भारत में हिजाब के समर्थक सुप्रीम कोर्ट में जीत भी जाएं, असल में उनकी हार ही होगी. इसकी वजह यह है कि असली लड़ाई तो राजनीति के मैदान में है.
सुप्रीम कोर्ट जल्द ही कथित मुस्लिम हिजाब के मसले पर अपना फैसला सुना देगा. इसमें शायद दो सप्ताह से ज्यादा नहीं लगेगा, क्योंकि इस मसले की सुनवाई कर रही बेंच के वरिष्ठ जज जस्टिस हेमंत गुप्ता 16 अक्टूबर को रिटायर होने वाले हैं. फैसल क्या होगा इस पर हम कोई कयास नहीं लगा सकते हैं, लेकिन मैं यहां बताने की कोशिश करूंगा कि फैसला जो भी हो, हार याचिकाकर्ताओं की ही होगी.
आप सवाल करेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? अगर अदालत ने उनकी याचिकाएं (वे कई हैं) खारिज कर दीं तो वे कानूनी लड़ाई तो हार ही जाएंगे. यह ठीक है, लेकिन अगर अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुना दिया तो? तब उनकी हार मानी जाएगी?
इसका जवाब यह है कि उनकी हार इसलिए मानी जाएगी कि वे इस गणतंत्र की सर्वोच्च अदालत से उस प्रथा पर मंजूरी की मुहर लगवाने में सफल हो जाएंगे, जो निश्चित तौर पर रूढ़िपंथी है. हम सोच-समझकर प्रतिगामी शब्द का प्रयोग नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह निर्णायक है, जबकि रूढ़िपंथी शब्द वास्तविकता बयान कर्ता है. अदालत इस प्रथा को मंजूरी भी देती है तो भी इसे एक रूढ़िपंथी प्रथा माना जाएगा.
अगर सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाइकोर्ट के फैसले को उलट दिया और यह फैसला सुना दिया कि यह एक जरूरी धार्मिक प्रथा है, तब तो यह दोहरी हार होगी. यहां तक कि कई मुस्लिम महिलाओं के लिए कोई रास्ता नहीं बचेगा क्योंकि वे अपने परिवार के दबाव में रहती हैं. यह उनके लिए विकल्पों का दायरा बढ़ाने की जगह सिकोड़ देगा. अगर इस तरह का फैसला आता है तो यह ईरान के अयातुल्लाओं के लिए भी खुदा की नेमत साबित होगा. वे कहेंगे कि देखो, एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की सबसे ऊंची अदालत भी कह रही है कि किसी भी दौर के लिए हिजाब पहनना एक जरूरी मजहबी रवायत है. तो हमारी इस्लामी रिपब्लिक इस पर कोई उंगली कैसे उठा सकता है? यह तो एक इंकलाबी फैसला है.
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यह सवाल बिलकुल शब्दों का खेल है कि जब ईरान में महिलाएं अपनी आज़ादी के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान करने के लिए तैयार हैं तब भारत में आधुनिक और समझदार माने जाने वाले लोगों में हिजाब के लिए इतना समर्थन क्यों है. भारत में हिजाब के पक्ष में तर्क अपना मतलब साधने वाला ही है और यह खुद को ही खारिज करता है. इसकी वजह यह है कि ईरान में महिलाएं हिजाब न पहनने के अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैं. उन्हें अपनी खुशी से हिजाब पहनने वाली महिलाओं से कोई परेशानी नहीं है. भारत में यह संघर्ष काफी सीमित है.
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मुद्दा यह नहीं है कि मुस्लिम महिलाएं हिजाब पहन सकती हैं या नहीं. बेशक जो चाहे इसे पहन सकती हैं. आज हमारी बहस इस बात को लेकर है, और सुप्रीम कोर्ट के सामने मसला यह है कि स्कूल जाने वाली गैर-बालिग लड़कियों को यह पहनने का अधिकार है या नहीं. कर्नाटक में मुद्दा यह है कि किशोरवय की मुस्लिम लड़कियां अपने स्कूल की पोशाक के ऊपर हिजाब पहनकर स्कूल जा सकती हैं या नहीं.
मुमकिन है कि इस मुद्दे को लेकर जनमत में उलझन इसलिए है कि इससे जुड़ी संस्थाओं को ‘कॉलेज’ कहा जा रहा है. लेकिन ये जूनियर कॉलेज या सीनियर स्कूल हैं जिनमें 11वीं और 12वीं के विद्यार्थी पढ़ते हैं. इनमें शायद ही कोई विद्यार्थी बालिग मिलेगा. भारत में बच्चे प्रायः 17 साल की उम्र तक 12वीं पास कर लेते हैं. यह बात इस मुद्दे को समझने में मददगार हो सकती है.
किसी भी लोकतंत्र में ऐसा कोई दौर नहीं होता जब मतभेद और ध्रुवीकरण न होता हो. लेकिन आज हम जिस कदर बंटे हुए हैं इतने ध्रुवीकृत इतिहास में कभी नहीं थे. यह एक निर्विवाद तथ्य है वरना इस स्थिति से हम क्या निष्कर्ष निकालें कि कोई एक पार्टी लगभग पूरी तरह, एक आस्था से जुड़े वोटरों के वोट से लगातार दो बार सत्ता हासिल करती है? 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के टिकट पर 585 उम्मीदवार जीते और उनमें एक भी मुस्लिम नहीं था.
ध्रुवीकृत मतदाता एकपक्षीय सरकार का गठन करते हैं. तब स्वाभाविक है कि जो लोग छोड़ दिए गए उनके मन में असुरक्षा और बेचैनी पैदा होगी. ऐसे में, हाशिये पर धकेले गए अल्पसंख्यक पीछे मुड़कर अपनी उन जड़ों और बुनियादों को बचाने में जुट जाते जो उन्हें बहुत प्रिय होते हैं. राजनीतिक दृष्टि से यह एक खतरनाक जाल बुन सकता है.
इस जटिलता को समझने के लिए हम 37 साल पीछे लौट कर शाह बानो मामले पर नज़र डालें. वह बिलकुल सीधा-सा मामला था. 73 साल की एक तलाक़शुदा महिला ने अपने गुजारे के लिए खर्च की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन एक व्यक्तिगत मसला एक मजहबी-सियासी मसला बन गया क्योंकि मुस्लिम मुल्लाओं ने इसे अपने निजी क़ानूनों के लिए चुनौती मान लिया, जिनमें ऐसी महिला के लिए गुजारा भत्ते की व्यवस्था नहीं की गई है क्योंकि उसे निकाह के समय ही मेहर का वादा किया जाता है.
यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, जिसकी अध्यक्षता उस समय जस्टिस वाई.वी. चंद्रचूड़ कर रहे थे, जो आज अगले मुख्य न्यायाधीश बनने वाले वाले जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ के पिता हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इंदौर की इस महिला के पक्ष में फैसला सुनाया जिसे शादी के 43 साल बाद तलाक दे दिया गया था. अदालत ने उसे गुजारे के लिए (सांस रोक कर पढ़िए) हर महीने महज 500 रुपये दिए जाने का आदेश दिया. लेकिन इसे मुस्लिम जीवन शैली पर हमला माना गया. कई मुस्लिम समूहों ने जस्टिस चंद्रचूड़ के पुतले जलाए.
उस समय, 1986 में मैंने ‘इंडिया टुडे’ में कवर स्टोरी लिखी थी और इसके लिए मैंने जिन लोगों से बात की थी उनमें जमात-ए-इस्लामी-हिन्द के तत्कालीन अमीर मौलाना अबुल लईस भी थे. वह कवर स्टोरी यहां पढ़ें. उन्होंने कहा था कि भारत के मुसलमानों की लड़ाई अपनी जिंदगी या दौलत के लिए नहीं बल्कि अपनी तहजीब और पहचान के लिए है.
मामला केवल मुल्लाओं-मौलवियों तक सिमटा नहीं रहा. ऊंची शिक्षा पाए, पूर्व राजनयिक और आला बुद्धिजीवी सैयद शहाबुद्दीन तक ने रूढ़िपंथियों का साथ दिया. उन्होंने उक्त फैसले को बौद्धिक और राजनीतिक स्तर पर भी चुनौती दी. उन्होंने बिहार के किशनगंज से उप-चुनाव लड़ा और जीते. एक साल पहले वहां से राजीव गांधी की कांग्रेस का उम्मीदवार 1.3 लाख वोटों से चुनाव जीता था.
मैंने शहाबुद्दीन से भी बात की थी और उन्होंने भी पूरी स्पष्टता से बात की थी कि यह लड़ाई ‘सबको एक रंग में रंगने की अस्वीकार्य प्रक्रिया’ के खिलाफ है. और, यह लड़ाई वे किस तरह लड़ रहे थे? कांग्रेस पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ कर. ‘यह मुस्लिम वोट बैंक टूट चुका है. और बादशाह के सभी घोड़े और बादशाह के सभी आदमी अब वापस नहीं लौटने वाले.’
शहाबुद्दीन ने सही कहा था, कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक शाह बानो प्रकरण के बाद फिर उसके पास वापस नहीं लौटा. इस प्रकरण ने हिंदुओं को उससे नाराज कर दिया और भाजपा की इस मुहिम को ताकत दे दी कि कांग्रेस मुसलमानों का तुष्टीकरण करती है.
बाद में राजीव गांधी ने हिंदुओं को खुश करने में जो भयंकर भूलें की, जिनमें अयोध्या में बाबरी-राममंदिर का ताला खुलवाना शामिल था और जिसे हाल में जयराम रमेश ने भूल के रूप कबूल किया, उसके कारण मुसलमान कांग्रेस से और नाराज हुए, जबकि बहुसंख्यक हिंदू उससे खुश भी नहीं हुए. अंततः, इसका राजनीतिक परिणाम यह हुआ कि नरेंद्र मोदी की भाजपा को लगातार दो बार बहुमत मिल गया. याद रहे कि यह सब 73 साल की एक गरीब, अनपढ़ तलाक़शुदा महिला को महज 500 रुपये महीने का गुजारा खर्च देने के नाम पर हुआ.
ऐसा नहीं है कि आधुनिकता के पक्ष में आवाजें नहीं उठीं. मुस्लिम समुदाय से भी ऐसी कई आवाजें उठीं. राजीव गांधी के मंत्रिमंडल के सदस्य आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कोई छेड़छाड़ न की जाए. मेरी कवर स्टोरी के लिए दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा, ‘मेरा मजहब इस्लाम तरक्कीपसंद और आधुनिकतावादी है.’ अंततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.
उसी कवर स्टोरी में तब उर्दू अखबार ‘नयी दुनिया’ के युवा संपादक, और हाल में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत से वार्ता करने वाली पांच अहम मुस्लिम हस्तियों में शामिल शाहिद सिद्दीक़ी ने कहा था, ‘कस्बों का हरेक मौलाना आज लीडर बन गया है, जिनका लक्ष्य संकुचित है और जिनके स्वार्थ संकीर्ण हैं.’
हैदराबाद की उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाली प्रोफेसर कौसर आज़म ने अफसोस जाहिर किया था कि मुस्लिम समाज में महात्मा गांधी और राजा राममोहन राय सरीखे सुधारक नहीं हैं और निराशाजनक तथ्य यह है कि हमीद दलवई सरीखे आधुनिकतावादी कम उम्र में ही गुजर गए. उस कवर स्टोरी में एक और उदार, आधुनिकतावादी आवाज जेएनयू की प्रतिष्ठित प्रोफेसर जोया हसन की थी.
लेकिन उदार, आधुनिक आवाज़ों को अनसुना कर दिया गया और इसके राजनीतिक नतीजे भी सामने आए. वे नतीजे इतने गंभीर थे कि चार दशक बाद भी हम हिजाब के मामले में वैसे ही विवाद में उलझ गए हैं. ‘चुनने की आज़ादी’ का सवाल संस्कृति, पहचान को बचाने, ‘सबको एक रंग में रंगने की अस्वीकार्य प्रक्रिया’ को रोकने का मुद्दा बन गया है.
बड़ा फर्क यह आया है कि शाह बानो के पक्ष में जो शिक्षित, सम्मानित, आधुनिकतावादी, स्थापित मुस्लिम आवाजें तब उभरी थीं वे आज दूसरे पाले में चली गई हैं. उस समय उन्होंने एक नैतिक तथा बौद्धिक संघर्ष किया था और हार गई थीं. आज वे दूसरी तरफ से लड़ रही हैं, ज़्यादातर इसलिए कि उन्हें नरेंद्र मोदी को लेकर आशंका है. बदकिस्मती से, वे इस बार भी हारने वाली हैं, चाहे अदालत का फैसला जो भी हो.
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