झाबुआ4 घंटे पहले
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अभी तक पांच दिवस तक अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पद की आराधना नवपद की औलिजी की आराधना में की है। ये पांचों नवपद (सिद्धचक्र) के देव एवं गुरु तत्व हैं। नवपद में धर्म तत्व की शुरुआत श्रद्धा से होती है। जब तक सम्यक दर्शन नहीं आए तब तक इन पांच पदों की प्राप्ति नहीं होती है। सम्यक दर्शन का तात्पर्य, जिन वाणी के प्रति अटूट श्रद्धा और नव तत्वों में गहरी आस्था होता है।
उपरोक्त उद्बोधन आचार्य नित्यसेन सूरिजी एवं साधु साध्वी मंडल की निश्रा में चल रहे चातुर्मास में पुण्य सम्राट आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरी जी के शिष्य निपुणरत्न विजय जी ने नवपद आराधना कर रहे आराधकों को बावन जिनालय के पौषध भवन में छठे दिवस सम्यक दर्शन पद की व्याख्या करते हुए धर्म सभा में शुक्रवार को कहे। उन्होंने कहा कि सम्यक दर्शन अनुभूति का पद है। आत्मा ही सम्यक दर्शन है या यूं कहे आत्मा में ही नवपद मय समाया हुआ है। परमात्मा ने जो कहा वो ही सत्य है, ऐसी श्रद्धा होनी चाहिए और इसलिए हेय, ज्ञेय और उपादेय तीनों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
आस्तिक्य को समझाते हुए मुनि ने कहा सम्यक्त्व को प्राप्त करने के 4 सोपान ज्ञानियों ने बताए है। एक, श्रद्धा से सम्यक दर्शन, जानकारी से सम्यक ज्ञान, आचरण से सम्यक चारित्र और अंत में सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है। अरिहंत ही मेरे परमात्मा है, मुझे इनके वचनों में अटूट श्रद्धा है, यह निश्चय कर देव, गुरु और धर्म के प्रति पूर्ण विश्वास रख कर आत्मानुभूति कर सकते हैं। आपने सम्यक्त्व के 67 लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा कि जिन वचनों को सुनने की अभिलाषा प्रमुख लक्षण है। सम्यक दर्शन यानी जैसे करंसी पर गवर्नर के हस्ताक्षर जिसके बिना हम पांचों पद में प्रवेश ही नहीं कर सकते हैं।
तीन प्रकार के सम्यक्त्व होते है, एक, पारिभाषिक सम्यक्त्व जिसमें कुगुरू का त्याग कर सुगुरू, सूदेव की शरण में रहते हैं, दूसरा प्रातिभासिक सम्यक्त्व, याने जो में कर रहा हूं वो ही सही है, जो की त्यागने लायक है और तीसरा पारमार्थिक सम्यक्त्व जिसे प्राप्त कर संसार में रह कर भी पाप कर्म का बंध नहीं होता है। सम्यक्त्व प्रयोग नहीं है, धर्म क्रियाओं का परिणाम ही है। जिनेश्वर देव पूजन, सुपात्र दान, सदाचार पालन, जिनवाणी श्रवण, तत्व का अभ्यास, सूदेव, सुगुरू में विश्वास सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए आवश्यक आलम्बन होते हैं।
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