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- 5 Lessons From The Life Of Dadabhai Who Became The Hope Of India Even Before Gandhiji
एक घंटा पहले
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‘चाहे मैं एक हिंदू, एक मुसलमान, एक पारसी, एक ईसाई या किसी अन्य पंथ का हूं, सबसे पहले मैं एक भारतीय हूं। हमारा देश भारत है, हमारी राष्ट्रीयता भारतीय है।’
– दादाभाई नौरोजी, 1893
संडे मोटिवेशनल करिअर फंडा में स्वागत!
ऋषि सुनक से बहुत पहले भारत की शान
आज हम भारतीय मूल के ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री चुने जाने की खुशियां मना रहे हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं आज से 130 साल पहले ‘भारत की आशा’ के नाम से प्रसिद्ध दादा भाई नौरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंचे थे?
है न बहुत बड़ी बात? तो दादाभाई नौरोजी जिंदाबाद! क्या आप तैयार हैं उनसे 5 बड़े सबक सीखने को?
कौन थे दादाभाई नौरोजी
इस तस्वीर में दादाभाई नौरोजी (कुर्सी पर दाएं) एनी बेसेंट और अन्य भारतीय नेताओं के साथ दिख रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी।
1) एक बहुमुखी व्यक्तित्व जो ना केवल एक उदारवादी राष्ट्रवादी, राजनेता, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक और सांसद थे बल्कि वे महात्मा गांधी से पहले भारत के सबसे प्रमुख नेता भी थे।
2) दुनिया भर में जातिवाद और साम्राज्यवाद के विरोधी, भारतीय आर्थिक राष्ट्रवाद के जनक, स्वराज की मांग करने वाले पहले कांग्रेस अध्यक्ष (1906), कांग्रेस के संस्थापकों में से एक।
3) आपका जन्म 1825 में मुंबई के एक गरीब पारसी परिवार में हुआ। जब वे केवल 4 साल के थे उनके पिता नौरोजी पलाजी का निधन हो गया। शादी 11 साल की उम्र में गुलबाई से हुई। आरंभिक शिक्षा एलफिस्टन (मुंबई) में पूरी करने के बाद वहीं गणित एवं प्राकृतिक दर्शन के अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ किया।
4) 1853 में मुंबई एसोसिएशन की स्थापना की। 1866 में लंदन में इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की थी। 1867 में लंदन में ही ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की।
5) दादाभाई 1874 में भारत वापस आए और बड़ौदा राज्य के दीवान पद पर नियुक्त हुए। 1876 में भारत में सर्वप्रथम राष्ट्रीय आय की गणना आप ही ने की थी। इसे राष्ट्रीय आय सिद्धांत कहा जाता है।
6) 18 दिसंबर 1885 के दिन भारतीय राष्ट्रीय संघ का पहला सम्मेलन हुआ था और दादाभाई की सिफारिश पर संघ नाम को हटाकर कांग्रेस कर दिया था।
7) 1892 में वे ब्रिटिश संसद में चुने जाने वाले भारतीय बने।
8) 1906 में हुए कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के भीतर पहली बार स्वराज शब्द का उपयोग किया।
अंग्रेजों की लूट का पहला सिद्धांत – ड्रेन ऑफ वेल्थ थ्योरी
उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की उस मान्यता को चुनौती दी जो साम्राज्यवाद को उपनिवेशी देशों में समृद्धि का कारण मानता था।
1) दादा भाई नौरोजी ने 1867 में ‘धन की निकासी’ सिद्धांत अपनी पुस्तक पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया में किया।
2) उन्होंने कहा कि ब्रिटेन भारत को पूरी तरह से सुखाते जा रहा है।
3) धन की निकासी भारत के धन और अर्थव्यवस्था का वह हिस्सा था जो भारतीयों के लिए उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं था, बल्कि लूट के रूप में ब्रिटेन जा रहा था।
दादाभाई नौरोजी के जीवन से हमारे लिए 5 बड़े सबक
1) रिसर्च/अध्ययन आधारित प्रयास व्यर्थ नहीं जाते: 1855 में पहली बार ब्रिटेन पहुंचे नौरोजी वहां की समृद्धि देख स्तब्ध रह गए। वे समझने की कोशिश करने लगे कि उनका देश इतना गरीब और पिछड़ा क्यों है। यहां से नौरोजी के दो दशक लंबे आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत हुई जिसमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की उस मान्यता को चुनौती दी जो साम्राज्यवाद को उपनिवेशी देशों में समृद्धि का कारण मानता है। उन्होंने अध्ययन और ठोस, सही तथ्यों और जानकारी के माध्यम से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाया। आप और हम भी इस एटीट्यूड को अपना सकते हैं।
2) सच्चा राष्ट्रवाद और राजनीति
होलबोर्न से दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटेन में पहला चुनाव लड़ा, मगर हार गए। सेंट्रल फिंसबरी से जब वह लड़े तो उन्हें खासा समर्थन मिला। स्थानीय ट्रेड यूनियन्स ने उनके समर्थन में तब ऐसे पोस्टर लगाए थे।
नौरोजी भारत की गरीबी के कारण की बात ब्रिटिश संसद में ले जाना चाहते थे। उनका मानना था कि भारतीयों को भी सक्रिय राजनीति में रहकर राजनीतिक परिवर्तन की मांग करनी चाहिए। 1886 में उन्होंने अपना पहला अभियान होलबोर्न से लॉन्च किया. वो बुरी तरह से पराजित हो गए। अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन में प्रगतिशील आंदोलनों के बीच गठबंधन किया। नौरोजी ब्रिटेन के एक बड़े वर्ग को समझाने कामयाब हो गए कि भारत को तत्काल सुधारों की आवश्यकता थी, वैसे ही जिस तरह महिलाओं को वोट के अधिकार की, या कामगारों को आठ घंटे काम करने के नियम की। हम ये सीखें कि विदेश में भी, सबसे कठिन लड़ाई को सही हितों से दोस्ती कर, साधा जा सकता है।
3) तेज विरोध के बाद भी लक्ष्य के प्रति समर्पण
दादाभाई नौरोजी के चुनाव जीतने के बाद यह कार्टून ब्रिटेन में खासा चर्चित हुआ था। ब्रिटिश पीएम सैलिसबरी ने उन्हें ‘काला’ कहकर मजाक उड़ाया था। कार्टून में दादाभाई को ओथैलो दिखाया गया था। शेक्सपियर के इस नाटक में यह किरदार ब्लैक था।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री सैलिसबरी ने उन्हें ‘काला आदमी’ कहा, जो अंग्रेजों के वोट का हकदार नहीं था! लेकिन नौरोजी उतने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब हो गए जितने वोटों की उन्हें जरूरत थी, और 1892 में लंदन के सेंट्रल फिंसबरी से नौरोजी ने सिर्फ पांच वोटों से चुनाव जीता। इसके बाद उन्हें दादाभाई नैरो मेजोरिटी भी कहा जाने लगा। दादाभाई पर खूब कीचड़ उछाला गया। सांसद दादाभाई ने बिना समय गंवाए संसद में अपनी बात रखी – उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन एक ‘दुष्ट’ ताकत है जिसने अपने साथी भारतीयों को गुलाम जैसी स्थिति में रखा है। हमारे लिए सबक ये है कि सच्ची बहादुरी दुश्मन के किले में घुसकर दिखाई जाती है, लम्बी हांकने से नहीं।
4) साहसी और प्रगतिशील विचारों के समाज सुधारक: स्वराज की मांग एक साहसिक मांग थी, क्योंकि ब्रिटेन अपने शाही चरम पर था और अधिकांश भारतीय स्वराज जैसे विचारों पर बात करने के लिए बहुत गरीब और पिछड़े। दादाभाई को उनके साथी पारसियों द्वारा पोषित सभी प्रकार के अंधविश्वासों और प्रथाओं को देखने से पीड़ा हुई। 1851 में, उन्होंने पारसी धर्म को उसकी मूल शुद्धता और सादगी को बहाल करने के लिए रहनुमाई मज़्दायस्ने सभा (अभी भी मुंबई में चालू) नामक एक समाज की स्थापना की। कुछ पारसी आलोचकों ने निंदा की, लेकिन दादाभाई के वाजिब तर्कों से अंततः अज्ञानता और अंधविश्वास के अंधेरा दूर हुआ। 1840 के दशक में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला जिसके कारण रूढ़िवादी पुरुषों के विरोध का सामना करना पड़ा। पांच साल के अंदर ही बॉम्बे का लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा नजर आने लगा। सबक ये है कि रूढ़िवादी ताकतों से लड़ना आवश्यक है।
यह तस्वीर 1885 के पहले कांग्रेस अधिवेशन की है। इसमें दादाभाई नौरोजी बीच में बैठे हैं। वह कांग्रेस के दूसरे अध्यक्ष भी बने थे।
5) ईमानदारी: ब्रिटिश एजेंट के साथ विभिन्न मुद्दों से निपटने में बड़ौदा के महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ को सलाह देने और सहायता करने के बदले में, महाराजा ने दादाभाई को बड़ौदा राज्य के दीवान (प्रधान मंत्री) के पद की पेशकश की। बड़ौदा के दीवान के रूप में, उन्होंने कई सुधारों की शुरुआत की लेकिन बाद में इस्तीफा दे दिया और 1875 में बड़ौदा छोड़ दिया क्योंकि वे भ्रष्टाचार से ग्रस्त राज्य के कमजोर महाराजा की सेवा जारी रखने के लिए बहुत ईमानदार और सीधे थे। सबक ये है कि नैतिक बल भीतर से होता है और स्वार्थ से ऊपर।
दादाभाई नौरोजी की मृत्यु 1917 में हो गई किन्तु वे अपने आशावाद और कभी पीछे नहीं हटने वाली प्रवृत्ति के साथ आज भी जीवित हैं।
आज का संडे मोटिवेशनल करिअर फंडा है कि हमारे जीवन में हम स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं के कार्यों से खुद का मूल्यांकन कर सकते हैं, और आशावाद पा सकते हैं।
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