अमेरिका बीते दिनों कई बार कह चुका है कि भारत उसका रणनीतिक सहयोगी है और उसकी विदेशी नीति में उसकी काफ़ी अहमियत है.
एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र में चीन और अमेरिका, दबदबे के लिए प्रतिद्वंद्विता में लगे हुए हैं. इस लिहाज़ से अमेरिका के लिए भारत की अहमियत रखता है.
जानकार भी मानते हैं कि एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में शक्ति का संतुलन बनाए रखने में भारत का रोल महत्वपूर्ण है.
अमेरिका और चीन में तनातनी कई मुद्दों पर है. इनमें सबसे प्रमुख मुद्दा ताइवान है.
अमेरिका साफ़ कर चुका है कि अगर चीन ने भविष्य में ताइवान पर सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर, उसे अपने साथ मिलाने का प्रयास किया तो वो ताइवान के साथ खड़ा रहेगा.
इसके अलावा यूक्रेन पर रूसी हमले में भी चीन के रुख़ को लेकर अमेरिका नाराज़ है. अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ कड़े प्रतिबंध लगाए हैं और लेकिन रूस को चीन से मदद मिल रही है. ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंध बहुत असरदार साबित नहीं हो रहे हैं.
दूसरी तरफ़ भारत भी सरहद पर चीन की आक्रामकता का सामना कर रहा है. अमेरिका की टेक इंडस्ट्री में भी भारतीय प्रतिभाओं का अहम योगदान है.
इतना कुछ होने के बावजूद क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन भारत की उपेक्षा कर रहे हैं? बाइडन का आधा कार्यकाल ख़त्म हो चुका है और भारत में अमेरिका का कोई राजदूत नहीं है.
बिन राजदूत दूतावास
जनवरी 2021 में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने इस्तीफ़ा दिया था. उसके बाद से बाइडन प्रशासन ने छह लोगों को अंतरिम प्रभार सौंपा लेकिन किसी को स्थायी राजदूत नियुक्त नहीं किया. छठे प्रभार की घोषणा पिछले साल अक्टूबर में हुई थी.
700 दिन से ज़्यादा हो गए हैं और अमेरिका का नई दिल्ली दूतावास बिना राजदूत के चल रहा है. दोनों देशों के राजनयिक इतिहास में यह सबसे लंबा समय है. शीत युद्ध के दौरान भी ऐसा नहीं था. कई लोगों का कहना है कि दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के ऐड हॉक पर चलने का एक संदेश यह भी जा रहा है कि वह भारत की उपेक्षा कर रहा है.
हालांकि इसमें पूरी तरह से राष्ट्रपति बाइडन की भी ग़लती नहीं है. बाइडन ने लॉस ऐंजिलिस के मेयर एरिक गार्सेटी को जुलाई 2021 में भारत में राजदूत के लिए नामांकित किया गया था.
लेकिन गार्सेटी को मंज़ूरी देने के लिए होने वाली वोटिंग लटक गई थी. एक रिपब्लिकन सीनेटर ने आरोप लगाया था कि गार्सेटी की भूमिका उनके सहयोगी के यौन दुर्व्यवहार में ठीक नहीं थी. उसके बाद से गार्सेटी की नियुक्ति अटकी हुई है.
इसके अलावा और भी कई कारण हैं, जिनकी वजह के गार्सेटी की मंज़ूरी अटकी हुई है. खंडित जनादेश वाली सीनेट में कई काम लंबित हैं. किसी भी प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन रही है. यह बात भी कही जा रही है कि अमेरिका का अभी पूरा फोकस यूक्रेन में रूस पर हमले को लेकर है.
गार्सेटी को बाइडन प्रशासन सीनेट से मंज़ूरी दिला सकता है. दिसंबर में व्हाइट हाउस की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कुछ ऐसी ही बात कही गई थी. इस साल जनवरी में गार्सेटी को बाइडन प्रशासन ने फिर से भारत में राजदूत के लिए नामांकित किया है.
क़रीब दो सालों से नई दिल्ली में अमेरिका का राजदूत नहीं है. जिन समस्याओं का समाधान दूतावास के स्तर पर हो सकता था, उन्हें विदेश मंत्रियों को प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उठाना पड़ा. मिसाल के तौर पर पिछले साल 27 सितंबर को अमेरिकी विदेश मंत्री के समक्ष जयशंकर ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में वीज़ा का मुद्दा उठाया था.
राजदूत का होना कितना अहम
‘अ मैटर ऑफ ट्रस्ट: अ हिस्ट्री ऑफ इंडिया-यूएस रिलेशन फ्रॉम ट्रुमैन टु ट्रंप’ की लेखिका मीनाक्षी अहमद ने पिछले महीने 20 दिसंबर को न्यूयॉर्क टाइम्स में इस मुद्दे पर एक लेख लिखा था.
मीनाक्षी ने लिखा था, ”यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि अमेरिका ने पिछले दो सालों से भारत में अपना कोई राजदूत नहीं रखा है. बाइडन भारत को कई बार अहम साझेदार कह चुके हैं, तब भी यह हाल है. दोनों देशों के संबंधों में अमेरिकी राजदूत की अहम भूमिका रही है.”
मीनाक्षी ने लिखा है, ”1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तो जॉन केनेथ गैल्ब्राइथ नई दिल्ली में अमेरिकी राजदूत थे. केनेथ तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी के क़रीबी थे. इसके साथ ही भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी उनके अच्छे संबंध थे. युद्ध के दौरान अमेरिकी हथियारों की खेप भारत भेजवाने में केनेथ की अहम भूमिका मानी जाती है.”
“इससे पहले नेहरू अमेरिका से मदद मांगने में संकोच कर रहे थे. केनेथ ने तब नेहरू और केनेडी के बीच कड़ी का काम किया था और दोनों देशों को क़रीब लाने में कामयाब रहे थे. नेहरू और केनेडी के बीच अविश्वास को केनेथ ने ख़त्म कर दिया था. 1962 में अमेरिका ने भारत का समर्थन कर संबंधों में नई गर्मजोशी ला दी थी. केनेथ भारत में काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे.”
2021 में भारत में अमेरिकी निवेश 45 अरब डॉलर था. वैश्विक सप्लाई चेन में चीन की बढ़ती भूमिका को लेकर चिंता बढ़ रही है. अमेरिकी कंपनी कोशिश में हैं कि चीन से मैन्युफैक्चरिंग हब कहीं और शिफ़्ट किया जाए. जेपी मॉर्गन 2025 तक भारत से काम शुरू कर सकती है, एपल 25 फ़ीसदी आईफ़ोन भारत में बना सकती है. मीनाक्षी कहती हैं कि ऐसे अहम समय में अमेरिकी दूतावास को चाहिए कि वह अपनी कंपनियों को मदद करे.
मीनाक्षी अहमद ने लिखा है, ”वैश्विक स्तर पर सेहत, जलवायु परिवर्तन और तकनीक नीति में भारत की अहम हैसियत है. ओबामा के शासन में भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा ने कहा था कि पेरिस जलवायु समझौते में भारत की अहम भूमिका थी. रिचर्ड वर्मा ने भारत को अमेरिका के साथ लाने में अहम योगदान दिया था. दोनों देशों के नेताओं के बीच अहम बैठकें करवाई थीं. दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में राजदूत एक कड़ी का काम करता है.”
रूस को लेकर भारत और अमेरिका के बीच एक बार फिर से कई असहमतियां उभरकर सामने आई हैं और ऐसी स्थिति में राजदूत का अहम रोल होता. कहा जाता है कि शीत युद्ध के दौरान से ही अमेरिका पर भारत खुलकर भरोसा नहीं करता है. यह अविश्वास अहम वैश्वित हालात में दोनों देशों के संबंधों के लिए ठीक नहीं माना जा रहा है. जयशंकर कई मौक़ों पर अमेरिका समेत पूरे पश्चिम को खुलकर घेर रहे हैं. कहा जा रहा है कि दिल्ली में अमेरिका का कोई राजदूत होता तो जयशंकर के स्तर तक चीज़ें ना जातीं.
राजदूत की अहम भूमिका
यहां तक कि शीत युद्ध के दौरान भी अमेरिका ने भारत में बेहतरीन राजदूत नियुक्त किए. ऐसा तब है जब भारत गुटनिरपेक्ष का हिस्सा था. 1960 के दशक में जॉन केनेथ गैल्ब्राइथ और चेस्टर बाउल्स नई दिल्ली में भारत के राजदूत रहे थे. अमेरिका के इन दोनों राजदूतों के संबंध नेहरू से अच्छे बताए जाते हैं. रूस से ऐतिहासिक क़रीबी के बावजूद दोनों राजदूत भारत को अमेरिका के क़रीब ले जाने में कामयाब रहे थे.
भारत में अमेरिका पूर्व राजदूत केनेथ जस्टर ने पिछले साल अक्टूबर में द प्रिंट से कहा था, ”परंपरा के मुताबिक़ मैंने गार्सेटी से बात की थी. वह बहुत ही मेधावी, ज्ञानी और ऊर्जावान हैं. वह भारत में एक बेहतरीन राजदूत साबित होंगे. मेरा मानना है कि दोनों देशों में अटूट द्विपक्षीय संबंध उच्च स्तर पर बिना एक मज़बूत राजदूत के संभव नहीं है. दोनों देश हर मसले को विदेश मंत्रालय के स्तर पर नहीं सुलझा सकते हैं. राजदूत का होना बहुत ही ज़रूरी है.”
मीनाक्षी अहमद ने लिखा है, ”अप्रैल 1977 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रॉबर्ट गोहीन को भारत का राजदूत नियुक्त किया था. गोहीन का जन्म भारत में हुआ था. जून 1975 से मार्च 1977 तक भारत में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था. संविधान के सारे अधिकार वापस ले लिए गए थे और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. प्रेस को भी ख़ामोश कर दिया गया था. इंदिरा गांधी के इस प्रयोग को गोहीन ने बख़ूबी समझा था. एक राजदूत उस देश की घरेलू राजनीति में होने वाले बदलावों पर भी नज़र रखता है. अमेरिकी राजदूत की ग़ैर-मौजूदगी शायद दिल्ली की सरकार को भी अच्छी लग रही होगी. दिल्ली को अपनी घरेलू राजनीति में कई चीज़ों के प्रति बेरवाही में आसानी होती होगी.”
हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, गार्सेटी कई बार भारत आ चुके हैं और उन्होंने हिन्दू-उर्दू की पढ़ाई भी की है. उन्होंने रिपब्लिकन सांसद की ओर से लगाए गए आरोपों को भी ख़ारिज किया है.
कॉपी – रजनीश कुमार
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