(डॉ. ओम निश्चल/Om Nishchal)
Book Review: मिथकों की बड़ी महिमा है. पुरा चरित्र हमें खींचते हैं. हम उनकी कहानियां पढ़ते हैं तो उसी भाव लोक की सैर करने लगते हैं. रामायण और महाभारत तो उपजीव्य कहे ही जाते हैं. आज के तमाम आधुनिक काव्यों की अंतर्वस्तु में इन्हीं दो आर्षग्रंथों का रस सत्व और अंतस्तत्व समाया हुआ है. परवर्ती लेखक या कवि इन प्रसंगों और चरित्रों को अपनी तरह से देखता है और उसमें नया अर्थ भरता है. आज के आधुनिक हिंदी लेखकों में नरेन्द्र कोहली की दो चार कृतियों को छोड़ कर सारी अंतर्वस्तु इन्हीं दो ग्रंथों से ली गई हैं और वे इस कला के महान आचार्य माने जाते हैं. महाभारत, रामायण और विवेकानंद ये तीन उनके लेखकीय जीवन और औपन्यासिक उद्यम के तीन बड़े पड़ाव या केंद्रबिन्दु रहे हैं. महासमर व दीक्षा और ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ की कड़ियां भारतीय जन जीवन और संस्कृति में रचे बसे इन पुरा आख्यानों का पुनरवतरण हैं.
आज भी लाखों पाठक हैं जो इन्हीं पुरा आख्यानों को पढ़ने-गुनने में जीवन धन्य मानते हैं. एक बार कविवर कुंवरनारायण से उनकी पसंदीदा कृतियों के बारे में जानना चाहा था तो उन्होंने कुछ कृतियों के साथ उस कृति ”भारत सावित्री” का नाम भी सुझाया था कि उसे जरूर पढ़ना चाहिए. ‘भारत सावित्री’ को वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे संस्कृतिविद ने लिखा है. यह कृति महाभारत के उपेक्षित प्रसंगों पर है. इन प्रसंगों ने महाभारतकार ने महत्व नहीं दिया है. पर वे प्रसंग महत्वपूर्ण हैं. कुंवर जी आधुनिक विचारणा के लेखक थे पर पुरा आख्यानों और मिथकों में उनकी रुचि थी. वे इनमें कोई जीवन मूल्य तलाशने में लगे रहते थे. नचिकेता और वाजश्रवा जैसे चरित्रों के माध्यम से उन्होंने कालजयी कृति लिखीं और उनके बहाने कविता और साहित्य में नई काव्यदृष्टि का प्रक्षेपण किया. लेकिन वे इतिहास, मिथक और पुराख्यानों में विचरण करते रहते थे.
इसी तरह रामायण की उर्मिला का चरित्र कवियों को मथता रहा है. कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने एक लेख में कवियों की उर्मिलाविषयक उदासीनता पर चिंता व्यक्त की थी. तब ‘सरस्वती’ में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उर्मिला के उद्धार की ओर कवियों का ध्यान खींचा. द्विवेदी जी की इसी चिंता से प्रेरित होकर मैथिलीशरण गुप्त ने ‘उर्मिला उत्ताप’ की रचना आरंभ की. किन्तु बाद में उसका आयाम वृहत्तर होने पर उसे संपूर्ण रामकथा में बदलते हुए उसे ‘साकेत’ नाम दिया. किन्तु इस काव्य का नवां सर्ग इसलिए ज्यादा मर्मस्पर्शी बन पड़ा है क्योंकि वह उर्मिला की व्यथा कथा पर केंद्रित है.
यों तो बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने भी एक खंड काव्य उर्मिला पर लिख कर उर्मिला की पीड़ा का निर्वचन किया है किन्तु गुप्त जी की बात ही और है. उन्होंने तो ‘साकेत’ में कैकेयी के खल चरित्र को भी धो-पोछ कर निर्मल कर दिया है. ‘शबरी’ पर दोहा शैली में काव्य आख्यान लिख कर उर्वशी अग्रवाल ‘उर्वी’ ने भी इस चरित्र को भी बहुत मन से पवित्र आसन पर बिठाया है यानी समकालीन दुनिया की एक कवयित्री को शबरी का चरित्र उठाना आज भी कविता का केंद्रीय विषय लगता है. जबकि इससे बहुत पहले शबरी पर जाने-माने कवि नरेश मेहता ने भी एक खंड काव्य लिखा था. और जैसी कि नरेश मेहता की वैदिक आभा से युक्त भाषा शैली है, उन्होंने शबरी के माहात्म्य के बारे में राम तक से यह कहलवा लिया कि- ”है अन्य कौन त्रेता में जो श्रेष्ठ भक्त शबरी से। है मंत्र यज्ञ यह सब कुछ सब सिद्ध इसी शबरी से।”
बच्चों की दुनिया से साहित्य गायब होना चिंता का विषय है- डॉ. सुरेंद्र विक्रम
द्रौपदी पर भी हिंदी और लोकभाषाओं में अनेक कृतियां लिखी गयी हैं. भोजपुरी कवि चंद्रशेखर मिश्र का काव्य ‘द्रौपदी’ इसका प्रमाण है. द्रौपदी काव्य लिख कर जाने-माने कवि पंडित नरेंद्र शर्मा ने भी इस चरित्र पर मार्मिक लेखनी चलाई है. ओड़िया लेखिका प्रतिभा राय को भी द्रौपदी का चरित्र इतना भाया कि उन्होंने उन पर पूरा उपन्यास ही लिख दिया जो बाद में पर्याप्त चर्चित और पुरस्कृत हुआ.
शकुंतला तो कवियों का प्रिय विषय ही रही हैं. कालिदास ने ”अभिज्ञान शाकुंतल” लिख कर शकुंतला के चरित्र को महाभारत से आख्यान से उठा कर कविता के केंद्र में ला दिया. कर्ण के चरित्र को महनीय मानते हुए मराठी लेखक शिवाजी सावंत ने क्या खूब बेहतरीन उपन्यास ‘मृत्युंजय’ लिख कर कर्ण के चरित्र को साहित्य में अमर कर दिया है तो राष्ट्रकवि दिनकर की भी दृष्टि कर्ण पर कमतर नहीं रही है. उन्होंने ‘रश्मिरथी’ लिख कर अविवाहित् मातृत्व से जन्मे और जीवन की तमाम अस्वीकार्यताओं और छल-छद्म से गुजरने वाले इस कालजयी चरित्र को निर्मल धवल कर दिया है. उसके मुंह से यह कहलवा कर दिनकर ने उसके प्रति जातीय विद्वेष को जैसे निरस्त कर दिया है:
जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास। (-रश्मिरथी, दिनकर)
तो कहना यह कि जिस ‘पोयटिक जस्टिस’ की बात कविता में सदियों से उठाई जाती रही है, वह आज भी कवियों के अंत:करण में विद्यमान है. यह और बात है कि यह प्रबंध काव्यों का दौर नहीं रहा किन्तु नई कविता में जहां प्रयोगों का बोलबाला है, कविता अर्थोद्भावन की दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हुई है. कविता या समाज पर जो प्रभाव महाकाव्यों और प्रबंधकाव्यों का पड़ता रहा है और कवि व्यक्तित्व के सामर्थ्य की दृष्टि से भी जो मानदंड साहित्य में निर्मित हुए हैं, उन कसौटियों पर कवियों को परखा जाता रहा है. प्रसाद, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, नरेश मेहता और कुंवर नारायण इन्हीं कसौटियों पर परखे और पहचाने गए. उनके काव्यप्रयत्नों को उनके महाकाव्यात्मक कौशल से जाना पहचाना गया. दिनकर ने ‘आत्मजयी’ (कुंवर नारायण) को पढ़ कर उनसे पहली मुलाकात में ही कहा था, जब इसी उम्र में तुमने ‘आत्मजयी’ लिख दी है तो आगे क्या लिखोगे. नई उम्र में लिखी ‘आत्मजयी’ लंबी कविताओं या प्रबंधकाव्यों की कोटि में एक बड़ी काव्यरचना के रूप में शुमार की गई.
हमें इसकी भी शर्म नहीं है कि हॉकी जैसे खेल में हम फिसड्डी रह गए!
आज का युग नई कविता का है. लेकिन नई कविता के इस दौर में भी कई कवियों ने प्रबंध काव्य का प्ररूप अपनी रचनाओं के लिए सुनिश्चित किया तथा अनेक ऐसे विषयों और चरित्रों पर काव्य लिखे जिनके साथ अभी साहित्य की अदालत में न्याय नहीं हुआ. खोजिए तो शबरी, केवट, पांचाली, कर्ण इत्यादि पर अनेक कविताएं और काव्य मिल जाएंगे किन्तु ऐसे चरित्रों के साथ न्याय कोई-कोई बड़ा कवि ही करता है जिसका कविता कला पर असाधारण अधिकार होता है. उर्वशी अग्रवाल ‘उर्वी’ ऐसी ही उर्वर कवयित्री हैं जिन्होंने पांचाली यानी द्रौपदी के व्यक्तित्व पर चौपाई शैली में प्रबंध काव्य ‘व्यथा कहे पांचाली’ लिख कर जैसे पांचाली पर काव्यात्मक न्याय करते हुए समाज पर लदा उसका ऋण अदा कर दिया है.
उर्वशी अग्रवाल को कोई दो-तीन बरस से पहले जानता हूं जब पहली बार उन्हें एक कवि समवाय में सुना था. कविता की गीति शैली और छंद में महारत की परिणति देखने का यह पहला सुअवसर था तथा उनके कवि कर्म और छंद बोध से आश्वस्त हुआ था. यों छंदसिद्ध होना किसी के कवि होने की गारंटी तो नहीं है किन्तु केवल चौपाई छंद में पूरे काव्य का विन्यास रच देना और खूबसूरत अन्त्यनुप्रासों से कविता की छटा को लहरा देना कोई असान काम नहीं है. और यही उर्वशी की विशेषता है. उनके भीतर छंद को लेकर एक उद्विग्नता-सी दिखती थी जैसे कोई कविता में छंद का पुनर्वास करना चाहता हो. तभी यह आशा बलवती हो चुकी थी कि यह कवयित्री आगे चल कर कुछ ऐसा असाधारण करने या रचने वाली है जो कविता के हेतु और मूल्य दोनों दृष्टियों से वरेण्य हो.
आज का दौर विमर्शों का है. स्त्री विमर्श के लिए कई कवियों ने इधर मिथकों की राह अपनाई है. पिछले कुछ वर्ष पहले स्फुट कविता शैली में सुमन केशरी का कविता संग्रह ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ आया था. इसमें उन्होंने याज्ञवल्क्य और गार्गी की पारंपरिक बहस को आधार बनाकर कविता को आधुनिक स्त्री की प्रगतिशीलता और प्रश्नाकुलता को रेखांकित किया था. हाल में पुन: अपने नए संग्रह ‘निमित्त मैं’ में सुमन केशरी ने द्रौपदी, कुंती, गांधारी, माद्री, गंगा, सत्यवती, सुभद्रा, हिडिम्बा, चित्रांगदा, भानुमती, दु:शला, शकुंतला, माधवी, सावित्री, उत्तरा आदि पर कविताओं की श्रृंखला लिखी है. द्रौपदी के चरित्र को इसी करुणा से निहारते हुए उन्होंने द्रौपदी की पीड़ा उरेहते हुए लिखा-
इतिहास गवाह है
मैंने केवल कुछ प्रश्न उठाए
कुछ शंकाएं और जिज्ञासाएं
और तुमने मुझे नाम से ही वंचित कर दिया।
इस नाम विहीनता ने ही उन्हें अपने को कृष्णा मानने पर विवश किया. कृष्ण का मोह द्रौपदी को आजीवन भाता रहा है- ‘मैं’ आज भी वहीं पड़ी हूँ प्रिय/ मुझे केवल तुम्हारी बंशी की तान सुनायी पड़ती है अनहद नाद सी।’
‘प्रश्न पांचाली’ काव्य के माध्यम से पांचाली की पीड़ा को कवयित्री सुनीता बुद्धिराजा ने भी बहुत मार्मिकता से उठाया था. जैसे यह पुराकाल की स्त्रियों के जीवन को दुबारा पढ़ने और आज के आईने में परखने की कोशिश हो. जैसे कुंवर नारायण ने कठोपनिषद से नचिकेता-यम प्रसंग को लेकर ‘आत्मजयी’ काव्य लिखा और उसके लगभग एक दशक बाद ‘वाजश्रवा के बहाने’ लिख कर उसे आधुनिक कविता में एक महत्वपूर्ण जगह दिलाई.
स्त्री लेखक, प्रवासी लेखक, दलित लेखक….ये क्या वेबकूफी है- ममता कालिया
‘व्यथा कहे पांचाली’ – छंदोबद्ध खंड काव्य है जो चौपाई शैली में विरचित होते हुए जहां एक ओर कवि के छंद सामर्थ्य का प्रमाण देता है वहीं स्त्री विमर्श के आईने में पांचाली के जीवन संघर्ष, उसकी नियति, चीरहरण, वनगमन, द्रोपदी हरण, युधिष्ठिर-द्रौपदी संवाद, अज्ञातवास, कृष्ण द्रौपदी युद्ध संवाद, अभिमन्यु वध, कर्ण वध, दुर्योधन वध, गांधारी के शाप, पांचाली पुत्रों का वध, स्वर्ग गमन इत्यादि की कथा रुचिर शैली में प्रस्तुत कर कवयित्री ने महाभारत के इन प्रसंगों को जैसे पुनर्जीवित कर दिया है.
द्रौपदी का चरित्र महाभारत में जाना-पहचाना है. जैसे सारा महाभारत उसके कारण रचा गया हो. वह पांच पतियों में बंटी स्त्री किस किस हालात से जीवन में गुजरती है, यह महाभारत के प्रसंग बताते हैं. अधर्म की इस लड़ाई में स्त्री का मान-सम्मान किस हद तक खतरे में रहता है यह किसी से छिपा नहीं है. पर पांचों पतियों के रहते हुए जिस तरह द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को हार जाने के बाद दुर्योधन चीर हरण का व्यूहरचता है, कोई पति उसकी रक्षा के लिए आगे नहीं बढ़ता. धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर भी नहीं, गंगापुत्र भीष्म भी नहीं.
पहली बार महाभारत काल में किसी स्त्री की मर्यादा इस तरह दांव पर लगी कि उसकी मान रक्षा के लिए कृष्ण को आना पड़ा. कैसे-कैसे लाक्षागृह, अज्ञातवास और अपमान के अवसरों से गुजरते हुए पांडवों ने यह लड़ाई लड़ी और कृष्ण जैसे सारथी के चलते जीती, यह भी एक चमत्कार है. किन्तु यह प्रतीकात्मक रूप से अधर्म पर धर्म की विजय थी. यही वह मूल्य था जो महाभारत हमें देता है. गीता के उपदेश के माध्यम से जीवन का अमूल्य दर्शन कृष्ण के माध्यम से पूरा समाज के सामने आता है. लेकिन सवाल यह है कि युद्धों में सबसे ज्यादा प्रताड़ित स्त्रियां ही क्यों होती हैं. उन्हीं को सॉफ्ट टार्गेट क्यों बनाया जाता है. उन्हीं के बलात्कार होते हैं, उन्हीं के सामने उनके बच्चों की हत्याएं होती हैं. द्रौपदी इसकी जीता-जागती उदाहरण हैं.
उर्वशी अग्रवाल ने द्रौपदी के चरित्र को उदात्त बना कर प्रस्तुत किया है. वह जिस तरह भरी सभा में चीरहरण का दृश्य देखने वाले वीरों को ललकारती है और हर एक को प्रश्नांकित करती है वह ध्यातव्य है. जीवन भर दुखों और विसंगतियों का वरण करने वाली द्रौपदी के पांच पुत्रों का जिस नृशंसता से वध होता है वह उसके भीतर की मां को हिला देने वाला है.
उर्वशी अग्रवाल ‘उर्वी’ ऐसे सारे प्रसंगों को अपनी काव्यात्मक मथानी से मथती है. आत्ममंथन करती हैं. वे बहुत सधे कदमों से द्रौपदी की परकाया में जैसे प्रवेश करती हैं तथा उसकी व्यथा को आत्मसात करते हुए उसी के आत्मकथन के रूप में यह सारा प्रबंधकाव्य प्रस्तुत करती हैं. आइए देखते हैं किस खूबी से उन्होंने अपने कवि-सामर्थ्य का परिचय इस प्रबंधात्मक आख्यान में किया है. काव्य के प्रारंभ में ही दी गई चौपाई जीवन को समझने का सार है-
जिसने खुद को मथा नहीं है
उसकी कोई व्यथा नहीं है।
यहां कवि ने अपने को खूब मथा है. द्रौपदी के संबोधनों में कवयित्री के संबोधन बोलते हैं. महाभारत काल की पांच पतियों वाली स्त्री जैसे कवयित्री से बतियाती लगती है. हम न भूलें कि कविता का जन्म ही जैसे कहानी कहने के लिए हुआ था. इस काव्य के माध्यम से भी उर्वी ने महाभारत की पुरानी कहानी फिर से कहीं अधिक प्रभावी ढंग से कही है. सबसे पहले द्रौपदी किन-किन ऊहापोहों और असमंजसों से गुजरती है कवयित्री ने उसे अपने शब्दों में बयान किया है. क्या खूब द्रौपदी कहती है–
काश वचन स्वीकार न करती
मैं भी रेखा पार न करती।
काश न मेरे हिस्से होते
शुरू नहीं ये किस्से होते। (कुंती को लेकर उहापोह)
काश कर्ण को वर लेती मैं
वाणी वश में कर लेती मैं (कर्ण को लेकर उहापोह)
अपनी बात न कटने देता
काश न मुझको बँटने देता। (अर्जुन को लेकर उहापोह)
काश नहीं मैं उस पर हँसती
जान मुसीबत में क्यों फँसती। (दुर्योधन को लेकर उहापोह)
इसी तरह वह दुशासन, धृतराष्ट्र, गांधारी, भीष्म, जयद्रथ सबको लेकर अपने उहापोह व्यक्त करती है. वह अपने प्रतिशोध को लेकर भी पाश्चाताप करती है. वह यहां तक कहती है कि ‘नारी का अपमान न होता/ कुरुक्षेत्र शमशान न होता.‘
इस्लाम में कहीं भी मुंह ढकना नहीं है, चेहरा इनसान की पहचान है- नासिरा शर्मा
हम जानते हैं महाभारत की यह या अन्य कथाएं हजारों बार कही और दुहराई जा चुकी हैं. कविता के लिए सदैव रामायण और महाभारत उपजीव्य ग्रंथ रहे हैं. अनेक महाकाव्य, खंड काव्य, लंबी कविताएं महाभारत के अनेक प्रसंगों पर लिखे गए हैं. लेकिन काव्य के कुछ हेतु होते हैं. ऐसे आख्यानों के पीछे कुछ मूल्य काम करते हैं. कवि सदैव सत्य के पक्ष में खड़ा होता है. एक जरा सी भूल के लिए कितनी क्षति उठानी पड़ती है. एक जरा से उपहास के लिए द्रौपदी को दुर्योधन की यातना का शिकार होना पड़ा. एक जरा-सी असावधानी से एक स्त्री पांच पतियों में बंट गई. जैसे वह कोई वस्तु हो. कहा ही गया है: विनाशकाले विपरीतबुद्धि. कवयित्री इसके संकेत जगह-जगह करती चलती है. द्रौपदी का बचपन बहुत लाड़ प्यार में पला था. वह निडर और साहसी थी. उसके भीतर प्रश्नों की एक ज्वलंत दुनिया थी जो उसके प्रति लोगों को ईर्ष्यादग्ध भी बनाती थी.
यह काव्य अपनी प्रकृति में इतिवृत्तात्मक है जैसे हमारे समय की ‘भारत भारती’ या ‘प्रियप्रवास’. सो वर्णन की सरलता का वैभव यहां सहज ही देखने को मिलता है. ऐसा इसलिए भी संभव हुआ है कि कवयित्री को छंद सिद्ध है. वह किसी भी कथा या नैरेटिव को छंद में पिरो कर सहज भाव से प्रस्तुत कर सकती है. तो सबसे पहली बात यह कि इसमें वर्णन की नैरेटिव की सरलता है. प्रवाह है. भाषा की भी सरलता यहां द्रष्टव्य है. चौपाई की एक लता जैसी छटा यहां दिखती है. कुछ चौपाइयां जो मुझे पढ़ते हुए भाईं उनमें से कुछ ये हैं-
कुल का तेरे सूरज डूबे
माधव तेरा यूँ ध्वज डूबे।
यादव कुल की गगरी डूबे
सागर तल में नगरी डूबे।
वंशज एक रहे ना बाकी
मौत मरेगा तू एकाकी।
यह गांधारी का शाप है जो उसने कृष्ण को दिए. क्योंकि गांधारी को पता था कि यह सारा युद्ध कृष्ण की ही लीला का परिणाम है. उन्हीं के कारण यह युद्ध हुआ जिसमें वह अपने सारे पुत्र खो बैठी. यह एक लाचार और विवश मां का शाप था और हमें यह ज्ञात ही है कि यह शाप बाद में प्रतिफलित हुआ जब सारा यदुवंश द्वारका के अतल में समा गया और कातर कृष्ण ने एकाकी होकर बहेलियों के बाण से विद्ध होकर प्राण त्यागे.
व्यथा कहे पांचाली- में सारी कथा महाभारत जैसी है किन्तु कल्पना की उड़ान कवि की अपनी है. उसे कुशलता से कथा शैली में काव्यबद्ध रूप में कहा गया है. काव्य का प्रवाह किस्सागोई को खोलता हुआ-सा दिखता है. किन्तु यहां पांचाली कवयित्री की दृष्टि में क्या है. कवि का पक्ष क्या है उसे लेकर, वह इसे इन शब्दों में सामने रखती है-
हवन कुंड की ज्वाला थी वो
रुद्राक्षों की माला थी वो
टूटे उसके सारे सपने
दुख देने वाले थे अपने
पुरुषप्रधान व्यवस्था सारी
कृष्णा थी किस्मत की मारी
आज व्यवस्था है गांधारी
हर नारी पर पड़ती भारी
चीरहरण अब भी होते हैं
कृष्ण मगर शायद सोते हैं
अगर पाप का वरण न होता
गीता का अवतरण न होता
कली ज्ञान की खिलती कैसे
अदभुत गीता मिलती कैसे।
कभी युद्ध में किसी को ज्ञान मिला है क्या? पूरी सत्ता धूलिसात हो जाने के बावजूद आदमी अपने कृत्य या दुष्कृत्य पर चिंतन नहीं करता, पीछे मुड़ कर नहीं देखता. द्रौपदी देखती है, यह कवयित्री देखती है. वह आज की गांधारी व्यवस्था को भी चिह्नित करती है. कवि यही करता है. कलिंग वध के बाद तो सम्राट अशोक को भी वैराग्य हो गया था. वह बौद्ध बन गया.
द्रौपदी ने जीवन भर संघर्ष किया, पांच पतियों में बांट दी गई, पर उफ न की. उसके मन की बात न मां ने सुनी न पतियों ने. उसकी संतानें मारी गईं. वह देखती रही. जुए में पांडव कुल की वह इज्जत दांव पर लगा दी गई. प्राणिमात्र से एक वस्तु के रूप में अवमूल्यित की गई. वह भी महाभारतकाल में जहां सभा में पांच पांडवों के अलावा भीष्म पितामह हों, न्याय और धर्मप्रिय युधिष्ठिर हों, सुमधुर बोलने और हिताहित पर विचार करने वाले विदुर हों.
आज भी स्त्री को पुरुष सत्ता किस निगाह से देखती है, क्या किसी से छिपा है? जबकि स्त्रियों ने पग-पग पर अपने सामर्थ्य का लोहा मनवाया है. पारिवारिकसत्ता को प्राणवायु दी है. हाल ही आई एक काव्यकृति ‘इस बार उनके लिए’ में कवयित्री मीना सिंह का यह कहना कि ”जिस घर में रोती हैं औरतें, वहां चिराग नहीं जलते।” कौरव कुल ने जिस एक स्त्री को रुलाया उसका भयावह परिणाम क्या निकला यह हमें पता है. जिस एक स्त्री सीता पर रावण की कुदृष्टि पड़ी, उस कुल का क्या हुआ, यह किससे छिपा है?
परंपरा और आधुनिकता दोनों ही स्त्रियों को मारती है – गीताश्री
कहना न होगा कि यहां यानी ‘व्यथा कहे पांचाली’ में कवि का पक्ष प्रबल है जो कि स्त्री यानी पांचाली के पक्ष में है. अतीत में सताई हुई स्वाभिमानी स्त्री के पक्ष में है. वह जानती है कि महाभारत काल में भी आखिर थी तो पुरुष प्रधान व्यवस्था ही. तो स्त्री की बात कहां से सुनी जाती. ऐसे में यह उचित ही था कि कृष्ण पांचाली की रक्षा के लिए दौड़े आए और अन्यायियों को दंड दिया. पांडवों की ओर से लड़े. न लड़ते तो अधर्म जीतता. धर्म के अनुयायी मारे जाते.
सच्चे कवि का धर्म यही है कि वह न्याय का पक्ष ले. सत्य का पक्ष ले. उर्वशी उर्वी का यह काव्य हमें अतीत के गलियारे से होते हुए महाभारत के पांचाली प्रसंग में ले जाता है. हम पांचाली की अकथनीय पीड़ा से भी गुजरते हैं और तमाम सोपानों से गुजरते हुए यह काव्य उस बिन्दु पर हमें छोड़ता है जहां हम सभी चरित्रों को उनके कृतित्व के दर्पण में देख सकते हैं और इस प्रसंग को कवयित्री बहुत ही गहरे डूब कर व्यक्त करती हैं. शब्द संयम, छंद संयम, कथासंयम में यह काव्य सिद्ध है. प्रबंध काव्यों के क्षीण होते समय में एक प्रसंग को महाकाव्यात्मक नहीं तो महाकाय (यद्यपि यह सर्गों व विभिन्न छंद शैलियों में उपनिबद्ध महाकाव्य नहीं है) रूप देना कविता के खजाने को मालामाल करना है. हिंदी साहित्य उर्वशी अग्रवाल उर्वी के इस कृतित्व के लिए ऋणी रहेगा. वे इस काव्य से सहज ही उस काव्यधारा की कवयित्री बन गई हैं जिसमें हमारे आधुनिक समय के बड़े कवि परिगणित किए जाते हैं.
पुस्तक- व्यथा कहे पांचाली
लेखक- उर्वशी अग्रवाल ‘उर्वी’
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन
मूल्य- 750 रुपये
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FIRST PUBLISHED : November 08, 2022, 17:45 IST
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