- जॉन सडवर्थ
- बीबीसी संवाददाता
पिछले सप्ताह शी जिनपिंग ग्लोबल मीडिया के समक्ष बीते कई दशकों के सबसे ताक़तवर चीनी नेता के रूप में सामने आए.
चीन में विदेशी पत्रकारों के प्रति सरकार की असहिष्णुता बढ़ रही है जिससे चीन में वैश्विक मीडिया कुछ हद तक कमज़ोर भी हुई है.
जिनपिंग से पहले चीन में राष्ट्रपति के दो कार्यकाल की ही परंपरा रही है. लेकिन उन्होंने ये परंपरा तोड़ दी है. उनके हाथों में अब तीसरा कार्यकाल है, यानी उन्होंने चीन को अनिश्चितकाल के लिए अपनी पकड़ में ले लिया है.
लेकिन भले ही घरेलू स्तर पर जिनपिंग की पकड़ मज़बूत हो रही है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन के लिए परिस्थिति इतनी अस्थिर शायद ही कभी दिखी हो.
कम्युनिस्ट पार्टी के नेता शी जिनपिंग ने चीन में तानाशाही मॉडल को जितना मज़बूत किया है उतना ही उन्होंने हमारे युग में वैश्वीकरण की इस धारणा को कमज़ोर किया है कि जितना चीन समृद्ध होगा, उतना ही मुक्त होगा.
इस धारणा ने अमेरिका और चीन के बीच दशकों तक कारोबार और रिश्तों को मज़बूत किया.
ये अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक संबंधों का आधार भी था जिसके तहत प्रशांत महासागर के आर-पार सालाना आधा ट्रिलियन डॉलर का कारोबार हुआ.
अब, जब शी जिनपिंग अपना तीसरा कार्यकाल शुरू कर रहे हैं, वो अमेरिका के साथ बढ़ते व्यापार युद्ध का सामना कर रहे हैं. अमेरिका ने अपनी उच्च चिप तकनीक तक भी चीन की पहुंच सीमित करने के लिए क़दम उठाए हैं.
कुछ विश्लेषकों के मुताबिक़, अमेरिका ऐसा तकनीकी क्षेत्र में चीन के उभार को ‘किसी भी क़ीमत पर रोकने’ के प्रयासों के तहत कर रहा है.
वहीं चीन का तर्क है कि अमेरिका दुनिया में महाशक्ति की अपनी स्थिति को बनाए रखना चाहता है और रिश्तों में ये दूरी उसी वजह से आ रही है.
अमेरिकी राष्ट्रपति की हाल ही में जारी हुई नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में कहा गया है कि चीन वैश्विक व्यवस्था के लिए रूस से भी बड़ा ख़तरा है.
अमेरिका में ताइवान पर चीन के आक्रामण को अब एक संभावना के रूप में देखा जा रहा है. पहले अमेरिका इसे बहुत दूर की कौड़ी मानता था.
अमेरिका और चीन अब दोनों ही उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुके हैं जब दोनों देशों के नेता कहा करते थे कि दोनों देशों के साझा फ़ायदे वैचारिक मतभेदों और दुनिया की महाशक्ति (अमेरिका) और तेज़ी से आगे बढ़ते देश (चीन) के बीच के तनावों पर भारी पड़ेंगे.
तो फिर हालात यहां तक कैसे पहुंचे?
‘आज़ादी की आदतें’
ये कोई कम बिडंबना नहीं है कि ये राष्ट्रपति जो बाइडेन ही हैं जो लगातार चीन के प्रति सख़्त रवैया अपना रहे हैं. उन्होंने अमेरिका की सेमीकंडक्टर तकनीक तक चीन की पहुंच को रोक दिया है. यक़ीनन ये देनों देशों के बीच व्यापार और संबंधों के लिए सबसे बड़ा झटका है.
1990 के दशक में जब बाइडेन अमेरिका के सीनेटर हुआ करते थे तब वो चीन के साथ बेहतर कारोबारी रिश्तों के समर्थक थे और चीन को वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन (डब्ल्यूटीओ) में शामिल कराने में उनकी अहम भूमिका थी.
साल 2000 में जब वो शंघाई की यात्रा पर गए थे तब वहां पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा था, “चीन हमारा दुश्मन नहीं है.”
बाइडेन की ये राय उस भरोसे पर ही आधारित थी कि अगर चीन के साथ कारोबार बढ़ेगा तो वो वैश्विक मूल्यों और साझा विश्वासों की व्यवस्था में जाएगा और इससे चीन का उदय एक ज़िम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में होगा.
पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की निगरानी में चीन को डब्ल्यूटीओ की सदस्यता मिल गई थी. ये कई दशकों से चीन के साथ संबंध बढ़ाने की नीति के सिर पर गर्व के ताज जैसा था. रिचर्ड निक्सन के बाद अमेरिका के हर राष्ट्रपति ने इस नीति का समर्थन किया था.
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चीन का विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनना
अमेरिका का कारपोरेट सेक्टर भी चीन के बाज़ार को खुलवाने के लिए लॉबीइंग कर रहा था, ब्रिटिश अमेरिकन तंबाकू कंपनी चीन के ग्राहकों को अपने उत्पाद बेचने के लिए आतुर थी और अमेरिका-चीन बिज़नेस काउंसिल की नज़र चीन के सस्ते और आदेश का पालन करने वाले श्रमिकों पर थी.
वो अमेरिकी जिन्हें अपनी नौकरियां जाने का ख़तरा था, या कोई और भी जो चीन में मानवाधिकारों को लेकर चिंतित था, उन्हें ये कहकर समझा दिया गया कि चीन को डब्ल्यूटीओ की सदस्यता वैचारिक आधार पर दी जा रही है.
बुश उस समय टेक्सस के गवर्नर थे. मई 2000 में राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने बोइंग के कर्मचारियों को एक भाषण दिया.
उन्होंने कहा, “चीन के साथ कारोबार सिर्फ़ वाणिज्य का मामला नहीं है बल्कि विश्वास का मामला भी है.”
“आर्थिक आज़ादी लोगों में स्वतंत्रता की आदत पैदा करती है. और स्वतंत्रता की आदतें लोकतंत्र की उम्मीदों को जन्म देती हैं.”
कुछ समय के लिए ये लगा भी था कि चीन में बढ़ रही समृद्धि, सीमित ही सही, लेकिन कुछ ना कुछ राजनीतिक बदलाव ज़रूर लायेगी.
डब्ल्यूटीओ की सदस्यता के बाद, इंटरनेट ने, दुनिया के बाक़ी हिस्सों की ही तरह चीन के लोगों को भी ऐसी बहस और विरोध करने का मौक़ा दिया जिसके बारे में पहले सोचना भी संभव नहीं था.
बिल क्लिंटन ने एक चर्चित टिप्पणी भी की थी कि कम्युनिस्ट पार्टी का इंटरनेट पर नकेल कसना बेहद मुश्किल है.
जब जिनपिंग ने संभाली थी कमान
2012 में जब शी जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में अपना पहला कार्यकाल शुरू किया था तब वैश्विक मीडिया के कैमरे चीन की गनगचुंबी इमारतों को देख रहे थे. सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो रहा था और चीन के बढ़ते नए मध्यम वर्ग को इस बात के सबूत के रूप में देखा जा रहा था कि चीन मूल रूप से बदल रहा है और ये बदलाव अच्छे हैं.
लेकिन शी जिनपिंग के पहले कार्यकाल में ही इस बात के संकेत मिलने लगे थे कि जिनपिंग ने नई पैदा हो रही उन ‘आज़ादी की आदतों’ को वैश्वीकरण के स्वागत योग्य संकेत के रूप में नहीं बल्कि ऐसी चीज़ के रूप में देखा जिसके ख़िलाफ़ किसी भी क़ीमत पर लड़ा जाना ज़रूरी है.
जिनपिंग के पहले कार्यकाल के कुछ समय के भीतर ही कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय ने डॉक्यूमेंट नंबर 9 (दस्तावेज़ 9) जारी किया था. इसमें ऐसी सात बुराइयों का ज़िक्र था जिनसे चीन की रक्षा की जानी थी. इनमें ‘वैश्विक मूल्य’, पार्टी के नियंत्रण के बाहर नागरिक समाज का सिद्धांत और प्रेस की आज़ादी भी शामिल है.
शी जिनपिंग ये मानते हैं कि अपनी समाजवादी विचारधारा को क़ायम नहीं रख पाने और वैचारिक रूप से कमज़ोर होने की वजह से ही सोवियत संघ का विघटन हुआ था.
उनके लिए साझा वैश्विक मूल्य ऐसा ट्रोजन हॉर्स था जो चीन के कम्युनिस्टों को उसी रास्ते पर ले जाता जिस पर सोवियत संघ चला. इसके जवाब जिनपिंग ने तेज़ी से और बिना कोई समझौता किए दिया- उन्होंने बिना किसी शर्म के अधिनायकवाद और एक पार्टी की सत्ता को लागू किया.
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शी जिनपिंग का ‘स्वर्णिम काल’
चीन के साथ ब्रिटेन के कथित ‘स्वर्णिम युग’ की शुरुआत शी जिनपिंग के पहले कार्यकाल में ही हुई थी और ये उनके दूसरे कार्यकाल में भी जारी रहा. इसी मंत्र से ब्रिटेन ने चीन के साथ कारोबार और संबंधों को बढ़ावा दिया था.
‘गोल्डेन एरा’ के तहत ब्रिटेन के एक वित्त मंत्री चीन के शिनजियांग भी गए. तब तक चीन का ये क्षेत्र गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों की वजह से चर्चा में आ चुका था. ब्रितानी वित्त मंत्री ने यहां पहुंचकर तस्वीरें भी खिंचाई थीं और उपलब्ध कारोबार के मौकों को बढ़ावा दिया था.
मैंने जॉर्ज ओस्बोर्न को एक चमकीली वेस्ट पहने हुए उस जेल से कुछ दूर ही एक लॉरी से सामान उतारते देखा था जहां चर्चित वीगर बुद्धिजीवी और राजनीतिक क़ैदी इल्हाम तोहती ने हाल ही में आजीवन कारावास शुरू किया है.
लोकतांत्रिक देशों से चीन पहुंचने वाले राजनेताओं ने हमेशा ही चीन के साथ संबंधों के फ़ायदे गिनाए, मानवाधिकारों पर चर्चा बंद दरवाज़ों के पीछे ही होती रही.
उसी दौरान राष्ट्रपति बाइडेन के सबसे छोटे बेटे हंटर बाइडेन ने चीन की ऐसी कंपनियों के साथ कारोबारी संबंध मज़बूत किए जिनका संबंध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से भी है.
हंटर बाइडेन आज भी इससे जुड़े राजनीतिक विवादों में फंसे हुए हैं.
दूरदर्शिता के अभाव में, इस बात के कम ही सबूत हैं कि अमेरिका और यूरोप के नेता उस समय चीन के साथ संबंधों के अपने नज़रिए की फिर से समीक्षा करने के लिए उत्साहित थे.
मैं जिस दौरान बीजिंग में रहा, कॉरपोरेट अधिकारी अक्सर मुझसे कहा करते थे कि जो पत्रकार चीन में बढ़ते हुए दमन को कवर कर रहे हैं वो कहीं ना कहीं चीन में बढ़ती समृद्धि की पूरी तस्वीर को नहीं दिखा पा रहे हैं.
ये ऐसा ही था जैसे कि चीन के अधिकारियों के दिमाग़ को राजनीतिक सुधार के प्रति खोलने के बजाए, जैसा कि वादा भी किया गया था, कारोबार और संबंधों ने बाहरी दुनिया में रह रहे उन लोगों के विचारों को ही बदल दिया था, उनकी नज़रें ऊंची इमारतें और तेज़ रफ़्तार रेलवे लाइनों पर ही अटक गई थीं.
इसका सबक ये नहीं है कि आर्थिक आज़ादी और राजनीतिक आज़ादी साथ-साथ चलती है, लेकिन ये है कि आप मानवाधिकारों की परवाह किए बिना भी दुनिया की सारी दौलत इकट्ठा कर सकते हैं.
चीन में भारी निवेश वाली अमेरिका की एक घरेलू उत्पाद बनाने वाली कंपनी के एक अधिकारी ने मुझे बताया था, “चीन के लोगों को उस तरह की आज़ादी नहीं चाहिए जैसी पश्चिम के लोगों को चाहिए होती है.”
उस अधिकारी ने अपनी फ़ैक्ट्री में काम कर रहे श्रमिकों से बात की थी, उसने बहुत ज़ोर देकर ये कहा था कि उन श्रमिकों की राजनीति में किसी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है.
उन्होंने कहा था, “वो पैसे कमाकर बहुत ख़ुश हैं.”
कारोबारी और चीन के साथ संबंधों को बढ़ावा देने वाले- जिनमें कारपोरेट और सरकारें दोनों ही एक जैसे शामिल रहे, उन्होंने ऐसा लगता है कि चीन में राजनीतिक आज़ादी लाने के उस भारी भरकम वादे को रास्ते में ही कहीं भुला ही दिया हो.
समृद्धि को बढ़ाना अब अपने आप में ही पर्याप्त लगने लगा था. इस तरह बदला क्या?
वीगर मुसलमानों का मुद्दा
सबसे पहले तो, जनता का नज़रिया. 2018 के बाद से, दुनियाभर में रह रहे वीगर समुदाय के लोगों ने लापता होते अपने परिजनों के बारे में खुलकर बोलना शुरू किया. इन्हें शिनजियांग की विशाल जेलों में भेजा जा रहा था.
वीगर मुसलमानों ने इस ख़तरे के बावजूद आवाज़ उठाई कि ऐसा करने से उनके परिजनों पर ज़ुल्म और भी ज़्यादा बढ़ सकता है.
शुरुआत में ऐसा लगा कि चीन अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया से हैरान हुआ.
आख़िरकार, पश्चिमी सरकारें चीन के साथ कारोबार और संबंधों को बढ़ाने के लिए उसके कई रूपों को नज़रअंदाज़ करती रही थीं, इनमें चीन में जारी दमन भी शामिल था.
शी जिनपिंग के सत्ता संभालने से पहले भी धार्मिक विचारों को निशाना बनाना, विद्रोहियों को जेल भेजना और ‘एक बच्चे की बर्बर नीति’ को ज़बर्दस्ती लागू करना चीन की राजनीतिक व्यवस्था का अहम हिस्सा था. ये महज़ कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं था.
लेकिन एक पूरी क़ौम को, सिर्फ़ उसकी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के आधार पर, सामूहिक रूप से जेल भेज देने का दुनियाभर में लोगों की राय पर भारी प्रभाव पड़ा. यूरोप और उसके बाहर ऐतिहासिक रूप से इस पर चर्चा होने लगी.
शिनजिंयाग में सप्लाई चेन वाली कंपनियों को ग्राहकों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और सरकारों पर कार्रवाई करने के लिए राजनीतिक दबाव बढ़ता ही गया.
अन्य मुद्दे भी थे- जैसे जिस तेज़ी से चीन ने हांगकांग में विरोध की आवाज़ों को कुचला, दक्षिण चीन सागर का सैन्यीकरण और ताइवान पर लगातार बढ़ता ख़तरा.
लेकिन सबसे ज़्यादा असर शिनजियांग का हुआ और चीन ने भी ये महसूस करना शुरू कर दिया कि अब राय बदल रही है.
ये कोई संयोग नहीं है कि उसके बाद से शिनजियांग के हालात को दुनिया के सामने लाने की कोशिश करने वाले बहुत से पत्रकारों को चीन से बाहर निकाल दिया गया है. मैं भी इनमें शामिल हूं.
प्यू के एक ताज़ा सर्वे के मुताबिक़, अब 80 फ़ीसदी अमेरिकी चीन के बारे में नकारात्मक नज़रिया रखते हैं. एक दशक पहले सिर्फ़ 40 प्रतिशत लोगों का ऐसा नज़रिया था.
ट्रंप और शी जिनपिंग
दूसरा बड़ा कारण जिससे चीज़ें बहुत तेज़ी से बदली वो हैं डोनल्ड ट्रंप.
डोनल्ड ट्रंप के चीन विरोधी संदेश भी उतार-चढ़ावों से भरे ही रहे. वो चीन पर अनुचित व्यापार करने का आरोप लगाते रहे और दूसरी तरफ़ चीन के राष्ट्रपति के कठोर नेतृत्व के प्रशंसक भी बने रहे.
लेकिन ट्रंप ने इसका इस्तेमाल ब्लू कॉलर नौकरियों वाले (ऐसी नौकरी जो दफ़्तर के बजाए शारीरिक श्रम जैसे निर्माण क्षेत्र पर आधारित होती हैं) वोट बैंक को अपने समर्थन में करने के लिए किया.
कम शब्दों में कहा जाए तो ट्रंप ने दावा किया कि व्यापार और संबंध एक बुरा सौदा थे जिनका कोई दिखाने लायक प्रभाव नहीं है, सिर्फ़ अमेरिकी नौकरियों और तकनीक के चीन पहुंचने के.
ट्रंप के विरोधियों ने उनके इन नुक़सान पहुंचाने वाले तरीक़ों की आलोचना की और उन्होंने उनकी इस नफ़रत भरी भाषा को भी समझा, लेकिन तब तक सांचा टूट चुका था.
राष्ट्रपति बाइडेन ट्रंप की चीन को लेकर कुछ नीतियों पर पीछे हटे हैं, इनमें ट्रंप का शुरू किया गया व्यापार युद्ध भी शामिल है. लेकिन जो कर ट्रंप ने लगाए थे वो अब भी जारी हैं.
देर से ही सही, अमेरिका को ये एहसास हो रहा है कि चीन में राजनीतिक सुधार को तो कोई गति नहीं मिली, लेकिन जो तकनीक और व्यापार अमेरिका से चीन को मिला, उससे चीन में अधिनायकवादी सत्ता और भी मज़बूत हुई.
ताइवान को लेकर एक नया समीकरण
राष्ट्रपति बाइडेन की ताइवान को लेकर की गई हालिया टिप्पणियों से बड़ा अभी इस बात का कोई और स्पष्ट संकेत नहीं है कि अमेरिका और चीन के रिश्तों में बदलाव कितना व्यापक और गहरा है.
पिछले महीने सीबीएस न्यूज़ ने उनसे पूछा था कि क्या अमेरिका ताइवान पर आक्रमण की स्थिति में उसके बचाव के लिए अपने बलों को भेजेगा.
बाइडेन ने कहा था, “हां, अगर वास्तव में कोई अभूतपूर्व हमला होता है तो.”
अमेरिका ताइवान की मदद के लिए आगे आयेगा या नहीं, इसे लेकर अब तक अमेरिका की अधिकारिक नीति जान-बूझकर रणनीतिक अनिश्चितता की थी. लेकिन ये स्वीकार करके कि अमेरिका दख़ल देगा, वो तर्क भी दिया गया कि इसे चीन ताइवान पर आक्रमण के लिए हरी झंडी के रूप में भी देख सकता है.
ये कहकर कि अमेरिका ताइवान के बचाव के लिए आगे आएगा, ताइवान की स्वशासित सरकार को औपचारिक रूप से चीन से स्वतंत्रता घोषित करने के लिए बढ़ावा भी मिल सकता है.
अमेरिका की इस ज़ाहिर तौर पर रणनीतिक स्पष्टता ने चीन को आक्रोशित भी कर दिया है. चीन इसे अमेरिका के पक्ष में बड़े बदलाव के रूप में देख रहा है.
अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारियों ने कोशिश भले ही की हो, लेकिन बाइडेन की इस टिप्पणी से पीछे हटना आसान नहीं है.
अब साझा मूल्यों और मानदंडों की जगह, चीन अधिनायकवादी सत्ता में समृद्धि के मॉडल का एक मज़बूत और बेहतर विकल्प पेश कर रहा है.
चीन का प्रोपेगैंडा सिस्टम
चीन,अपनी ख़ुफ़िया सेवाओं के ज़रिए, अंतरराष्ट्रीय संगठनों में बहुत मेहनत कर रहा है, और उसके पास अपने सिस्टम के प्रभाव को बढ़ाने के लिए बड़ा प्रोपेगैंडा सिस्टम भी है. चीन ये तर्क भी दे रहा है कि लोकतंत्र गिर रहे हैं.
कुछ हलकों में- जैसे कि जर्मन कारोबारी समुदाय में- व्यापार और संबधों के समर्थन में तर्कों ने बिल्कुल ही अलग रुख़ ले लिया है.
चीन इस समय वैश्विक सप्लाई चेन के लिए इतना अहम है और इतना शक्तिशाली है कि एक नया तर्क ये दिया जा रहा है कि अब चीन के साथ कारोबार जारी रखने के सिवाय कोई विकल्प बचा ही नहीं है. ऐसा न करने से ‘हमारी अपनी अर्थव्यवस्था को नुक़सान होगा’ और चीन जवाबी कार्रवाई भी कर सकता है.
लेकिन अमेरिका में, ये नज़रिया कि चीन अमेरिका के लिए एक गंभीर ख़तरा है, शायद एकमात्र ऐसा मुद्दा है जिस पर राजनीति को दोनों पक्ष सहमत हैं.
हो सकता है, अभी कोई आसान विकल्प ना हों- सप्लाई चेन को कहीं और पहुंचाने में सालों लग जाएंगे और ये बहुत ख़र्चीला भी होगा.
और चीन के पास उन लोगों को फ़ायदा पहुंचाने के, जो उसके साथ कारोबार जारी रख रहे हैं और उन्हें नुक़सान पहुंचाने के, जो कारोबार नहीं रख रहे हैं, दोनों ज़रिए मौजूद हैं.
लेकिन शी जिनपिंग के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत के समय एक बात तो बिल्कुल सच है कि दुनिया इस समय बड़े बदलाव के क्षण में खड़ी है.
और चीन में, और साथ ही रूस में भी, अमेरिका के सामने वो विपक्षी है जिसे उसने ख़ुद खड़ा किया है.
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