सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में दिल्ली के छावला इलाके में 19 साल की युवती के साथ गैंग रेप और उसकी हत्या के मामले में 3 दोषियों को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ स्पष्ट सबूत नहीं पेश कर सका.
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सौ अपराधी भले छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. कई मौकों पर की गई न्यायाधीशों की यह टिप्पणी उन पीड़ित पक्षों को कचोटती है, जिनके अपने के खिलाफ अपराध तो हुआ पर न्याय नहीं मिला. कुछ ऐसा ही दिल्ली के छावला इलाके में 2012 में 19 साल की लड़की से सामूहिक दुष्कर्म-हत्या के मामले में हुआ है. इस पर 7 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है. पुलिस और अभियोजन पक्ष की कोताहियों के चलते पीड़ित पक्ष को इंसाफ नहीं मिला और सर्वोच्च अदालत ने संदेह का लाभ देते हुए फांसी की सजा पाने वाले 3 दोषियों को बरी करने का निर्णय दिया. जबकि हाई कोर्ट और ट्रायल कोर्ट ने दोषियों को मृत्युदंड दिया था.
नाराज पीड़ित ने सवाल उठाए कि आखिर सुप्रीम कोर्ट से पहले की अदालतों को पुलिस और अभियोजन पक्ष की नाकामी क्यों नहीं दिखी? आखिर देश की सबसे बड़ी अदालत ने दुर्लभ से दुर्लभतम मामले के फैसले को पलट क्यों दिया? पीड़ित पक्ष कहां गलत था, उसे सर्वोच्च अदालत ने इंसाफ क्यों नहीं दिया? लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि कई मामलों में सुप्रीम अदालत ने रस्सी का सांप बनाकर फंसाए गए लोगों को फांसी के फंदे और जेल की सलाखों में जाने से बचाया है. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर अदालत ने संदेह के आधार पर 7 नवंबर को दिए गए फैसले में तीन दोषियों को बरी क्यों कर दिया?
- चीफ जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस रविंद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने फैसले में कहा कि इस मामले में अभियोजन आरोपियों के खिलाफ अहम साक्ष्यों को साबित करने में नाकाम रहा. जबकि ट्रायल कोर्ट में आरोपियों को फेयर ट्रायल (सही तरीके से पक्ष रखने संबंधी) का अवसर नहीं दिया.
- पूरे मामले में आरोपियों को नैतिक रूप से दोषी मानकर संदेह के आधार पर सजा सुनाई गई, जो न्यायिक सिद्धांत के हिसाब से गलत है. सिर्फ संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
- हर केस का निर्धारण अदालतों को उनके समक्ष पेश सबूतों पर गौर करने के बाद मेरिट के आधार पर करना चाहिए. यह कार्य भावनाओं में बहकर या किसी बाहरी नैतिक दबाव में नहीं करना चाहिए.
- ट्रायल कोर्ट के समक्ष अभियोजन डीएनए प्रोफाइलिंग, वैज्ञानिक सबूत, वारदात में इस्तेमाल कार की पहचान, आरोपियों की पहचान, उनके सैंपल, कॉल डिटेल रिकॉर्ड समेत कई अन्य सबूतों से आरोपियों का संबंध स्थापित करने में नाकाम रहा.
- आरोपियों को पकड़ा गया. 14 और 16 फरवरी को उनके सैंपल डीएनए टेस्ट के लिए गए. अगले 11 दिनों तक वो सैंपल पुलिस थाने के मालखाने में पड़े रहे. बिना किसी सुरक्षा के 27 फरवरी को वो सैंपल सीएफएसएल भेजे गए. यह घोर लापरवाही जघन्य मामले में जांच के दौरान दिल्ली पुलिस ने की.
- अदालतें सबूतों के आधार पर फैसला लेती हैं ना कि भावनाओं में बहकर. ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट पर यह सख्त टिप्पणी पुलिस जांच की कोताहियों की अनदेखी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में की.
- मामले में आरोपियों की पहचान के लिए कोई परेड नहीं कराई गई. ट्रायल कोर्ट ने उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया. ट्रायल कोर्ट ने अपने विवेक से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत सच्चाई की तह तक पहुंचने के लिए आवश्यक कार्यवाही कर सकता था. ऐसा क्यों नहीं किया गया?
- कुल 49 गवाहों में से 10 गवाहों से जिरह की अनुमति बचाव पक्ष को नहीं दी गई. इतना ही नहीं ट्रायल जज ने गवाहों से एक सवाल तक नहीं किया, ताकि सच सामने लाया जा सके. यह दर्शाता है कि आरोपियों को निष्पक्ष ट्रायल का मौका नहीं मिला.
- दिल्ली हाई कोर्ट ने भी पुलिस जांच की खामियों और ट्रायल कोर्ट द्वारा नजरअंदाज किए गए अहम तथ्य को अनदेखी कर दिया.
- अगर आरोपियों ने इस जघन्य वारदात को अंजाम दिया होगा तो वे बिना सजा के छूट जाएंगे. उनके बरी होने से समाज मे एक तरह का गुस्सा पनपेगा और पीड़ित परिवार को भी बेहद दुख पहुंचेगा. इसके बावजूद कानून किसी भी कोर्ट को यह अनुमति नहीं देता कि महज संदेह के आधार पर किसी को नैतिक रूप से दोषी ठहराते हुए अपना फैसला दे, क्योंकि महज शक की बिनाह पर किसी को दोषी करार देना गलत है.
- कोई भी दोषसिद्धी केवल फैसले के विरोध, निंदा की आशंका के आधार पर नहीं होनी चाहिए. किसी भी तरह के बाहरी नैतिकता या दबाव से प्रभावित हुए बिना न्यायपालिका को हर मामले का फैसला कानून के मुताबिक कड़ाई से उनके अपने गुण-दोष के आधार पर करना चाहिए.
- अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ अपराध से जुड़े ठोस साक्ष्य पेश करने में असफल रहा है. ऐसे में अदालत के पास जघन्य अपराध से जुड़े इस मामले में आरोपियों को बरी करने के सिवा और कोई विकल्प शेष नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने जघन्य घटना को नहीं नकारा
सर्वोच्च अदालत ने फैसले में कहा कि भले ही आरोपियों का दोष साबित नहीं हुआ हो, लेकिन इस जघन्य घटना को नकारा नहीं जा सकता. इसलिए पीड़ित परिवार को मुआवजा दिया जाए. यह मुआवजा वैदिक सेवा प्राधिकरण की ओर से दिया जाए. साथ ही कोर्ट ने मामले में ट्रायल कोर्ट से जज को नसीहत भी दी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें किसी मामले में चुपचाप नहीं बैठना चाहिए, बल्कि एक्टिव रहकर गवाहों व अन्य से सवाल कर सच सामने लाने का प्रयास करना चाहिए.
अब पीड़ित को कैसे मिले न्याय
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संदेह के आधार पर दोषियों को बरी कर दिया. लेकिन सवाल ये है कि आखिर किन दोषियों ने 19 साल की लड़की के साथ जघन्य अपराध को अंजाम दिया. यह भी ठीक है कि संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं करार दिया जा सकता, लेकिन व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? अदालत ऐसे पंगु जांच करने वालों को इस जघन्य अपराध के बाद सिस्टम में कैसे रहने दे सकती है? दोबारा से जांच कराकर पीड़ित पक्ष को इंसाफ की दहलीज तक पहुंचाने की जिम्मेदारी किस की है? आखिर दुष्कर्म के बाद मौत के घाट उतारी गई पीड़िता के माता-पिता कहां जाएं?
तमाम ऐसे सवाल हैं, जो देश के हरेक कोने से उठ रहे हैं. लेकिन जवाब की उम्मीद कहीं से नहीं है, क्योंकि अदालत ने पीड़ित पक्ष को बस मुआवजे का हकदार समझा. न्याय का नहीं.
ये है घटनाक्रम
अभियोजन पक्ष के अनुसार गुड़गांव के साइबर सिटी इलाके में काम करने वाली पीड़िता उत्तराखंड की थी. वह 9 फरवरी 2012 की रात को अपने ऑफिस से घर लौट रही थी. वह दिल्ली के छावला इलाके में रहती थी. घर पहुंचने से पहले ही तीन लोगों ने कार से उसका अपहरण कर लिया. लड़की घर नहीं लौटी तो उसके माता-पिता ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. 14 फरवरी को उसका शव हरियाणा के रेवाड़ी में मिला. उसके शव पर चोट के कई निशान थे. दिल्ली पुलिस ने मौत की सजा कम करने की अर्जी का विरोध किया था. पुलिस की ओर से एएसजी ऐश्वर्या भाटी ने कहा था कि यह अपराध सिर्फ पीड़िता के साथ नहीं बल्कि पूरे समाज से हुआ है. दोषियों को कोई रियायत नहीं दी जा सकती. उन्होंने न केवल युवती से सामूहिक बलात्कार किया बल्कि मृत शरीर का भी अपमान किया.
दुष्कर्म के बाद भयंकर यातनाएं दीं
पोस्टमार्टम और अटॉप्सी में पता चला था कि युवती को मौत से पहले दर्दनाक यातनाएं दी गईं. उसे कार में मौजूद औजारों से मारा गया. शरीर को गर्म लोहे व सिगरेट से दागा गया. चेहरे और आंख में तेजाब डाला गया. दुष्कर्म की भी पुष्टि हुई. पुलिस ने चश्मदीदों के बयानों के आधार पर राहुल को गिरफ्तार किया. राहुल ने पूछताछ में गुनाह कबूल किया और वारदात में शामिल रवि व विनोद की जानकारी पुलिस को दी. वर्ष 2014 में ट्रायल कोर्ट ने इस अपराध को दुर्लभतम मानते हुए तीनों आरोपियों को मौत की सजा सुनाई. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी सजा बरकरार रखी.
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