माहवारी के कारण भारत में करोड़ों लड़कियां स्कूल बीच में छोड़ देती हैं. माहवारी से जुड़ी स्वच्छता के बारे में जागरूकता की कमी, इसे लेकर समाज में मौजूद रूढ़िवादी अंधविश्वास और सुविधाओं की कमी के कारण इन लड़कियों के सामने स्कूल जाना बंद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.
खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में आज भी जागरूकता की कमी के कारण माहवारी एक ऐसा मुद्दा बना हुआ है जिस पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता और जिसे लड़कियों के लिए शर्म का सबब माना जाता है.
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली एजेंसी यूनिसेफ ने एक अध्ययन में बताया है कि भारत में 71 फीसदी किशोरियों को माहवारी के बारे में जानकारी नहीं है. उन्हें पहली बार माहवारी होने पर इसका पता चलता है. और ऐसा होते ही उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया जाता है.
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एक सामाजिक संस्था दसरा ने 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें बताया गया था कि 2.3 करोड़ लड़कियां हर साल स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि माहवारी के दौरान स्वच्छता के लिए जरूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इनमें सैनिटरी पैड्स की उपलब्धता और पीरियड्स के बारे में समुचित जानकारी शामिल हैं.
इस क्षेत्र में काम कर रहीं संस्थाएं और कार्यकर्ता इस बात की ओर इशारा करते हैं कि शौचालयों और साफ पानी जैसी जरूरी सुविधाओं की कमी और माहवारी से जुड़ी शर्मिंदगी के कारण लड़कियों की जिंदगी प्रभावित हो रही है.
बच्चों की डॉक्टर और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ वंदना प्रसाद कहती हैं कि पहली बार माहवारी से पहले तक लड़कियों को इसके बारे में लगभग कोई जानकारी नहीं होती. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं, “हमने कितनी बार लड़कियों और महिलाओं से सुना है कि जब उन्हें पहली बार माहवारी हुई तो कैसे उन्हें लगा कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी हो गई है. उन्हें जो जानकारियां मिलती हैं वे भी अक्सर साथियों से मिलती हैं और वे आधी-अधूरी होती हैं.”
अंधविश्वास और डर
प्रसाद करीब दो दशकों से ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में महिलाओं और लड़कियों की स्वास्थ्य समस्याओं पर काम कर रही हैं. वह कहती हैं कि माहवारी जन स्वास्थ्य का एक ऐसा मुद्दा है जो कई स्तर पर समस्याएं और बाधाएं पैदा करता है. वह बताती हैं, “आज भी यह एक सामाजिक टैबू है और लड़कियों को अपनी माहवारी के दौरान कई तरह की यातनाएं सहनी पड़ती हैं जैसे कि उन्हें कुछ खास तरह की चीजें खाने को नहीं दी जातीं. उन्हें रसोई और मंदिर आदि में जाने की इजाजत नहीं होती और कई जगहों पर तो उन्हें एक-दो दिन के लिए घर से भी बाहर रखा जाता है.”
इस कारण लड़कियों को भारी मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है. ऊपर से गुपचुप सैनिटरी पैड्स लेना, फिर उनका निवारण, खुद को स्वच्छ रखना जैसी बातें भी किशोरियों के लिए खासी मुश्किलें पैदा करती हैं.
प्रसाद कहती हैं, “कुल मिलाकर यह बेचारी लड़कियों और महिलाओं के लिए हर महीने का सिरदर्द बन जाता है. इससे उनका अलगाव बढ़ता है और पहले से ही कमजोर स्वास्थ्य, कुपोषण, शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन झेल रही लड़कियां और पिछड़ जाती हैं.”
महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘जागो री’ की निदेशक जया वेलांकर कहती हैं कि सामाजिक और व्यवहारिक वजहों से माहवारी के दौरान लड़कियों का स्कूल ना आना एक बहुत आम है. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं कि जैसी ही लड़की की माहवारी शुरू हो जाती है, परिवार में चिंता शुरू हो जाती है.
वेलांकर कहती हैं, “खासकर ग्रामीण इलाकों बहुत सी लड़कियों के लिए माहवारी का शुरू होना मतलब पढ़ाई का बंद हो जाना. ऐसा इसलिए है क्योंकि माता-पिता के मन में दोहरा डर होता है. एक तो उन्हें लगता है कि अब बेटी को यौन हिंसा का ज्यादा खतरा है. और फिर बहुत से माता-पिताओं को ऐसा भी लगता है कि उनकी बेटी यौन सक्रिय हो सकती है और उसके संबंध बन सकते हैं. कई बार तो यह डर होता है कि लड़की किसी ‘नीची जात’ के लड़के से प्यार ना कर बैठे.”
माहवारी पर चुप्पी
इस विषय पर गहराई से अध्ययन करने वाले कई विशेषज्ञ मानते हैं कि उम्र के मुताबिक सही यौन शिक्षा एक जरूरी हल है. वे कहते हैं कि यौन शिक्षा से ना सिर्फ शारीरिक प्रक्रियाओं के बारे में वैज्ञानिक जानकारी मिलती है बल्कि यौन संबंधों, लैंगिक पहचान, यौनिक झुकाव और सबसे जरूरी, सहमति व सुरक्षित सेक्स के बारे में भी जागरूकता बढ़ती है.
वेलांकर कहती हैं कि समस्या यह है कि लगभग सभी राजनीतिक झुकाव वाली सरकारें यौन शिक्षा को लेकर अनिच्छुक रवैया रखती हैं. वह कहती हैं, “हमें इस मुद्दे पर ज्यादा बड़े पैमाने पर सार्वजनिक विमर्श की जरूरत है.”
मई में जारी ताजा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) की रिपोर्ट कहती है कि 15-24 वर्ष की लगभग आधी महिलाएं आज भी माहवारी के दौरान कपड़ा इस्तेमाल करती हैं जो विशेषज्ञों के मुताबिक संक्रमण का कारण बन सकता है. इसकी वजह जागरूकता की कमी और माहवारी से जुड़ी शर्मिंदगी को बताया गया है.
बातचीत जरूरी है
फिल्म निर्माता गुनीत मोंगा की डॉक्युमेंट्री ‘पीरियडः एंड ऑफ सेंटेंस’ ने 2019 में ऑस्कर जीता था. इस फिल्म में माहवारी से जुड़ी गहरी सामाजिक शर्मिंदगी का मुद्दा उठाया गया है. मोंगा अपील करती हैं कि इस मुद्दे पर बात होती रहनी चाहिए.
डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, “बदलाव एक सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रिया है. मुझे खुशी है कि आज ज्यादा लोग माहवारी के कारण लड़कियों के स्कूल छोड़ने के मुद्दे पर बात कर रहे हैं लेकिन अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है.”
एक्शन इंडिया की कैंपेन कोऑर्डिनेटर सुलेखा सिंह कहती हैं कि इस बारे में लड़कों को भी जागरूक किए जाने की जरूरत है. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं, “उत्तर प्रदेश और दिल्ली के कुछ ग्रामीण स्कूलों में मैंने पीरियड-सपोर्टिव कम्यूनिटी बनाई और उसमें लड़कों को शामिल किया. लड़कों को यह समझाए जाने की जरूरत है कि यह एक कुदरती शारीरिक प्रक्रिया है और आवश्यक है.”
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