धर्मकीर्ति जोशी। अब इसमें कोई संदेह शेष नहीं दिखता कि वैश्विक अर्थव्यवस्था आर्थिक सुस्ती की चपेट में है। इसका बड़ा कारण विकसित विश्व विशेषकर अमेरिका और यूरोपीय देशों में आर्थिक मंदी की आहट सुनाई देना है। चूंकि आज पूरी दुनिया आपस में जुड़ी हुई है, इसलिए किसी एक हिस्से का अछूता रहना संभव नहीं दिखता। इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। अमेरिका और यूरोप भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के बड़े खरीदार हैं और भारत के विदेशी व्यापार में करीब 33 प्रतिशत हिस्सेदारी इनकी है तो वहां मांग में आ रही कमी का प्रभाव हमारे निर्यात पर दिख रहा है। ताजा आंकड़ों में निर्यात में आई 16.7 प्रतिशत की कमी इसकी पुष्टि करती है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रमुख संचालक विकसित देश केवल मंदी ही नहीं, बल्कि महंगाई की विकराल होती चुनौती का भी सामना कर रहे हैं। महंगाई पर नियंत्रण के लिए वहां केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी करते जा रहे हैं और इसके चलते बनी अपरिहार्य स्थिति में भारत जैसे देशों में भी यही रणनीति अपनाई जा रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी मई से ब्याज दरों में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू किया है। अमूमन केंद्रीय बैंक की ऐसी कवायद का नौ से 12 महीनों में असर देखने को मिलता है। जाहिर है कि कर्ज महंगा होने से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होंगी।
इन सभी पहलुओं को देखते हुए देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर में कटौती के अनुमान व्यक्त किए जाने लगे हैं। विभिन्न संकेतकों को देखते हुए हमने (क्रिसिल) भी हाल में चालू वित्त वर्ष के लिए आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर सात प्रतिशत कर दिया है, जो पहले 7.3 प्रतिशत था। इस साल तो स्थिति उतनी बुरी नहीं दिखती है, लेकिन अगले साल के हालात और चिंताजनक नजर आते हैं, जिनमें वृद्धि दर के अनुमान को पूर्व के 6.5 प्रतिशत से घटाकर छह प्रतिशत करना पड़ा। यानी यह साल किसी तरह ठीक-ठाक गुजर जाएगा, लेकिन अगले साल बड़ी चुनौती से सामना होना तय है।
महंगाई भारत के लिए भी बड़ा सिरदर्द बनी हुई है। रिजर्व बैंक की मौद्रिक सख्ती से लेकर सरकार द्वारा आपूर्ति शृंखला के मोर्चे पर उठाए जा रहे कदम भी महंगाई की गति को अपेक्षित स्तर तक घटाने में उतने कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। अभी भी महंगाई अस्वीकार्य स्तर पर बनी हुई है। इस बीच कच्चे माल यानी इनपुट की लागत कुछ कम हुई है, लेकिन कंपनियां उसका लाभ उपभोक्ताओं को हस्तांतरित करने में हिचक रही हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि महंगे इनपुट की वजह से अतीत में उन्हें जो नुकसान उठाना पड़ा, वे उसकी कुछ हद तक भरपाई में जुटी हों। यदि इनपुट कीमतों में कमी का सिलसिला कायम रहता है तो देर-सबेर कंपनियां इसका लाभ उपभोक्ताओं को देंगी, जिससे बड़ी राहत मिलेगी।
खाद्य उत्पादों के दाम भी असहज स्तर पर टिके हैं। गेहूं की कीमतों ने इस साल परेशान किया है। हालांकि महंगाई से निजात के मोर्चे पर कुछ सकारात्मक संकेत दिखने लगे हैं। जैसे रबी की फसल अच्छी होने के आसार हैं। मिट्टी में आवश्यक नमी और जलाशयों में पर्याप्त पानी होने से बेहतर उत्पादन की उम्मीदें बंधी हैं। इस साल गेहूं का रकबा भी बढ़ा है। ऐसे में यदि कोई प्रतिकूल मौसमी परिघटना घटित नहीं होती तो खाद्य उत्पादों की आपूर्ति बेहतर होगी, जिससे बढ़ती कीमतों पर लगाम लगेगी। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट भी सुकून देती है, मगर डालर के मुकाबले रुपये में उतार-चढ़ाव से उसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा। जहां तक रुपये की बात है तो वैश्विक अनिश्चितता के माहौल में भी उसका प्रदर्शन अभी तक ठीक ही कहा जाएगा। डालर के मुकाबले 83 तक जाने के बाद उसने मजबूती की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। फिर भी, उसमें संभावित अस्थिरता से इन्कार नहीं किया जा सकता।
प्रमुख देशों में मंदी की आहट, बेलगाम महंगाई और मुद्रा में जारी उतार-चढ़ाव जैसे पहलू आर्थिक नीति प्रतिष्ठान की पेशानी पर बल डालने वाले हैं, मगर इसके बावजूद दुनिया भारत की ओर बड़ी उम्मीद से देख रही है। आर्थिक वृद्धि में कटौती के अनुमान जरूर लगाए जा रहे हैं, लेकिन भारत फिर भी विश्व में सबसे तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरता दिख रहा है। इसी कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने उसे ‘अंधकार में उम्मीद की एकमात्र किरण’ बताया है।
यह अकारण भी नहीं। इसके पीछे ठोस आधार हैं। जैसे भारतीय बैंकिंग प्रणाली मजबूत स्थिति में है। एनपीए का अंबार घटा है। याद रहे कि बैंकिंग प्रणाली ही आर्थिक गतिविधियों को ऊर्जा प्रदान करती है। भारतीय उद्योग जगत के हालात भी बढ़िया दिख रहे हैं। अधिकांश छोटी-बड़ी कंपनियों के बहीखातों की सेहत दुरुस्त है। उन पर कर्ज कम होने के साथ ही नकदी भी पर्याप्त है। इससे वे किसी भी संभावित मुश्किल का कहीं बेहतर तरीके से सामना करने के लिए तैयार हैं। निवेश चक्र में सुधार भी कंपनियों की मजबूती दर्शाता है।
भारत के अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक परिदृश्य में सरकारी प्रयासों की भी भूमिका है। सरकार ने बुनियादी ढांचे में निवेश को जो प्राथमिकता दी है, उसके प्रभाव कई क्षेत्रों पर दिखेंगे, जिसका लाभ समग्र अर्थव्यवस्था को मिलेगा। उत्पादन आधारित प्रोत्साहन यानी पीएलआइ जैसी सरकारी पहल में भी फलदायी होने की भरपूर संभावनाएं हैं। बड़े पैमाने पर सब्सिडी देने के बावजूद सरकार अपने खजाने को संतुलन देने में सफल दिखती है। इसमें जीएसटी जैसे कर सुधार से कर संग्रह में तेजी के अलावा विवेकसम्मत व्यय ने भी योगदान दिया है। सरकार ने डिजिटलीकरण को तेजी से जो विस्तार दिया है, उससे सरकारी योजनाओं में रिसाव रुककर संसाधनों की बर्बादी पर विराम लगा है।
भारत की युवा आबादी भी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है, मगर जिस प्रकार के नए आर्थिक अवसर सृजित हो रहे हैं, उनका लाभ उठाने के लिए पर्याप्त कौशल विकास का अभाव खटकता है। युवाओं को आवश्यक कौशल से लैस करके सरकार अर्थव्यवस्था को और रफ्तार दे सकती है। नि:संदेह, यह सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। यदि वह इस चुनौती से पार पाने में सफल रहती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था को आने वाले वर्षों में तेज गति मिलना तय है।
(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)
Edited By: Ashisha Singh Rajput
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