ज़ाहिदा हिनाएक घंटा पहले
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आज मैं जिस शख्सियत का जिक्र करुंगी, उनका नाम है फातिमा मरनिस्सी। बरसों पहले जब उनकी किताब ‘शहरज़ाद गोज़ वेस्ट’ का अनुवाद कर रही थी, तो मुझे यक़ीन था कि आने वाले समय में जल्दी ही उनसे मुलाक़ात होगी। मगर यह मुमकिन ना हो सका। फातिमा मरनिस्सी का पाकिस्तान के सियासी मामलों से भी ताल्लुक़ रहा। जब 1988 के चुनाव नतीजों में बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं तो कुछ रूढ़िवादियों ने उसे ग़ैर इस्लामी क़रार दिया। फातिमा ने बेनज़ीर के विरोधियों को ख़ूब करारा जवाब दिया और एक ऐसी किताब लिखी जिसका नाम ही उन्होंने ‘मुस्लिम दुनिया की फ़रामोश-कर्दा औरतें’ रखा।
इस किताब में उन्होंने रज़िया सुल्तान, शुजरतुल दर, मलिका नुरुल आलम और कई दूसरी औरतों का ज़िक्र किया जो तख़्त पर बैठीं और सियासी ज़िंदगी गुज़ारी, मैदान-ए-जंग में अपनी फौजों की कमान संभाली। इनमें से ज़्यादातर को ज़हर देकर या ज़हरीले ख़ंजर से मार दिया गया। बेनज़ीर के हिस्से में सीसे की गोली आई।
फातिमा मरनिस्सी 1940 में मोरक्को के शहर फैज़ में पैदा हुई और 30 अक्टूबर को जब इस दुनिया से रुख़्सत हुईं तो वे एक मुस्लिम बुद्धिजीवी और इतिहासकार की शोहरत रखती थीं। कई साल पहले क़ाहिरा टाइम्स ने उनके बारे में लिखा था, ‘वो हम अरबों के लिए मौजूदा दौर की शहरज़ाद हैं और इल्म व अदब पर किसी मलिका की तरह हुकूमत करती हैं।’
वे मोरक्को की उस ख़ुशनसीब नस्ल से ताल्लुक़ रखती थीं जो सियासत में अपना रुझान दिखा सकती थीं। हालांकि उनकी मां, दादियों, नानियों के लिए घर से बाहर क़दम निकालना भी मुमकिन ना था, लेकिन फातिमा ने पहले फैज़ और फिर रुबात में तालीम हासिल की। उनकी समझदारी उनके लिए रास्ते खोलती चली गई। उन्होंने फ्रांस की यूनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र पढ़ा और फिर अमेरिका की ब्रांड यूिनवर्सिटी से समाजशास्त्र में डॉक्ट्रेट की डिग्री ली। उन्हें प्रिंस ऑफ ऑस्ट्रिया अवार्ड दिया गया। इसके अलावा इरासमस प्राइज़ सहित कई और भी अवार्ड उनके हिस्से में आए। उनकी पहली किताब ‘बियॉन्ड द वेल’ (हिजाब के आगे) 1975 में छपी। मुस्लिम औरतों और ख़ास तौर से अरब दुनिया की मुसलमान औरतों के बारे में उनकी यह किताब एक क्लासिक दर्जा रखती है। ऐसे समय में जबकि ईरान में महिलाएं हिजाब की जबरदस्ती के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं, इसकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
फातिमा मरनिस्सी ने उर्दू, फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी को अपने लेखन का माध्यम बनाया और देखते ही देखते उनकी गिनती दुनिया के अहमतरीन दानिश्वरों में होने लगी। फातिमा ने दर्जन से ज़्यादा किताबें लिखीं। उनकी किताबाें ने अरब और मुस्लिम दुनिया से ज़्यादा पश्चिम को अपनी तरफ आकर्षित किया। वो दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में लेक्चर के लिए बुलाई जाने लगीं। फातिमा की किताबों में औरतें ही केंद्र में रहती हैं। वो कहती हैं कि जोशीले से जोशीला इंतेहापसंद इंसान भी यह नहीं कह सकता कि औरतें कमतर या किसी से कम हैं। यही वजह है कि तमाम पाबंदियों के बाद भी औरतें सियासी रहनुमाओं के तौर पर उभरी हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे विभाग हैं, जिनको सिर्फ मर्दों के लिए समझा जाता था, जैसे यूनिवर्सिटी या इंजीनियरिंग। उन सबमें अब मुसलमान औरतें पूरे जोश से शामिल हो गई हैं।
उन्होंने लिखा था कि मेरी दादी का कहना था कि सफर तो सीखने का ज़रिया है, इससे बेहतर सीखने का तरीक़ा कोई नहीं है। सफर से ज़िम्मेदारी आती है। कैसी दिलचस्प बात है कि अनपढ़ दादी ने उन्हें वो रास्ता दिखाया, जिस पर चलकर वो मुस्लिम दानिश्वरों की दुनिया का एक मशहूर नाम बन गई।
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