इसे संचार क्रांति का कुफल कहा जाये या हड़बड़ी की दासी होकर रह गई उस जीवन शैली का, जिसका कोई बदल न तलाश पाने के कारण हम इत्मीनान की थोड़ी सी मात्रा से भी से वंचित हो चले हैं- हां, शोक के पलों में भी. लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब जैसे ही कोई बड़ी शख्सियत हमें अलविदा कहती है (अपने जीवन में वह राजनीति से जुड़ी रही हो, समाजसेवा, पत्रकारिता, साहित्य अथवा किसी अन्य कला, संस्कृति या समाज कर्म से) हम फौरन से पेश्तर उसकी सेवाओं के विश्लेषण व मूल्यांकन में लग जाते हैं. कभी इस तरह कि जैसे अभी नहीं कर दिया तो यह मूल्यांकन क्या पता आइंदा कभी होगा भी या नहीं. और कभी इस तरह कि जैसे विदा हुई शख्सियत से सारा हिसाब-किताब एक झटके में निपटा लेना चाहते हों, ताकि भविष्य के लिए कुछ भी करना बाकी ही न रह जाये.
हालांकि, यह साबित करने वाली कई नजीरें हैं कि हम चाहकर भी इसमें सफल नहीं हो पाते क्योंकि जैसे ही वह शख्सियत हमारे दूसरे पुरखों से मिलती है, एकबारगी चुकता कर दिये गये सारे हिसाबों-किताबों को पछाड़कर ऐसे नये हिसाब-किताब सामने आने लगते हैं, जिनको किसी भी रूप में उस तरह निपटाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेना संभव नहीं होता, जैसे कई महानुभाव उसे ‘नम’ आखों से अंतिम विदाई देकर खुद को कृतकृत्य समझ लेते हैं.
मशहूर शायर बशीर बद्र द्वारा अपनी एक गजल में पूछे गये इस शे’र का जवाब देकर हिसाब-किताब निपटाना नहीं होता. ‘बात क्या है कि मशहूर लोगों के घर/मौत का सोग होता है त्यौहार-सा?’ क्योंकि जवाब देने वाले बशीर बद्र के ही शब्दों में यह कहकर खुश नहीं रह पाते कि ‘अब है टूटा-सा दिल खुद से बेजार-सा, इस हवेली में लगता था दरबार-सा.’
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ऐसे में क्या आश्चर्य कि समाजवाद के रास्ते राजनीति शुरू कर सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के महारथी व धरती पुत्र बनकर गत सोमवार को हमसे विदा हुए पहलवान शिक्षक मुलायम सिंह यादव भी हड़बड़ी की हमारी इस ‘परम्परा’ का अपवाद नहीं सिद्ध हो पा रहे. भले ही उनके और उनकी पार्टी के राजनीतिक आराध्य डॉ. राममनोहर लोहिया अपनी समाजवादी मान्यताओं में ऐसे तुरत-फुरत विश्लेषणों की छौंक-बघार के लिए कतई कोई जगह नहीं रखते थे.
यहां तक कि वे किसी शख्सियत के निधन के तीन सौ साल बाद तक उसका जन्मदिन मनाने या उसकी मूर्ति लगाने से भी परहेज बरतने के पक्ष में थे, ताकि आने वाले इतिहास को सर्वथा निरपेक्ष होकर यह फैसला करने का समय मिल सके कि वह शख्सियत इस सबकी हक़दार भी थी या नहीं.
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लेकिन क्या कीजिएगा, उनका सुझाया यह परहेज उनके जाते ही, और तो और, खुद को समाजवादी कहने वालों की बिरादरी ने भी छोड़ दिया और लकीर के फकीर बन गई. शायद इसलिए कि उसने इस परहेज का मूल्य ही नहीं समझा. गो कि वह इस अर्थ में बहुत जरूरी था कि वह बरता जाता तो विदा हुई शख्सियत अपने प्रति लोगों की उस सहज श्रद्धा से वंचित नहीं होती, जो उसकी सेवाओं के मूल्यांकनों व विश्लषणों के चक्कर में पड़ते ही नाना प्रकार के राग-द्वेषों, आग्रहों और दुराग्रहों के पचड़े में पड़कर न सिर्फ प्रदूषित बल्कि पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो जाती है.
कई बार दुराग्रही विश्लेषक अपने मतभेद या मनभेद जताने के फेर में यह भी भूल जाते हैं कि यह अवसर वास्तव में यह समझने का होता है कि किसी भी शख्सियत से सारे मतभेद उसके शरीर में प्राण रहने तक ही होते हैं और उन्हें उसके पार्थिव के समक्ष व्यक्त करना अमानवीय होने से कम नहीं होता.
बहरहाल, मुलायम के संदर्भ में उनके अंतिम संस्कार से पहले से ही हम ऐसा होते देख रहे हैं तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि जो विश्लेषक और टिप्पणीकार अब उनके न रहने पर उन्हें नाना प्रकार के आदरास्पद विशेषणों से नवाज रहे हैं (ऐसा करते हुए यह भी याद नहीं रख रहे कि श्रेष्ठता हमेशा ऐसे टुकड़ों में सामने आती है, जिन्हें जोड़कर कोई मूर्ति नहीं गढ़ी जा सकती. इसीलिए उनके भूतपूर्व मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश को भी उनके निधन के बाद किये गये ट्वीट में अलग-अलग अपना आदरणीय पिता और सबका नेता जी बताना पड़ा.) उनमें से कई उनके रहते उनकी खास तरह की छवि गढ़कर उसी का बन्दी बनाने के फेर में रहते आये हैं.
यह और बात है कि अनगढ़ता के गढ़े मुलायम की लम्बी राजनीतिक यात्रा एक के बाद एक उतार-चढ़ाव भरे पड़ावों से गुजरती और उन्हें किसी एक छवि में कैद करने की इजाजत देने से लगातार इनकार करती रही है. जब तक कोई उनकी एक छवि गढ़कर उन्हें नायक या खलनायक बनाने का मुगालता पालता था, वे बरबस उसके फ्रेम के बाहर दिखाई देने लगते थे. हां, अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौरान उनके ‘मुल्ला मुलायम’ बन जाने के वक्त ही नहीं, उसके बाद भी.
क्या पता, आगे चलकर इन विश्लेषकों की कवायदें कौन साी करवट लेंगी या क्या रंग दिखायेंगी. मगर इतना तो साफ दिखता है कि वे अपनी इस सहूलियत का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं कि दुनिया को अलविदा कह गये मुलायम अब वापस आ कर उन्हें छकाने से रहे. एक विश्लेषक को तो इस सहूलियत का यह लिखने में इस्तेमाल करने में भी संकोच नहीं हुआ है कि 2002 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सुझाया था कि वे उत्तर प्रदेश में मुलायम की विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी बनकर उभरी समाजवादी पार्टी की गठबंधन-सरकार बन जाने दें और बदले में मुलायम उनकी केन्द्र की गठबंधन सरकार को अभय कर दें.
विश्लेषक के अनुसार उस वक्त संवैधानिक परम्परा की रक्षा के लिए दी गई उनकी इस नेक सलाह को न मानने का ही कुफल था कि भाजपा को डेढ़ साल तक बहुजन समाज पार्टी का कचरा अपने कंधे पर ढोना पड़ा.
दूसरी ओर मुलायम के जीते जी उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ करार देने वालों को इन विश्लेषकों द्वारा सहूलियत का यह इस्तेमाल भी गवारा नहीं हो रहा. गवारा होता तो महाराष्ट्र भाजपा के महासचिव विधायक अतुल भटखलकर द्वारा मुलायम को श्रद्धांजलि और उनकी आत्मा की उत्तम गति की प्रार्थना के लिए किये गये ट्वीट की भाषा ऐसी न होती कि भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा से मांग की जाने लगे कि वे उनके ट्वीट का संज्ञान लेकर उसे डिलीट करवायें और उनको भाषा को बरतने की तमीज सिखाएं.
बहरहाल, ऐसे माहौल में प्रार्थना ही की जा सकती है कि कम से कम अब मुलायम को बख्श दिया जाये और वे जैसे भी मुलायम या कड़े रहे हैं, वैसा ही रहने देकर उन्हें सहजता से श्रद्धांजलियां दी जायें. यह समझकर कि अब वे हमारे पुरखों में शामिल हो गये हैं और उनसे हिसाब-किताब के लिए हमारे पास आगे बहुत समय है, जिसमें हम उन्हें फुरसत से भूलते और याद करते रह सकते हैं.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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