Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Oct, 2022 09:51 AM
उत्तम राजा उत्तानपाद के दूसरे पुत्र और महाभागवत ध्रुव के छोटे भाई थे। शत्रु और मित्र में तथा अपने और पराए में उनका समान भाव था। वह दुष्टों के
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Hindu marriage act: उत्तम राजा उत्तानपाद के दूसरे पुत्र और महाभागवत ध्रुव के छोटे भाई थे। शत्रु और मित्र में तथा अपने और पराए में उनका समान भाव था। वह दुष्टों के लिए यमराज के समान भयंकर और साधु पुरुषों के लिए चंद्रमा के समान शीतल एवं आनंददायक थे। उनका अपनी पत्नी में बड़ा प्रेम था। वह सदा रानी की इच्छानुसार चलते थे, परन्तु रानी कभी उनके अनुकूल नहीं होती थी। एक बार अन्य राजाओं के सामने रानी ने उनकी आज्ञा मानने से इंकार कर दिया। इससे उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने द्वारपाल से कह कर रानी को निर्जन वन में छुड़वा दिया।
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कुछ दिन बाद एक ब्राह्मण उनके द्वार पर आया और प्रार्थना करने लगा कि, ‘‘मेरी स्त्री को रात में कोई चुरा ले गया, अत: उसका पता लगाकर ला देने की कृपा करें।’’
राजा के पूछने पर ब्राह्मण ने यह भी बताया कि, ‘‘मेरी स्त्री बड़े ही क्रूर स्वभाव की और कुरूपा है तथा वह वाणी भी कटु बोलती है।’’
इस पर राजा ने कहा, ‘‘ऐसी स्त्री को लेकर क्या करोगे? मैं तुम्हें दूसरी भार्या ला देता हूं।’’
इस पर ब्राह्मण ने बताया कि, ‘‘पत्नी की रक्षा करना पति का धर्म है, उसकी रक्षा न करने से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है और वर्णसंकर अपने पितरों को स्वर्ग से नीचे गिरा देता है।’’
उसने यह भी कहा कि, ‘‘पत्नी के न रहने से मेरे नित्य कर्म छूट रहे हैं, इससे प्रतिदिन धर्म में बाधा आती है, जिससे मेरा पतन अवश्यम्भावी है।’’
ब्राह्मण के अधिक आग्रह करने पर राजा उसकी स्त्री की खोज में गए और इधर-उधर घूमने लगे। जाते-जाते एक वन में उन्हें किसी तपस्वी का आश्रम दिखाई दिया। रथ से उतरकर वह आश्रम में गए। वहां उन्हें एक मुनि का दर्शन हुआ।
मुनि ने खड़े होकर राजा का स्वागत किया और शिष्य से उनके लिए अर्घ्य ले आने को कहा।
शिष्य ने धीरे से पूछा, ‘‘महाराज ! क्या उन्हें अर्घ्य देना उचित होगा? आप विचार कर जैसी आज्ञा देंगे, वैसा ही किया जाएगा।’’
तब मुनि ने ध्यान द्वारा राजा के वृतांत को जानकर केवल आसन दे, बातचीत के द्वारा सत्कार किया। राजा ने मुनि से इस व्यवहार का कारण जानना चाहा।
इस पर मुनि ने उन्हें बताया, ‘‘मेरी शिष्य भी मेरी ही भांति त्रिकालज्ञ है, उसने आपका वृतांत जानकर मुझे सावधान कर दिया। बात यह है कि आपने अपनी विवाहिता पत्नी का त्याग कर दिया है और उसके साथ ही आप अपना धर्म-कर्म भी छोड़ बैठे हैं।’’
‘‘एक पखवाड़े तक भी नित्यकर्म छोड़ देने से मनुष्य दूषित हो जाता है। पति का स्वभाव कैसा भी हो, पत्नी को उचित है कि वह सदा पति के अनुकूल रहे। इसी प्रकार पति का भी कर्तव्य है कि वह दुष्ट स्वभाव की पत्नी का भी पालन-पोषण करे। ब्राह्मण की वह पत्नी, जिसका अपहरण हुआ है, सदा अपने पति के प्रतिकूल चलती थी, तथापि धर्मपालन की इच्छा से वह आपके पास गया और उसे खोजकर ला देने के लिए उसने आप से बार-बार आग्रह किया।’’
‘‘आप तो धर्म से विचलित हुए अन्य लोगों को धर्म पथ दिखाते हैं, फिर जब आप स्वयं ही विचलित होंगे, तब आपको धर्म कर्मों में कौन लगाएगा?’’
मुनि की फटकार सुनकर राजा बड़े लज्जित हुए, उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की। इसके बाद मुनि से खोई हुई ब्राह्मण पत्नी का हाल जानकर राजा उसकी खोज में गए और जहां वह थी, वहां से उसे उसके पति के पास पहुंचा दिया। ब्राह्मण अपनी पत्नी को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
इसके बाद राजा अपनी रानी का पता लगाने के लिए पुन: महर्षि के पास आए। महर्षि ने अवसर देखकर उन्हें फिर कहा, ‘‘राजन ! मनुष्य के लिए पत्नी- धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि का कारण है। जैसे स्त्री के लिए पति का त्याग अनुचित है, उसी प्रकार पुरुषों के लिए स्त्री का त्याग भी उचित नहीं है।’’
मुनि ने उन्हें यह भी बताया कि पाणिग्रहण के समय राजा पर सूर्य, मंगल और शनैश्चर की तथा उनकी पत्नी पर शुक्र और बृहस्पति की दृष्टि थी। उस मुहूर्त में रानी पर चंद्रमा और बुध भी, जो परस्पर शत्रुभाव रखने वाले हैं, अनुकूल थे और राजा पर उन दोनों की वक्रदृष्टि रहती थी।
इस पर राजा ने रानी की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए मित्रविन्दा नामक यज्ञ का अनुष्ठान कराया। जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर प्रेम न हो, उनमें मित्रविन्दा प्रेम उत्पन्न करता है। इसके बाद राजा ने रानी को एक राक्षस की सहायता से पाताल लोक से बुलवाया और दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम हो गया।
Divorce in hinduism मिलती हैं अनेक शिक्षाएं, यह कथा बड़ी ही शिक्षाप्रद है। इससे हमें अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिलती हैं-
पहली शिक्षा
सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा तो इससे यह मिलती है कि हिन्दू धर्म पति के द्वारा पत्नी अथवा पत्नी के द्वारा पति के त्याग की आज्ञा नहीं देता। किसी भी अवस्था में पति-पत्नी का संबंध विच्छेद हिन्दू धर्म को मान्य नहीं है।
दूसरी शिक्षा
राजाओं को इससे यह शिक्षा मिलती है कि प्रजा को धर्म में लगाने और अधर्म से रोकने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती है। यदि राजा भी अपना धर्म छोड़ दें तो फिर प्रजा धर्म में स्थित कैसे रह सकती है ? राजाओं का भी नियंत्रण तपस्वी, धर्मनिष्ठ, अकिंचन एवं सत्यवादी ब्राह्मण लोग करते थे, जो सर्वथा नि:स्पृह, निष्पक्ष एवं निर्भय होते थे और धर्म से विचलित होने पर राजाओं को साहसपूर्वक डांट देते थे।
तीसरी शिक्षा
एक अन्य शिक्षा यह मिलती है कि पूजा-अर्चना, साधना, दूव-पूजन आदि कर्म अनिवार्य हैं और इन्हें एक पखवाड़े तक त्याग देने पर भी मनुष्य पतित हो जाता है, अस्पृश्य हो जाता है। जबसे हम लोगों ने नित्य कर्म छोड़ दिया, तभी से समाज में पाप का प्रवेश हो गया और फलत: हम लोग दीनता-दरिद्रता, परतंत्रता के शिकार बन गए और नाना प्रकार के शत्रुओं से हमारा पराभाव होने लगा।
चौथी शिक्षा
इससे यह शिक्षा भी मिलती है कि ग्रहों का हमारे जीवन एवं दाम्पत्य सुख के साथ घनिष्ठ संबंध है और विवाहादि संबंध करते समय तथा पाणिग्रहण आदि के समय ग्रहों का विचार महत्वपूर्ण है।
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