नीरजा माधव : कई बार प्रत्यक्ष आंतरिक संकट मूर्तिमान रूप में दिखाई नहीं पड़ते, किंतु असंतोष, विरोध, भ्रष्टाचार, कदाचार आदि के रूप में समाज में व्याप्त रहते हैं और समयानुसार अपना वीभत्स रूप राष्ट्र के संकट के रूप में दिखाते रहते हैं। इसलिए बौद्धिक या भावनात्मक रूप में विद्यमान इन राष्ट्रीय संकटों का निदान शासन द्वारा होते रहना चाहिए। इस दिशा में शिक्षा और संस्कारों की भी बहुत भूमिका होती है।
भारत पर अतीत में जितने भी विदेशी आक्रमण हुए, उनका यदि ठीक से विश्लेषण किया जाए तो समझ में आता है कि हमारी आपसी कलह से छिन्न-भिन्न और जर्जर जीवन ही उन आक्रमणों का आधार बना। इन आक्रमणों के दौरान भारतीय जनता का जो इस्लामीकरण हुआ, वही विभाजन का आधार बना। आज इस्लाम के साथ ईसाइयत का जिन इरादों के साथ प्रसार हो रहा है, वह भी देश के लिए खतरा बन रहा है। छल-कपट से कराया जा रहा मतांतरण एक बहुत बड़ा संकट है राष्ट्र की सुरक्षा के लिए।
पंथ परिवर्तन मात्र से किसी की मानसिकता या हृदय परिवर्तन नहीं हो सकता, परंतु भारत में मतांतरण जिस इरादे से हो रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि यह एक अनुचित और अवांछनीय गतिविधि है। आम तौर पर पंथ परिवर्तन गंभीर दार्शनिक या आध्यात्मिक चिंतन का परिणाम नहीं होता, बल्कि वह गरीबी, अज्ञानता और निरक्षरता के अनुचित लाभ का नतीजा होता है। इसका उदाहरण पग-पग पर दिखाई पड़ता है। आदिवासी क्षेत्रों में कुछ समूहों की निर्धनता, निरक्षरता का लाभ उठाते हुए उनका मतांतरण चोरी चुपके करा दिया जाता है। ऐसे लोग गले में उस पंथ का प्रतीक चिन्ह लटकाए, परंतु हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों आदि को यथावत मनाते हुए मिल जाएंगे। लोभवश मतांतरण करने से परंपराएं और संस्कार नहीं समाप्त किए जा सकते, लेकिन समय के साथ उन पर असर पड़ता है और विशेष रूप से मतांतरित परिवारों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोगों में। किसी के भोलेपन और अज्ञानता का अनुचित लाभ उठाकर पंथ परिवर्तन करने वालों पर कठोर प्रतिबंध लगना ही चाहिए।
मतांतरण की कुचेष्टाओं के अंकुर इसलिए नष्ट नहीं हो पाते, क्योंकि हमारे अधिकांश दलों को केवल चुनाव से मतलब होता है। इसके लिए वे जनता के उन वर्गों का तुष्टीकरण करते हैं, जिनके पास ठोस संख्या बल होता है अथवा जो वोट बैंक के रूप में जाने जाते हैं। मतांतरण के जरिये भारतीय संस्कृति पर भी आघात किया जाता है और वह भी सेवा, परोपकार एवं मानव उद्धार के खोखले नारों के पीछे। यह किसी से छिपा नहीं कि जिस तरह इस्लामी समूह अपने तमाम दावा संगठनों के जरिये गुपचुप रूप से मतांतरण अभियान चलाते हैं, उसी तरह ईसाई मिशनरियां भी।
ईसाई संगठन किस तरह मतांतरण अभियान चला रहे हैं, इसका एक अनुभव मेरे पास है। जब मैं दूरदर्शन केंद्र, वाराणसी में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में कार्यरत थी तब एक दिन शहर के तत्कालीन बिशप मेरे आफिस में लोक गीतों की पांडुलिपि के साथ मुझसे मिलने आए और आग्रह किया कि इन लोकगीतों को पुस्तक रूप में छपवा कर ग्रामीणों के बीच नि:शुल्क वितरित कराएं, क्योंकि प्रायः देखा जा रहा है कि गांव में भी लोकगीतों के स्थान पर फिल्मी गीतों का प्रचलन बढ़ रहा है। लोकगीतों और संस्कृति की सुरक्षा के लिए इनका संरक्षण आवश्यक है। मैं बिशप की भारतीय संस्कृति की चिंता का गंभीरतापूर्वक नापतौल करते हुए पांडुलिपि देखने लगी। विवाह गीतों से लेकर सोहर, नकटा, फाग, चहका आदि सभी भारतीय लोक गीतों का संग्रह उस पांडुलिपि में था। लगभग सभी लोकगीत हमारे देवी-देवताओं और महान पुरुषों से जुड़ते हैं। बिशप ने इन लोकगीतों का संग्रह करके बड़ी चतुराई से हमारे सभी देवी, देवताओं और मिथकीय चरित्रों के नाम के स्थान पर प्रभु, यीशु, मरियम आदि जोड़ दिया था और उसे ही छपवा कर अशिक्षित, गरीब और भोली-भाली जनता के बीच नि:शुल्क वितरित करने वाले थे। मैंने कठोरता पूर्वक प्रतिवाद किया। कुछ लज्जित से होकर बिशप वहां से चले गए थे।
ईसाई संगठनों की ओर से कराया जाने वाला मतांतरण भारत में एक ऐसा संकट है, जो ऊपर से देखने पर तो प्रेम तथा सहानुभूति से परिपूर्ण प्रतीत होता है, परंतु भीतर ही भीतर ऐसे संगठन सनातन धर्म के नामों के बैनर के नीचे ईसाइयत के प्रचार प्रसार के प्रतिष्ठान खोले हुए हैं। उनका उद्देश्य मतांतरण द्वारा राष्ट्र की नींव को कमजोर करना है। मतांतरण के माध्यस से समाज की परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों को नष्ट करने का भी काम किया जा रहा है।
इस्लाम और ईसाइयत के प्रसार के नाम पर भारतीयता को कमतर दिखाने का जो काम किया जा रहा है, उससे समाज की प्राचीन आस्थाएं तो भंग होती ही हैं, राष्ट्रीयता की भावना पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि जहां आस्थाएं भंग होती हैं, वहां विजातीय सोच को फैलने का अवसर मिलता है। जीने के लिए मनुष्य को केवल रोटी की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि धार्मिक आस्था और निष्ठा की भी आवश्यकता होती है।
भारत में हिंदू आस्था और विश्वास की जड़ें कहीं गहरी रही हैं। हमारी आस्था का उन्मूलन करने वाला कोई भी कृत्य राष्ट्र जीवन को दुष्प्रभावित करता है। कनाडा में तो ईसाई मिशनरियों ने वहां के मूल निवासियों, जिन्हें “रेड इंडियंस” या “नेटिव” कहते हैं, के पूरे अस्तित्व को ही लगभग समाप्त कर दिया। भारत के मूल स्वभाव और उसकी प्रकृति बदलने के इरादे से जो मतांतरण हो रहा है, वह राष्ट्र जीवन के लिए दीमक की तरह है। इसके प्रति सरकारों को भी सजग होना होगा और समाज को भी।
(लेखिका साहित्यकार हैं)
Edited By: Praveen Prasad Singh
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