बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-18
लेकिन रियासत में किसानों पर हो रहे अत्याचारों के प्रति उद्वेलन का रुख अपने हितों के साथ-साथ जैसे देश की आजादी की ओर हो गया, वैसा व्यापारियों के रुख में कुछेक अपवादों को छोड़ कर कुछ भी बदलाव नहीं आया।
दूधवाखारा आन्दोलन में अनपढ़ हनुमानसिंह की पैठ और जनता में उनके रुतबे ने पढ़े-लिखे और रियासत की पुलिस में सब-इंस्पेक्टर जाट समुदाय के ही कुंभाराम को प्रेरित किया। उन्हें लगा कि बिरादरी में अनपढ़ हनुमान ने पैठ बना ली तो मैं तो पढ़ा-लिखा हूं—ऐसा सोचकर कुंभाराम पहले राज से छुट्टियां लेकर सक्रिय हुए, फिर स्थितियां ऐसी बनीं कि उन्होंने नौकरी से हाथ धोने में भी संकोच नहीं किया। मकसद चाहे नेतृत्व की भूख रहा हो, लेकिन चतुर कुंभाराम ने न केवल किसानों के लिए बल्कि प्रजा परिषद् के लिए भी काम किया।
इसी तरह मुसलमानों को नापसंद करने वाले आर्यसमाजी स्वामी कर्मानन्द भी मुख्यत: अपनी बिरादरी के दूधवाखारा में आंदोलन में सक्रिय हो गये। चूंकि दूधवाखारा आन्दोलन और प्रजा परिषद् की गतिविधियां धीरे-धीरे एकमेक हो गयी थीं, ऐसे में बेधड़क प्रकृति के कर्मानन्द आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय हो गये।
गंगादास कौशिक अनूपगढ़ में काला-पानी भोग रहे थे तो बीकानेर की काल-कोठरियों में कैद वैद्य मघाराम, उनके पुत्र रामनारायण और साथी किशन गोपाल गुटड़ ने नजरबंदी के दौरान राजनीतिक कैदी के तौर पर सम्मानजन व्यवहार की मांग को लेकर भूख-हड़ताल कर दी। भूख-हड़ताल भी सीमित अवधि की नहीं बल्कि एक महीने से ज्यादा की हो गई। इस भूख-हड़ताल के दौरान ही शासन ने निमोनिया और तिल्ली बढऩे से पीडि़त मघाराम को यातनाएं देना जारी रखा। इसी दौरान दो नवयुवक आजादी के आन्दोलन से आ जुड़ते हैं। जिनमें पहले हैं गंगादत्त रंगा, जिन्होंने आजादी के लिए राज की नौकरी को धता बता दिया। रंगा की शिक्षा मामा के पास कलकत्ता में हुई थी। आजादी का रंग इन पर वहीं चढ़ा। दूसरे युवक थे छापर के हीरालाल शर्मा, जो बीदासर में पढ़े और कानपुर में अपना व्यापार करने लगे थे। उन तक बीकानेर के सादुलसिंह राज की करतूतों की कहानियां पहुंच रही थी, जिनके आधार पर हीरालाल ने पंडित नेहरू, फिरोज गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित, मौलाना अबुल कलाम, बालकृष्ण शर्मा (नवीन) और रजी अहमद किदवई से सम्पर्क साधा और इनसे अनुरोध किया कि बीकानेर के मामले में हस्तक्षेप करें।
बीच में यहां एक बात कहनी जरूरी लगती है कि ब्रिटिश राज का मीडिया न केवल स्वतंत्र था बल्कि वह अपना धर्मपालन भी कर रहा था। इस मीडिया की वजह से ही बीकानेर के आजादी के दीवानों की खबरें बराबर प्रकाशित होती रहीं। जिसकी वजह से सादुलसिंह सरकार उत्तेजित भी होती और संयम भी बरतती। मतलब यही कि आज के मीडिया की तरह तब की पत्रकारिता धर्मच्युत नहीं थी।
दिसम्बर 1945 और जनवरी 1946 के उस दौर में जब मघाराम, रामनारायण, किशन गोपाल गुटड़ की भूख-हड़ताल को 40 दिन हो रहे थे, निर्वासन में भी सक्रिय रघुवरदयाल गोईल बीकानेर लोटने को बेचैन थे। अपने खिलाफ बार-बार छपती खबरों के बीच राज ने अपनी खीज हनुमानसिंह और उसके परिवार से निकालने की योजना बना ली।
खबरों के दबाव के चलते गंगादास कौशिक को पैरोल पर छोडऩा पड़ गया था। लेकिन पैरोल के दौरान भी गंगादास सक्रिय रहे। इसके बावजूद राज ने उन पर से पाबंदियां हटा पैरोल मुक्त कर स्वतंत्र कर दिया। इसी दौरान 1 व 2 जनवरी, 1946 को उदयपुर में अ.भा. देशी राज्य लोक परिषद् का अधिवेशन हुआ। जिसमें रियासत के गोईल, कौशिक, हनुमानसिंह तथा मघाराम की बहिन खेतू और गोईल की बेटी चन्द्रकला सहित बीसों स्त्री-पुरुष कार्यकर्ता शामिल हुए। नेहरू के जुलूस में बैनर लिए आगे ही आगे चल रहे राव माधोसिंह और नारे लगाते और गीत गाते बीकानेरियों का बोलबाला था। अधिवेशन में गोईल ने बीकानेर की रिपोर्ट विस्तार से प्रस्तुत की। उदयपुर अधिवेशन की सीआईडी रिपोर्ट में 24 नाम दर्ज थे लेकिन दो नाम उनसे छूट गये। मूलचन्द पारीक और हीरालाल शर्मा के। 1942 के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले हीरालाल रियासत के बीदासर आकर सक्रिय हो लिये थे।
गोईल अपने निर्वासन के दौरान बीकानेर के सबसे नजदीक नागौर लम्बे समय तक रहे। फिर जयपुर चले गये, सादुलसिंह ने जयपुर राजा पर दबाव बनाया तब गोईल को वहां से निकलने को मजबूर होना पड़ा। गोईल को जयपुर से निकलवाने के बाद राज ने हनुमानसिंह पर शिकंजा फिर कसना शुरू कर दिया। अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान सादुलसिंह ने रास्ते में पडऩे वाले दूधवाखारा स्टेशन पर किसान नेताओं को उनकी बात सुनने के बहाने बुलाया, किसी अनिष्ट की आशंका से खुद हनुमानसिंह तो नहीं गये लेकिन किसान बड़ी संख्या में पहुंच गये। उनमें हनुमानसिंह को न देख कर राज की योजना खटाई में पड़ती दिखी। जैसे-तैसे हनुमानसिंह को ढूंढ़ कर बुलावाया और जबरदस्ती डब्बे में डाल कर गाड़ी रवाना करवा दी। अचानचक हुए इस प्रकरण से उपस्थित किसान उद्वेलित होते तब तक गाड़ी स्टेशन छोड़ चुकी।
हनुमानसिंह पर अमानवीय अत्याचार कर माफीनामा लिखवा लिया। सादुलसिंह शासन की यह देखी-भाली करतूत थी, और उस माफीनामे को जारी भी कर दिया। क्रमश…
—दीपचंद सांखला
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