- अशोक पाण्डे
- बीबीसी हिंदी के लिए
बीते गुरुवार को बीसीसीआई ने एक तारीख़ी घोषणा की. अब से देश की महिला क्रिकेटरों को पुरुष क्रिकेटरों के समान मैच फ़ीस मिला करेगी. बोर्ड के साथ सालाना अनुबंध की शर्तें भी दोनों के लिए एक जैसी होंगी. लैंगिक समानता के इस युग में यह एक बेहद महत्वपूर्ण फ़ैसला है.
इस फ़ैसले को सुनने के बाद ज़ेहन में डायना एडुलजी, शांता रंगास्वामी, शुभांगी कुलकर्णी और संध्या अग्रवाल जैसे आलीशान नाम उभरे. ये वे जांबाज़ खिलाड़ी थीं जिन्होंने लगभग खामोशी के साथ सत्तर और अस्सी की दहाइयों में भारतीय महिला क्रिकेट को एक ऐसी मज़बूत बुनियाद मुहैय्या कराई जिसकी परिणति के तौर पर बीसीसीआई ने इतना बड़ा कदम उठाया है.
बग़ैर किसी तरह की उल्लेखनीय पहचान और सुविधा के यह इन शानदार महिलाओं का जुनून था कि भारत में न सिर्फ़ महिला क्रिकेट ज़िंदा रही बल्कि उसने तमाम अंतरराष्ट्रीय मैदानों पर अपना परचम भी गाड़ा.
इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि भारतीय महिला क्रिकेट संघ का गठन साल 1973 में पुणे में हुआ था जिसके तीन दशकों के बाद अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संगठन की पहल पर 2006-07 के दौरान इस संघ का बीसीसीआई में विलय हो गया. इस घटना के बाद से भारतीय महिला क्रिकेट की स्थिति में धीरे-धीरे सुधार आना शुरू हुआ.
2017 में इंग्लैण्ड में हुए विश्व कप के फ़ाइनल में पहुंच कर भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने बड़े पैमाने पर पहली बार देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा. उसके बाद से देशभर में महिला क्रिकेट की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई है.
ऐसा पहली बार हो रहा है कि लोग न केवल महिला क्रिकेटरों को नाम से जानने लगे हैं बल्कि उनमें से कुछ पर तो फ़िल्में तक बनने लगी हैं. मिताली राज, अंजुम चोपड़ा और झूलन गोस्वामी जैसे नाम किसी परिचय के मोहताज नहीं रहे.
महिलाओं को हाशिये पर धकेले जाने की पक्षपातपूर्ण परम्परा अनेक शताब्दियों से समाज में रही है. खेलों के क्षेत्र में यह पक्षपात और भी ज़्यादा नज़र आता रहा है.
दुनिया की सबसे मशहूर मैराथन दौड़ में गिनी जाने वाली बोस्टन मैराथन में वर्षों से यह नियम चला आ रहा था कि उसमें महिलाओं का दौड़ना निषिद्ध था.
प्राचीन समय के ओलंपिक खेलों में महिलाओं के न सिर्फ़ भाग लेने की पाबंदी थी, उन्हें इन खेलों को देखने तक की इजाज़त नहीं थी. अगर कोई महिला दर्शक दीर्घा में बैठी पाई जाती तो उसे कड़ी सज़ा दिए जाने का प्रावधान था.
महिलाओं के लिए केवल 200 मीटर तक की दौड़
आधुनिक ओलंपिक खेलों की शुरुआत 1896 में हुई थी. शुरुआती वर्षों में तो महिलाओं के लिए ट्रैक एंड फ़ील्ड इवेंट्स होते ही नहीं थे. 1928 में पहली बार उनके लिए दौड़ें आयोजित हुईं. सबसे लम्बी दौड़ 800 मीटर की थी. जर्मनी की लीना राड्के ने दौड़ प्रतियोगिता जीती लेकिन इसके लिए बहुत सारी एथलीट बग़ैर समुचित तैयारी के आई थीं. उनमें से कई रेस की समाप्ति पर बेहोश तक हो गईं.
यह देखकर ओलंपिक समिति ने तय किया कि महिलाओं की शारीरिक क्षमता 200 मीटर से अधिक की दौड़ के लायक नहीं होती. अतः इससे अधिक दूरी की दौड़ों को खेलों से बाहर कर दिया गया.
महिला एथलीटों की लगातार अपीलों के बाद 1960 के ओलंपिक खेलों में 800 मीटर की दौड़ को दोबारा शामिल किया गया. 1972 में महिलाओं को 1500 मीटर की दौड़ में हिस्सा लेने का अवसर दिया गया. यह जानकर हैरत होती है कि 1980 तक ओलंपिक खेलों में महिलाओं को 1500 मीटर से अधिक लम्बी रेस भागने के लायक नहीं समझा जाता था.
उस साल मॉस्को में हुए ओलंपिक खेलों में महिलाओं के लिए यही सबसे लम्बी दौड़ थी. उसके अगले साल यानी 1981 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संगठन ने अपनी कार्यकारिणी समिति में महिलाओं को सदस्य चुना.
विख्यात धावक सेबेस्टियन ने संगठन की एक सभा में बहुत विचारोत्तेजक भाषण दिया जिसके परिणामस्वरूप 1984 के ओलंपिक खेलों में महिलाओं की मैराथन रेस को जगह मिली. पुरुषों के लिए यह रेस पिछले नब्बे साल से हो रही थी.
ओलंपिक से इतर दुनिया की सबसे बड़ी मैराथन हर साल बोस्टन में आयोजित की जाती है. इस मैराथन के साथ एक शानदार महिला एथलीट की कहानी अपरिहार्य रूप से जुड़ी हुई है.
बॉबी गिब ने दी चुनौती
एक थीं बॉबी गिब. बचपन से ही दौड़ने की शौक़ीन बॉबी ने 1964 में पहली बार बोस्टन मैराथन को एक दर्शक की तरह देखा. उन्होंने जीवन में पहली बार इतने सारे आदमियों को एक साथ दौड़ता हुआ देखा था. मनुष्य की शारीरिक क्षमता को उसके चरम तक ले जाने वाली इस रेस को देखकर वो मंत्रमुग्ध रह गईं. अगले ही दिन से उन्होंने मैराथन दौड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया.
दो साल की भरपूर मेहनत के बाद जब उन्होंने दौड़ में हिस्सा लेने के लिए आवेदन किया तो उसे बताया गया कि नियमों के अनुसार वह हिस्सा नहीं ले सकतीं. ज़ाहिर है दुनिया में चलने वाले बाकी नियम-क़ानूनों की तरह खेलों के भी सारे नियम पुरुषों ने ही बनाए थे.
यह मान लिया गया था कि अपनी नाज़ुक और कमज़ोर देह-रचना के चलते वे 800 मीटर से अधिक दौड़ पाने लायक नहीं होतीं. छब्बीस मील की मैराथन दौड़ना उनके लिए असंभव मान लिया गया था.
बॉबी तब तक एक बार में चालीस मील तक दौड़ रही थीं. अधिकारियों का यह बयान पढ़कर उसे हंसी आई कि कोई औरत 800 मीटर से ज़्यादा नहीं भाग सकती क्योंकि उससे अधिक भागने की हालत में कोई भी बीमा कम्पनी उसके जीवन की गारंटी देने को तैयार न थी.
बॉबी की समझ में दो बातें आईं. पहली यह कि बोस्टन मैराथन के आयोजकों के सामान्य ज्ञान में थोड़ी वृद्धि की जानी चाहिए और दूसरी यह कि अगर वे उस दौड़ में हिस्सा ले सकीं तो अपने समय की महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में वह एक बड़ा क़दम होगा.
रेस में हिस्सा लेने के लिए वह तीन रात और चार दिन का बस का सफ़र तय कर कैलिफोर्निया से बोस्टन पहुँची. वहां से उनका घर नजदीक ही था. स्टेशन पर पहुँच कर उन्होंने अपने माता-पिता को फ़ोन करके अपने इरादे के बारे में बताया. उनके पिता को लगा कि उनकी बेटी का दिमाग़ ख़राब हो गया है.
शुरू में उनकी माँ ने भी ऐसा ही समझा लेकिन जब बॉबी ने उन्हें बताया कि उनकी दौड़ महिलाओं के लिए बराबरी के हक़ की लड़ाई है तो वे रोने लगीं. माँ ने पूरी ज़िंदगी में पहली बार अपनी बेटी का पक्ष लिया और प्रस्ताव दिया कि अगले दिन रेस के लिए वही उसे गाड़ी से छोड़ने जाएँगी.
उन्हें पता था वह एक अवैध काम करने जा रही थीं जिसके लिए उन्हें जेल भी भेजा जा सकता था. अगले दिन यानी 19 अप्रैल 1966 को अपने भाई की बरमूडा निक्कर और हुड वाली स्वेटशर्ट पहन कर बॉबी रेस के स्टार्ट पॉइंट पर पहुँची. उसने ऐसा इसलिए किया कि लोग उसे पहचान न सकें. रेस शुरू होने तक वह झाड़ियों में छिपी बैठी रहीं. जब आधे लोग भाग चुके थे वह वो बाहर निकलीं और दौड़ने लगीं.
बॉबी गिब ने बनाया था इतिहास
कुछ देर बाद उसके पीछे चल रहे कुछ धावकों ने उसे देखकर कयास लगाना शुरू किया कि वह औरत है. बॉबी ने हुड उतार कर उन्हें बताया कि हाँ वह औरत हैं और अपने अधिकार के लिए दौड़ रही हैं. उन्होंने ये भी बताया कि उन्हें डर है कि असलियत पता चलने पर उन्हें रेस से बाहर कर दिया जाएगा. साथी धावकों ने उन्हें यकीन दिलाया कि उनके रहते ऐसा करने की हिम्मत किसी की नहीं होगी.
दौड़ने वालों और दर्शकों के बीच आग की तरह यह ख़बर फैल गई. जगह-जगह उनका स्वागत होने लगा. स्थानीय रेडियो पर उनकी दौड़ की रनिंग कमेंट्री शुरू हो गई. रेस ख़त्म होने पर मैसाचुसेट्स के गवर्नर ख़ुद उनसे हाथ मिलाने को वहां खड़े थे. इतिहास बन चुका था और अगली सुबह के अख़बारों के पहले पन्नों पर उनकी तस्वीरें थीं.
बॉबी ने 3 घंटा 21 मिनट 40 सेकेण्ड में दौड़ पूरी की. हिस्सा ले रहे दो तिहाई से ज़्यादा पुरुष उनसे पीछे थे. इसके बावजूद स्त्रियों को आधिकारिक रूप से मैराथन दौड़ने का अधिकार 1972 में मिला.
बॉबी गिब की कहानी को इतने विस्तार में बताने की ज़रूरत इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए पड़ी कि महिलाओं के सभी खेलों के संचालन के नियम तक पुरुषों के द्वारा अपने ज्ञान और सहूलियत के हिसाब से बनाए गए हैं. आप दुनिया का कोई भी खेल उठा कर देख लें आपको यही अटपटी और अतार्किक बात दिखाई देगी.
महिला क्रिकेटरों की स्थिति बदलेगी
बहुत लम्बे समय तक ठीक यही स्थिति महिला क्रिकेट की भी थी. अव्वल तो शुरू में उन्हें कोई क्रिकेटर मानने को तैयार नहीं था. उनके लिए पर्याप्त संख्या में मैच तक आयोजित नहीं किये जाते थे. मैच होते तो उनमें हिस्सा लेने जाने के लिए न ख़ास सहूलियत उपलब्ध होती, न उन्हें कोई प्रायोजित करता था.
1990 के दशक में क्रिकेट के बाज़ार के असंभव फैलाव के बावजूद महिला क्रिकेट का दर्ज़ा दोयम बना रहा. इसके कारण एक से एक प्रतिभाशाली महिला खिलाड़ियों का कितना सारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन न तो बाहर आ सका न उसे क्रिकेट की रिकॉर्ड बुक्स में जगह मिल सकी. गेंद और बल्ले से उनके बहुत सारे प्रदर्शन कल्पनाओं से सिर्फ़ इसलिए बाहर न आ सके कि वे पुरुष नहीं थीं.
अपनी वंचित दुनिया में एक-एक जायज़ अधिकार को पाने के लिए महिलाओं ने कितनी लड़ाइयां लड़ी हैं उनका कोई हिसाब नहीं है. लैंगिक समानता को लेकर पिछले समय में हमारी सामूहिक चेतना में बढ़ोतरी भी हुई है.
धीरे-धीरे ही सही दुनिया भर में खेल के मैदान पर चीज़ें बदल रही हैं. अपने देश को लेकर हम बीसीसीआई के फ़ैसले को मद्देनज़र रखते हुए उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि क्रिकेट की चकाचौंध के सामने पहले से धराशाई पड़े अन्य खेलों का संचालन व प्रशासन करने वाली संस्थाओं को भी महिला खिलाड़ियों की ज़रूरतों का ख़्याल आएगा.
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