधिकार है, वह भी “विवेक की स्वतंत्रता” को ध्यान में रखते हुए.
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