महामना की पुण्यतिथि (12 नवंबर) पर विशेष
हिन्दी पत्रकारिता के पितृ पुरुष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता, विद्यार्थियों के मध्य लोकप्रिय शिक्षक, उच्चकोटि के विद्वान एवं राजनीतिज्ञ, प्रसिद्ध वकील, प्रभावी वक्ता महामना मदनमोहन मालवीय का नाम और उनके सिद्धांत भारतीय संस्कृति व इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को आदर्शों की पुण्यभूमि पर सींच कर उसे राष्ट्र एवं समाज की उन्नति हेतु एक माध्यम बताया। उन्होंने कभी भी पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों से समझौता नहीं किया। सन् 1887 में उन्हें ‘हिन्दोस्थान’ समाचार-पत्र के संपादक पद हेतु निमंत्रण मिला। यह निमंत्रण स्वयं राजा रामपाल सिंह ने दिया था। सन् 1886 में कोलकाता की कांग्रेस में पंडितजी का एक बहुत ही ओजस्वी भाषण हुआ। इसमें उन्होंने अंग्रेजी भाषा में दिए व्याख्यान में कहा- “एक राष्ट्र की आत्मा का हनन और उसके जीवन को नष्ट करने से अधिक और कोई अपराध नहीं हो सकता। हमारा देश इसके लिए ब्रिटिश सरकार को कभी क्षमा नहीं कर सकता कि उसने एक वीर जाति को भेड़-बकरियों की तरह डरपोक बना दिया है।” इसी व्याख्यान से राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पंडितजी को ‘हिन्दोस्थान’ के लिए निमंत्रण भिजवाया।
राजा रामपाल सिंह यह जानते थे कि उस समय पंडितजी को साठ रुपए मासिक वेतन मिलता है। परंतु वे पंडितजी की बुद्धिमता एवं पत्रकारिता कौशल से परिचित थे अत: उन्होंने उसी से प्रभावित होकर उन्हें कालाकांकर से प्रकाशित होने वाले इस पत्र के संपादक का प्रस्ताव भेजा। राजाजी ने पंडितजी को दो सौ रुपए मासिक वेतन का प्रस्ताव दिया और उन्हें लगा कि इतने वेतन से वे सहर्ष तैयार हो जाएंगे। राजाजी का प्रस्ताव अपने मूल्यों व आदर्शों से समझौता न करने वाले पंडितजी ने आसानी से स्वीकार नहीं किया। चूंकि पंडितजी सदैव सनातन धर्म में विश्वास रखने वाले संस्कारवान व्यक्ति थे और राजाजी विलासितापूर्ण जीवन जाने वाले थे इसलिए वे इस निमंत्रण को स्वीकारने में संकोच कर रहे थे। चूंकि राजाजी इंग्लैंड से अध्ययन कर के आये थे अत: उनकी आधुनिक व विलासी जीवन शैली पंडितजी की सनातनी जीवन शैली से किस कदर मेल खाती यह सोचकर वे उनका आग्रह स्वीकारने में संकोच कर रहे थे।
आज लोग पैसा व पद के प्रलोभन में आकर कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं परंतु यही पैसा व पद उन्हें उनके आदर्शों से विचलित नहीं कर पाया। बाद में बहुत सोच-विचार कर उन्होंने राजाजी के सामने दो शर्तें रखी और कहा कि यदि वे इन शर्तों को स्वीकार लेते हैं तो वे ‘हिन्दोस्थान’ का संपादकत्व करने हेतु तैयार हो जाएंगे। पहली शर्त थी कि राजाजी उनके कार्य में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा दूसरी यह कि जब भी वे नशे की हालत में होंगे उन्हें मिलने नहीं बुलाएंगे। जब राजाजी ने इन दोनों शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लिया तो उन्होंने ‘हिन्दोस्थान’ का संपादकीय भार स्वीकार कर लिया।
जुलाई 1887 में उन्होंने अपने शिक्षक पद से त्यागपत्र दे दिया और ‘हिन्दोस्थान’ समाचार-पत्र संभाल लिया। महामना ने अपनी ओजस्वी कलम और तीक्ष्ण पत्रकारिता से ‘हिन्दोस्थान’ को नई लोकप्रियता और ऊँचाइयां दीं। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों पर अपनी कलम चलाई। उनके द्वारा लिखे लेख व संपादकीय बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होंने हिन्दोस्थान में अनेक प्रयोग किए जिनमें से एक था ग्रामीण समाज की समस्याओं को स्थान देना। उन्होंने गांवों की समस्याओं एवं गाँवों के समाचारों को हिन्दोस्थान में स्थान दिया जो बाद में आगे चलकर हिन्दी समाचार-पत्रों का महत्वपूर्ण अंग बना। ‘हिन्दोस्थान’ के माध्यम से देश व समाज की सेवा का जो बीड़ा उन्होंने उठाया उसे लगातार अपने लेखों के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी पत्रकारिता के द्वारा समाज में जागृति फैलाई। उनकी समाजहितैषी, जनहितैषी लेखनी ने उन्हें सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में बहुत लोकप्रियता दिलाई।
‘हिन्दोस्थान’ के माध्यम से उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। मालवीयजी की लेखनी से ‘हिन्दोस्थान’ चमक उठा। उनकी सभी विषयों पर अच्छी पकड़ थी। भाषा उनके विचारों की अनुगामिनी रही। जो लोग उनकी आलोचना करते वे उन्हें भी पत्र में स्थान देते। उनकी निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा, उन्हें औरों से अलग मुकाम प्रदान करती। उन्होंने इस बात का सदैव ध्यान रखा कि उन पर किसी दल विशेष या सम्प्रदाय या विचारधारा विशेष का हितैषी होने का चस्पा न लगे। वे स्वयं लेखों का संपादन व संशोधन बहुत सावधानी से करते थे। लेख का प्रूफ आने के बाद स्वयं मिलान कर संशोधन करते थे।
उनके लिए पत्रकारिता एक बड़ी जिम्मेदारी थी न कि आजीविका या व्यवसाय का माध्यम। यह उनके लिए देश सेवा का माध्यम थी न कि धन पाने का। ढाई साल तक अपनी तीक्ष्ण पत्रकारिता के द्वारा हिन्दोस्थान को उन्नति के सोपान पर पहुंचाने के बाद उन्होंने उसे छोड़ दिया। छोड़ने का कारण उनकी शर्त थी जो राजाजी ने तोड़ दी थी। एक दिन राजाजी ने किसी विषय पर परामर्श हेतु उन्हें बुलाया उस समय वे नशे में थे। महामना ने उन्हें अपनी शर्त याद दिलाई और कहा कि अब वे और वहां नहीं रुक सकते क्योंकि राजाजी ने अपनी शर्त का उल्लंघन किया है। बाद में राजा साहब ने उन्हें बहुत मनाने की रोकने की कोशिश की परंतु वे अपने निश्चय पर डटे रहे।
‘हिन्दोस्थान’ छोड़ने के बाद वे कालाकांकर से प्रयाग आ गए और अंग्रेजी पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ का कार्य संभाल लिया। कुछ समय बाद ‘इंडियन ओपिनियन’ का ‘एडवोकेट’ में विलय हो गया। विलय के पश्चात भी वे ‘एडवोकेट’ में काम करते रहे। इसी बीच सन् 1891 में उन्होंने एलएलबी की डिग्री प्राप्त की व जिला न्यायालय में प्रैक्टिस करने लगे। सन् 1893 में उन्हें उच्च न्यायालय में वकालत करने का अवसर मिला। इस दौरान भी वे अपने लेखन के माध्यम से समाचार-पत्रों से जुड़े रहे।
कुछ वर्ष उपरांत उन्होंने सन् 1907 में अपने स्वयं के प्रयासों के बल पर ‘अभ्युदय’ का उदय किया। यह वसंत पंचमी का दिन था जब ‘अभ्युदय’ प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र था। ‘अभ्युदय’ पत्र हेतु उन्होंने एक संपादकीय नीति निर्मित की। इस नीति का निर्माण ‘स्वराज’ के मूल पर था। स्वराज सदैव उनके आदर्शों में था। अभ्युदय में भी उन्होंने ‘हिन्दोस्थान’ की तर्ज पर ग्रामीण समाचारों को स्थान दिया। अभ्युदय ग्रामीण जनता का कितना बड़ा हितैषी था इसकी झलक हमें उसके पृष्ठ पर लिखे वाक्य को पढ़ कर सहज ही मिल जाती है। अभ्युदय के पृष्ठ पर लिखा वाक्य था- ‘कृपा कर पढ़ने के बाद अभ्युदय किसी किसान भाई को दे दीजिए।’
उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्र की स्वतंत्रता था जिस हेतु वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। उन्होंने अभ्युदय में कई क्रांतिकारी विशेषांक भी प्रकाशित किए जैसे ‘सुभाषचंद्र बोस अंक’, ‘भगत सिंह अंक’ आदि। उन्होंने अभ्युदय के माध्यम से लेखकों को मानदेय प्रदान करने का प्रचलन भी प्रारंभ किया। अभ्युदय में महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेख को प्रकाशित करने के साथ उन्हें मानदेय प्रदान कर उन्होंने इसकी शुरुआत की जबकि उस समय ‘अभ्युदय’ की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी।
पंडितजी ने पत्रकारिता के माध्यम से जो मूल्य स्थापित किए वे आज भी प्रकाश स्तंभ बनकर हमारा पथ प्रदर्शन करते हैं। उस समय पत्रकारिता मिशन थी राष्ट्रवाद का जिसमें समाज को जगाने की शक्ति विद्यमान थी, जिसमें राष्ट्रप्रेम का संचार करने का जज्बा विद्यमान था।
24 अक्टूबर सन् 1910 को उन्होंने ‘लीडर’ प्रारंभ किया। यह अंग्रेजी भाषा का पत्र था। डेढ़ वर्ष निकलने के बाद वह घाटे में चला गया। उस समय वे बड़े व्यस्त थे क्योंकि वे खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु धन का प्रबंध करने में जुटे थे। कुछ समय बाद जब उन्हें ‘लीडर’ की वित्तीय स्थिति का पता चला तो वे विचलित हो गए। उन्होंने लीडर हेतु धन की व्यवस्था की और उनके प्रयासों से ‘लीडर’ बच गया।
वे ब्रह्मचर्य, देशभक्ति, सत्य तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के माध्यम से उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों की शिक्षित करने की थी जिनके लिए देश सर्वोपरि हो और वे देश सेवा के द्वारा देश का मस्तक गर्व से ऊंचा कर सकें। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ऐसी आत्मा कहा, जिन्होंने आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता की नींव रखी।
उनकी नजर में ‘राष्ट्रभाषा’ एवं ‘स्वराज्य’ बहुत ही महत्वपूर्ण थे। जब भी बात भाषा की होती वे सदैव हिन्दी के साथ खड़े रहते। उनका स्पष्ट मत था कि ‘स्वभाषा’ के बल पर ही कोई देश उन्नति के सोपान तय कर सकता है।
सन् 1900 में उत्तर प्रदेश की अदालतों में उर्दू के साथ हिन्दी के प्रयोग एवं प्रचलन को बढ़ाने हेतु भी उन्होंने काफी कोशिश की। सन् 1913 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में भी उनका सक्रिय योगदान रहा। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी माध्यम को स्वीकृत कराने के साथ ही उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंतर्गत एक ‘प्रकाशन मंडल’ की स्थापना भी की जिसके द्वारा हिन्दी में उच्च शिक्षा के उपयोग की पुस्तकें प्रकाशित करने का बीड़ा भी उन्होंने उठाया।
उन्होंने सदैव अपनी पत्रकारिता व लेखों के द्वारा हिन्दी भाषा के स्तर को ऊंचा किया। अपने लेखों के द्वारा उन्होंने भारतीयों में साहस, स्वाभिमान एवं स्वालम्बन का मंत्र फूंका। उनके राष्ट्र के प्रति अनुराग और बहुमुखी विलक्षण प्रतिभा को देखकर ही राष्ट्रपिता गांधीजी ने उन्हें ‘महामना’ की संज्ञा प्रदान की थी।
“इस प्रकार राष्ट्रीय उत्थान मूलक संपादकीय नीति के विविध स्वरूपों के साथ महामना मालवीय जी ने पत्रों की भाषा, मर्यादा व स्वतंत्रता आदि के विषय में भी महत्वपूर्ण निर्देश दिए। उन्होंने जिन पत्रों का संस्थापन, संचालन व संपादन किया यदि उनका गहराई से अध्ययन किया जाए तो उनमें कुछ तत्वों का पता चलता है कि पत्र का उद्देश्य, संपादकीय नीति, तत्कालीन समाज की आवश्यकता, साहित्य का सृजन और साहित्यकारों का सहयोग आदि सिद्धांतों की झलक स्पष्ट रूप से झलकती है।”
आज जब हिन्दी पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन और अब सेन्सेशन बन चुकी है। संपादक नाम की संस्था प्रभावहीन हो गई है, कॉरपोरेट संस्कृति का चारों ओर बोलबाला है। ऐसे विकट समय में मालवीय जी की आदर्शों से सराबोर एवं मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता स्तुत्य है। उनकी पत्रकारिता के आदर्श सदैव हिन्दी पत्रकारिता जगत में अक्षत दीप की भांति प्रज्ज्वलित रहेंगे और समाज हितैषी, जन हितैषी पत्रकारिता का पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे।
(लेखिका, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विवि में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभागाध्यक्ष हैं।)
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