कोटा4 घंटे पहले
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चलाने में दक्ष व्यक्ति भी उपलब्ध नहीं हों।
विश्वामित्र दाधीच ने एक बार मुझे संबोधित करते हुए एक गीत कहा था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ था। गीत के बोल थे, ‘आछो आयो रे दसरावा, कोराणी गुम गी।’ अर्थात् ए दशहरे मेले तू भी खूब आया कि मेरी पत्नी ही गुम गई।…आज की शृंखला में पढ़िए आगे बढ़ने में क्या-क्या पीछे छूटता चला गया।
मैं कोटा का दशहरा मेला।
कवि की पत्नी के गुम होने का कारण तो यह बताया गया कि मेले की भीड़ में उसका हाथ छूट गया और छोटे कद के कारण उसे आसानी से तलाशा नहीं जा सका। लेकिन समय की दौड़ में हम सबका हाथ कैसी -कैसी चीजों से छूटा है, आज याद करते हैं तो अचरज होता है। जो चीजें कभी जिन्दगी की अनिवार्यता प्रतीत होती थी, वो चीजें देखते ही देखते प्रचलन से बाहर हो गईं।
जैसे टाइपराइटर। कंप्यूटर की लोकप्रियता के पहले टाइपराइटर सरकारी कामों में बहुत जरूरी हुआ करता था। कुछ लेखक भी अपने पास पोर्टेबल याने छोटा टाइपराइटर रखा करते थे। दफ्तरों में एक साइक्लोस्टाइल मशीन भी हुआ करती थी। एक विशेष प्रकार के कागज़ की मदद से किसी दस्तावेज की बहुत सारी प्रतियां तैयार की जाती थीं।
फोटो काॅपी के प्रचलन ने उस मशीन को भी खत्म कर दिया। इंटरकाॅम सेवा एक विशेष प्रकार के एक्सचेंज के माध्यम से चलती थी। नगर निगम के रामपुरा स्थित ऑफिस में वो कुछ सालों पहले तक था। अब तो शायद उस मशीन को चलाने में दक्ष व्यक्ति भी उपलब्ध नहीं हों।
उस दौर में जब किसी के यहां फोन लग जाता था तो आसपास के सारे परिवार उस फोन नंबर का इस्तेमाल पीपी नंबर के तौर पर करते थे। विजिटिंग कार्ड्स तक पर पीपी नंबर छपवाया जाता था। जिनके घर का फोन आसपास वाले अपने रिश्तेदारों से बात करने के लिए काम में लेते थे, उनके ठसके देखते ही बनते थे। मोबाइल ने इस ठसके को खत्म कर दिया।
अस्सी के दशक में जब वीडियो कैसेट प्लेअर शुरू हुए तो बहुत से लोग वीसीडी और रंगीन टेलीविजन को किराये पर देने का धंधा करते थे। घर में मेहमान आते थे तो लोग रात भर के लिए वीसीडी और रंगीन टीवी किराये पर ले लेते थे और एक साथ तीन तीन फिल्में देख लिया करते थे। खासकर मध्यमवर्गीय परिवारों में यह सामान्य बात थी। टेप रिकाॅर्डर या कैसेट प्लेअर शायद अभी भी लोगों के घरों में हो, लेकिन उनका इस्तेमाल कौन करता है? मोबाइल आया तो पेजर नाम के उपकरण की कम उम्र में जैसे हत्या हो गई।
जीवन शैली में परिवर्तन हुआ तो रसोई से पहले अंगीठी गायब हुई। फिर स्टोव गायब हो गया। चाइनीज इमरजेंसी लाइट और इनवर्टर के कारण घरों में अब लालटेन देखने को नहीं मिलता। खस की टाटियां खिड़कियों से गायब हुईं और रसोई से लो-सजय़ी, सिलबट्टे, आटा पीसने की पत्थर वाली चक्की गुम हो गई।
मकानों के बाहर से गोखड़े और चबूतरे गुम हुए और कमरों के अंदर से आलिये और टांड। हद तो यह है कि वास्तु दोष के नाम पर एरोड्रम चौराहे से हटाए गये गिद्ध की शक्ल वाले गरूड़ की मूर्ति कहाँ गुम हो गई, यह तक कोई नहीं बताता। खैरियत यही है कि मेरे मन का आह्लाद और लोगों का मेरे प्रति उल्लास अब भी कायम है। वो ही गुम जाता तो फिर मैं आप से कैसे बतियाता?
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