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- Nanditesh Nilay’s Column Gandhiji Said That The World Has Enough For Everyone’s Needs, But Not For Greed.
15 मिनट पहले
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नंदितेश निलय बीइंग गुड किताब के लेखक और वक्ता
2023 के बजट में जो बाइडेन से एक नए न्यूनतम कर का प्रस्ताव करने की उम्मीद की गई है, जो बड़े पैमाने पर अरबपतियों को टारगेट करेगा। बजट एक अरबपति न्यूनतम आयकर लेकर आएगा, जो 100 मिलियन डॉलर से अधिक नेटवर्थ वाले परिवारों पर 20 प्रतिशत न्यूनतम कर दर का आकलन करेगा। माना गया है कि अमेरिका में आधे से अधिक राजस्व एक अरब से अधिक नेटवर्थ वाले लोगों से आ सकता है।
चलिए अब हम 1970 के अमेरिका की ओर चलते हैं, जो सामाजिक अशांति से तबाह था। युद्ध-विरोधी आंदोलन जोरों पर था। अधिकतर अमेरिकियों का वियतनाम में सफलता की संभावनाओं से मोहभंग हो रहा था। नागरिक अधिकार आंदोलन सफलता की ओर बढ़ रहा था और समाज को नस्ली आधार पर अलग करना अधिकांश अमेरिकियों को स्वीकार्य नहीं था।
कई अमेरिकियों को यह नागवार लगने लगा था कि कई नागरिक दुनिया की सबसे उत्पादक अर्थव्यवस्था में भी गरीबी में रहते हैं। मतदाताओं का बड़ा वर्ग गरीबों के लिए अधिक सुविधा वाले आय के पुनर्वितरण की मांग कर रहा था। अमेरिका आर्थिक रूप से समान समाज की ओर बढ़ रहा था।
तब अमेरिकी चिंतक रॉल्स के वितरणात्मक न्याय के प्रसिद्ध सिद्धांत द थ्योरी ऑफ जस्टिस की चर्चा शुरू हुई। इसकी अवधारणा यह थी कि असमानताओं को तभी उचित ठहराया जा सकता है, जब वे अवसरों की निष्पक्ष समानता की शर्तों के तहत सभी के लिए खुले अवसरों से जुड़े हों और कम से कम सुविधा वाले लोगों के बड़े लाभ के लिए हों।
अमेरिका में 1970 से पहले आर्थिक असमानता लगभग 30 वर्षों के लिए अपेक्षाकृत स्थिर थी, लेकिन 1970 के बाद से और विशेष रूप से 1980 के दशक की शुरुआत तक लगातार बढ़ने लगी थी। रॉल्स का सिद्धांत कहता था कि अगर कोई काबिलियत से पूंजी कमाता है तो यह उसका अधिकार है, लेकिन यही पूंजी समाज में असमानता को भी जन्म देती है। रॉल्स असमानता के विरोध में नहीं हैं, लेकिन वे उन लोगों की आवाज बनते हैं, जो असमानता से बौने रह गए। उनका कहना था आर्थिक असमानता सही है, अगर वो अंतिम व्यक्ति को आर्थिक रूप से सबल बनाती हो।
एक तरफ एक बड़ी जनसंख्या सिर्फ पांच हजार महीना कमाती है तो कोई एक घंटे या मिनट में लाखों कमा लेते हैं। यह खाई सिर्फ कानून से नहीं भरेगी, बल्कि किसी न किसी मोड़ पर लालच को भी विराम देना होगा।
हमारे देश में भी कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135(1) के अंतर्गत आने वाली कंपनियों के लिए सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पान्सिबिलिटी) नीति के अनुसार आगामी तीन वर्षों में अपने शुद्ध लाभ का 2% खर्च करना अनिवार्य किया गया है। लेकिन क्या हर पूंजीपति हिंदुस्तान के अंतिम व्यक्ति को ऊंचा उठाने में मदद करने की अनिवार्यता के दायरे में स्वयं को ला सकता है?
स्वेच्छा से! एडेलगिव हुरुन द्वारा 2022 के लिए इंडिया फिलंथ्रोपी की सूची तैयार की गई, जिसमें शिव नाडार 1,161 करोड़ रुपए के वार्षिक दान के साथ प्रथम स्थान पर रहे। अजीम प्रेमजी 484 करोड़ रुपए दूसरे स्थान पर आए। तीसरे और चौथे स्थान पर मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला रहे।
टाटा संस की 66% इक्विटी टाटा ट्रस्ट्स के पास है और लाभांश ट्रस्ट के परोपकारी कार्यों का समर्थन करने के लिए ही होते हैं। टाटा समूह ने भारत की सबसे जरूरी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने मिशन पर हमेशा से फोकस रखा। लेकिन हमें भी अमेरिकी कानून की तरह कुछ ऐसे फैसले लेने चाहिए, जो भारत जैसे देश की गरीबी को दूर करने के लिए धनी वर्ग में कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी पैदा करे।
एक इंसान को अपनी जरूरतों से ज्यादा पैसा चाहिए ही क्यों? पैसा जरूरत है, शायद पूंजी भी। पर लालच पागलपन है। नहीं तो अनाज कोल्ड स्टोरेज में क्यों सड़ जाता? 200 मिलियन से ज्यादा कोवेक्सिन डोज एक्सपायर क्यों होने जा रहे होते! क्या हम इस पर सोचेंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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