जिस्म बेंचकर अनमनी हो
गालियां खुद को दे चली,
कोसती रही मां को और
कोख जिसमे वह पली।
आदमी हर रोज एक नया
हिस्से में जो पड़ता रहा,
बातें हमेशा रात भर वो
एक जैसी ही करता रहा।
मूर्ति कान्हा की लिये
हर बात भी कहती रही,
तन लुटाया रात दिन
जज्बात सब सहती रही।
कोई गिला शिकवा नहीं
अब कोई फतवा नहीं,
तन बहुत सजता रहा
मन पर अब कपड़ा नहीं।
धर्म सब उसके लिये
तेजाब की बोतल हुये,
अंग उसके ही जले
जब कभी ढक्कन खुले।
हर तपस्या में तपी
हर रात जीवन की जगी,
भोर की पहली किरण ले
हर सुबह उससे ही भगी।
-दिनेश चौहान
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