राकेश सोहम
जब उठना ही है तो फिर गिरा क्यों जाए? कुछ दिनों पहले दफ्तर में काम करते हुए एक परिचित गिर पड़े। शाम को छुट्टी होने का समय था, लेकिन लोगों की नजर पड़ी कि वे अपने कक्ष के फर्श पर बेहोश पड़े हैं। उनकी कुर्सी भी लुढ़की पड़ी थी! जाहिर है, वहां मौजूद लोगों को घोर आश्चर्य हुआ, क्योंकि सबको यही लग रहा था कि वे इतने बीमार तो नहीं थे कि अचानक ऐसी हालत हो जाती। आसपास बैठने के नाते उनके सहकर्मियों को उनके स्वास्थ्य के बारे में मोटा-मोटी जानकारी थी।
बहरहाल, लोग फौरन दौड़े और उन्हें होश में लाने की कोशिश की गई। चेहरे पर पानी छिड़का गया तब होश आया। सहकर्मी उन्हें अस्पताल ले जाना चाहते थे, लेकिन होश में आने के बाद उन्होंने मना कर दिया। उसने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस वे कई दिनों से ठीक से सोए नहीं हैं। नींद नहीं आती। बहुत प्रयास करने के बाद भी रात भर जागते रहते हैं। शायद वे अनिद्रा के शिकार थे।
दरअसल, इन दिनों बहुत सारे लोग अनिद्रा की बीमारी से ग्रस्त हैं। इस बीमारी ने महानगरों को अपनी चपेट में ले रखा है। अब तो गांवों में भी यह बीमारी पैर पसार रही है। चिकित्सक मानते हैं कि आधुनिक जीवन शैली इसका मूल कारण है। असमय खान-पान, देर-सवेर बिस्तर पर जाना, नशे का सेवन, जीविकोपार्जन के लिए आधारभूत आवश्यकता से अधिक कमाने की होड़ और व्यर्थ की चिंताएं शहरी जीवन शैली में रच-बस गई हैं।
ये सब बातें अलग-अलग होते हुए एक-दूसरे में गुथी हुर्इं हैं। इसलिए इन सबसे बचने का कोई उपाय भी नजर नहीं आता। भलाई इसी में है कि संकल्पित होकर आवश्यकताओं को कम किया जाए। बेतरतीब दिनचर्या में समुचित सुधार लाने की कोशिश की जानी चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण भी दूसरा सबसे बड़ा कारण है। शहरी हवाओं में पेट्रोल-डीजल की गंध और कीचड़ से बजबजाते नालों की बदबू तैरती रहती है।
महानगरों में रोजमर्रा के उपयोग से एकत्रित गीले और सूखे कचरे को आबादी से दूर ‘डंपिंग-एरिया’ में संग्रहित किया जाता है। न केवल महानगर, बल्कि छोटे-छोटे शहरों का भी तेजी से विकास हो रहा है। इसकी वजह से डंपिंग-क्षेत्र के आसपास रिहाइशी कालोनियां बस गर्इं हैं। इन कालोनियों में बदबूदार हवा की समस्या अधिक है। बढ़ते वाहनों के उपयोग से भी वायु बुरी तरह प्रदूषित हो रही है।
इसके अलावा, ध्वनि विस्तारक यंत्रों और बिजली के उपकरणों के शोर को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इनसे वातावरण में एक अजीब-सी झनझनाहट बनी रहती है। इस झनझनाहट का अंदाजा उस समय सहज ही लगाया जा सकता है, जब क्षेत्र की बिजली कुछ देर के लिए गुल हो जाती है। एक सुकून भरा सन्नाटा हमारे चारों ओर पसर जाता है। पक्षियों की आवाजें सुनाई पड़ने लगती हैं। हवा के बहने की सरसराहट महसूस होने लगती है। यहां तक कि बहुत थका हुआ व्यक्ति पास बैठा हो तो उसकी धड़कनें तक सुनाई दे जाती हैं। बिजली-उपकरणों के इस्तेमाल में मितव्ययिता के जैसी समझदारी होनी चाहिए।
बहरहाल, अनिद्रा से परेशान होकर उस परिचित ने डाक्टर को दिखाने का विचार किया। उनसे बात करने और कुछ जांच उपक्रम निपटाने के बाद डाक्टर ने समझाया कि वे चिंता न करें, क्योंकि उन्हें कोई बीमारी नहीं है। जहां तक नींद नहीं आने की बात है तो उन्हें ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए कि नींद नहीं आ रही है। ऐसा सोचने से नींद और दूर भाग जाती है। हम बार-बार करवट बदलते हैं और अपने आप पर झल्लाते हैं। अपने आप को नींद के सामने असहाय-सा महसूस करते हैं। जबकि सच यह है कि नींद के लिए तो बस नींद में गिर जाना होता है।
डाक्टर की बात सुन कर परिचित चौंके। आखिर नींद में गिरना कैसे संभव है! यह सही है कि जब कोई किसी से अचानक टकरा कर गिर जाता है, तब लोग मजाक में ताना कसते हैं- ‘भैया… नींद में हो क्या? देख कर चलो!’ आश्चर्य मिश्रित चुप्पी देख कर डाक्टर ने मुस्कुराते हुए समझाया, ‘देखिए, जैसे प्यार करने के बारे में आदमी को सोचना नहीं पड़ता, बस वह प्यार में पड़ जाता है। ऐसा मानिए कि वह प्यार में गिर जाता है। इसलिए सोचिए मत, बस नींद में गिर जाएं। खुश रहें।’ डाक्टर की चिंतनपरक बातों से अच्छा लगा। परिचित आश्वस्त लौट गए।
तर्क का चिंतन यह कहता है कि जो गिरते हैं, वही उठने का साहस जुटा सकते हैं। बिना गिरे उठना संभव नहीं। उठने के लिए ‘गिरना’ पहली और जरूरी शर्त है। इसलिए जो उठना चाहते हैं, उन्हें पहले गिरने का अभ्यास करना चाहिए। बहरहाल, गिरने का अपना ही मजा है। ‘बरेली के बाजार में झुमका’ गिर जाए तो मामला ‘सैंया’ तक पहुंच जाता है। भरे बाजार में खूबसूरत युवती गिर जाए तो मोहल्ले के गुंडे भी सज्जनता दिखाते हुए उसे उठाने दौड़ जाते हैं। हालांकि गिरना प्रकृति का नियम भी है।
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