20 मिनट पहले
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कावेरी बामजेई, पत्रकार और लेखिका
एप्पल प्रोडक्ट तैयार करना मामूली बात नहीं। अकेले आईफोन के निर्माण के लिए दुनिया की 200 से ज्यादा कम्पनियों को मेमोरी चिप्स, ग्लास स्क्रीन इंटरफेस, कैसिंग्स, कैमरा आदि बनाना पड़ते हैं। एप्पल टीवी प्लस की फिल्म ‘शांताराम’- जो कि पूर्व अपराधी ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स की इसी शीर्षक वाली बहुपठित किताब पर आधारित है- भी आईफोन जैसी है।
इस कहानी के रचयिता ऑस्ट्रेलियाई हैं, मुख्य भूमिका में एक अंग्रेज अभिनेता हैं जो ऑस्ट्रेलियाई लहजे में बात करते हैं, फिल्म को थाईलैंड में फिल्माया गया है जिसे मुम्बई की तरह प्रदर्शित किया गया है और उसमें भारतीयों की भूमिकाएं अनेक देशों के अभिनेताओं ने निभाई हैं। आश्चर्य की बात है कि भारत पर आधारित इस सीरिज में मुश्किल से ही कोई भारतीय अभिनेता हैं।
जो हैं, वे पश्चिम में प्रशिक्षित हैं और वहीं काम करते हैं। एक ऐसे दौर में जब हॉलीवुड विविधता के प्रति बहुत सतर्क है, यह देखकर आश्चर्य होता है कि मुम्बई पर आधारित उसकी एक सीरिज में इस शहर को केवल घिसी-पिटी तस्वीरों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। भारत पर आधारित हर बड़ी हॉलीवुड फिल्म मुख्य अभिनेता के रूप में किसी गैर-भारतीय व्यक्ति का चयन करती है।
इससे पता चलता है कि वे हमारे अभिनेताओं को उपयुक्त नहीं समझते। जब डैनी बोयल ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में जमाल की मुख्य भूमिका के लिए एक अभिनेता की तलाश कर रहे थे तो उन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत सारे भारतीय युवा अभिनेताओं के ऑडिशन लिए, लेकिन उनमें से सभी कसरती बदन और चॉकलेटी चेहरे वाले थे। उनमें किसी को देखकर यह नहीं लगता था कि वह भूखे, कमजोर लेकिन महत्वाकांक्षी जमाल की भूमिका निभा सकेगा।
आखिरकार इंग्लैंड में जन्मे भारतीय मूल के देव पटेल को इस रोल के लिए चुना गया। शायद डैनी को आगे यह भी जोड़ना चाहिए था कि दुनिया भारतवासियों के बारे में जो धारणा रखती है, वह हमेशा ही हकीकत से मेल नहीं खा सकती। फिल्म ‘शांताराम’ भारत के बारे में पूर्वनिर्धारित धारणाओं के अंतर्विरोधों से भरी है।
मूल उपन्यास में भी वैसे स्टीरियोटाइप्स होंगे ही। लेकिन आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हुई दुनिया में, जहां अमेरिकी स्ट्रीमर्स भारत के विशालकाय मध्यवर्ग से पैसा कमाना चाहते हैं, वहां वे कम से कम इस बात को लेकर तो अधिक सतर्क हो ही सकते थे कि उन्हें किसे कास्ट करना है और कैसे कास्ट करना है।
याद रखें कि ‘शांताराम’ पहले 2007 में मीरा नायर द्वारा बनाई जाने वाली थी। इसमें मुख्य भूमिका में लियोनार्डो डी कैप्रियो होते और अमिताभ बच्चन रहस्यमयी गैंगस्टर की भूमिका निभाते। मौजूदा फिल्म में यह भूमिका सूडानी-मूल के अंग्रेज अभिनेता अलेक्सांडर सिडिग ने निभाई है। हॉलीवुड में लेखकों की हड़ताल होने के कारण मीरा नायर की वह फिल्म बन नहीं पाई थी।
ऐसा क्यों है कि हम भारत को अपनी नजर से देखने के बजाय पश्चिमी चश्मे से देखना ज्यादा पसंद करते हैं? क्या कारण है कि ‘गांधी’ या ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ ऑस्कर पुरस्कारों की झड़ी लगा देती हैं, लेकिन ‘सलाम बॉम्बे’ या ‘लगान’ को वह सम्मान नहीं मिल पाता? ‘द लास्ट फिल्म शो’ के निर्देशक पैन नलिन मानते हैं कि इसका कारण भारतीय सिनेमा की वह अनूठी स्थिति है, जिसमें उसका विकास क्षेत्रीय रंगमंच और परम्परागत लोककथाओं से हुआ है।
कहानी सुनाने की हमारी शैली हमारी अपनी संस्कृति के अनुरूप है और वह हमारे यहां इतनी लोकप्रिय है कि हॉलीवुड फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दस प्रतिशत से ज्यादा रेवेन्यू नहीं कमा पाती हैं। दुनिया में कम ही जगहों पर हॉलीवुड फिल्में इतना कम पैसा कमाती हैं। भारतीय फिल्म उद्योग की एक बड़ी विशिष्ट परम्परा है और उसमें नाच-गाने की अभिन्न भूमिका है। उसके लिए हमारे अभिनेताओं को एक खास पिच पर परफॉर्म करना पड़ता है, जो कि भारत से बाहर के दर्शकों के गले नहीं उतर पाता है।
भारत को पश्चिम में अपनी सफलताओं का उत्सव मनाना पसंद है। अमेरिका में मनोरंजन उद्योग के अनेक शक्तिशाली व्यक्ति आज भारतीय मूल के हैं, फिर चाहे वे नेटफ्लिक्स की ग्लोबल टीवी प्रमुख बेला बजारिया हों या वार्नर ब्रदर्स की हेड ऑफ ड्रामा डेवलपमेंट पारुल अग्रवाल। ऐसे में हम सोच सकते हैं कि वो दिन कब आएगा, जब हॉलीवुड भारत के प्रति अपनी पूर्वनिर्धारित धारणाओं से मुक्त हो सकेगा।
भारत पर आधारित हर बड़ी हॉलीवुड फिल्म मुख्य अभिनेता के रूप में किसी गैर-भारतीय व्यक्ति का चयन करती है। इससे पता चलता है कि वे हमारे अभिनेताओं को उपयुक्त नहीं समझते।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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