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- N. Raghuraman’s Column To Make The Future ‘Green’ Follow The Lifestyle Of Ancestors And Try To Minimize Energy Consumption
एक घंटा पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
मेरे दोस्त, स्वर्गीय राजकुमार केसवानी के घर पर चावल हमेशा सोलर कुकर में पकता था। ऐसा तब होता था जब कोई ऊर्जा संकट खबरों में नहीं था। जब मैं उनके घर पहुंचता था तो उनकी पत्नी कुकर को धूप में रख देती थीं। जब तक केसवानी भाई (उन्हें मैं इसी तरह संबोधित करता था) के साथ मेरी चर्चा खत्म होती, तब तक खाना पक जाता था।
केसवानी भाई बॉलीवुड के किस्से खूबसूरती के साथ लिखने के लिए जाने जाते थे और आखिरी सांस तक वे यह करते थे। हाल के समय में, उत्तर भारत में मेरी जानकारी में, सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाला उनका ही परिवार था। उनके बगीचे में और आंगन में, खिली धूप में अचार या पापड़ सूखते रहते थे और कुकर में कुछ पकता रहता था।
इसमें दाल भी शामिल थी, जिसे उनकी पत्नी काफ़ी पहले भिगोकर रख देती थीं, ताकि जल्दी पके। मेरे लिए केसवानी भाई का घर हमेशा ही ग्रीन हाउस था। वे तब ‘पुराने तरीकों से जीने के अपने अंदाज़’ के बारे में गर्व से बताते थे, जब दुनिया ऊर्जा खाने वाले आधुनिक गैजेट दिखाने में लगी थी।
मुझे उनके घर की याद आती है जब मैं ऊर्जा संकट की खबरें पढ़ता हूं। दुनिया इसका सामाना कर रही है और विकसित देश, यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले व्लादिमीर पुतिन को दोष दे रहे हैं। लेकिन सिर्फ पुतिन दोषी नहीं हैं। संकट इसलिए भी है क्योंकि हम ऊर्जा की मौजूदा मांग के बारे में बात कर रहे, बल्कि भारत जैसे देशों की भविष्य की मांगों की बात नहीं कर रहे हैं।
अक्टूबर में इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने एनर्जी आउटलुक 2022 जारी की, जिसके मुताबिक 2021 से 2030 तक भारत की ऊर्जा की मांग में 3% सालाना की बढ़त होगी, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। इस मांग के दो पहलू हैं। पहला, हमारी आर्थिक वृद्धि और दूसरा वह मूक प्रश्न है कि हम हर परिवार की ऊर्जा मांग को कैसे पूरा करेंगे।
सरकार कार्बन फुटप्रिंट कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन पर ज़ोर दे रही है, वहीं मुझे लगता है कि लोगों को सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करने के प्रति जागरूक करने की ज़रूरत है, ताकि भारत को वैसा दबाव न झेलना पड़े जैसा यूके इन सर्दियों में झेलेगा। यूके निवासी सोच रहे हैं कि भीषण ठंड में हीटर कैसे चलाएंगे।
इसलिए यह न भूलें कि आज न सही, आठ साल बाद ऊर्जा संकट का सामना करना होगा। अगर चाहते हैं कि तब आपके बच्चे वैकल्पिक संसाधनों से जिंदगी आसान बना पाएं तो उन्हें जिंदगी जीने के पूर्वजों के तरीके बताएं। पूर्वज कभी इस्त्री के लिए चादर नहीं देते थे, वे उन्हें बड़े ट्रंक के नीचे रखते थे।
वे कभी आधा गिलास पानी नहीं छोड़ते थे, ताकि वह बर्बाद न हो। याद रखिए, आज वही पानी नलों में लाने और फिर आरओ मशीन से साफ़ करने में ऊर्जा लगती है। पूर्वज खाने को हफ्तों फ्रिज में रखकर, फिर गर्म करके नहीं खाते थे। वे कम पकाते थे, कम खाते थे और डॉक्टर के पास भी कम जाते थे।
कम खाना और उसे बर्बाद न करना गरीबी की निशानी नहीं है और न ही प्लेट में खाना छोड़ना अमीरी की निशानी। आजकल यह कहना चलन में है, ‘मेरा सिलिंडर तो दस दिन ही चलता है’। हमें अपने बच्चों की खातिर इस सोच से बाहर निकलना होगा। मेरी सलाह है कि ऊर्जा के उत्पादन और उसकी कीमत कम रखने के लिए सरकार क्या कर रही है, इसे लेकर ज्यादा परेशान न हों। इस वक्त जो भी प्रयास किए जाएंगे, उनसे ग्रीन एनर्जी की तरफ तेजी से बढ़ने में मदद मिलेगी।
फंडा यह है कि खुद का कोई तरीका सोचें, पूर्वजों की जिंदगी से कोई आइडिया निकालें और ऊर्जा की खपत को कम से कम करने के लिए प्रयास करते रहें।
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