अवधेश कुमार: राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा मध्य प्रदेश के साथ हिंदी क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है। 75 दिनों की यात्रा पूरी होने के बाद राहुल गांधी ने एक दिन का ब्रेक लेकर गुजरात में दो सभाएं संबोधित कीं। राहुल गांधी हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रचार से दूर रहे। गुजरात में उनकी पहली जनसभा सूरत जिले की महुआ तहसील के पांच काकडा गांव में और दूसरी राजकोट के शास्त्री मैदान में हुई। इसकी चर्चा इसलिए जरूरी है, क्योंकि राहुल गांधी के बारे में कांग्रेस प्रचार कर रही है कि यात्रा से आम जनता के साथ पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच उनकी छवि बदली है। उन्हें राजनीति में अगंभीर, नौसिखिया या और कुछ बताने वाले गलत साबित हुए हैं। उन्होंने अब तक की अपनी यात्रा में एक दृढ़संकल्पित और समर्पित नेता की छवि बनाई है। यात्रा में उन्होंने लाखों लोगों से प्रत्यक्ष मुलाकात की है और जमीनी हकीकत को प्रत्यक्ष देखा-समझा है। इससे भारत की वास्तविकता की उनकी समझ गहरी हुई है और वह उसे अभिव्यक्त कर रहे हैं। ऐसे में यह विचार करना आवश्यक है कि क्या भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी का रूपांतरण हो गया है?
गुजरात के दोनों भाषणों को सुनने वाले क्या इसे स्वीकार करेंगे कि उनमें बदले हुए राहुल नजर आए? उन्होंने जो विषय उठाए उनमें ऐसा कुछ नहीं था, जिसके आधार पर कहा जाए कि उनका सोच और अभिव्यक्ति की विषयवस्तु एवं तरीके बदल गए हैं। आदिवासियों के बीच मोदी सरकार द्वारा जंगलों को पूंजीपतियों को देने और उन्हें वनवासी कहने की बात वह बोलते रहे हैं। सूरत जिले की सभा में उस समय अजीब दृश्य उत्पन्न हो गया, जब उनके भाषण का अनुवाद कर रहे नेता यह कहकर बैठ गए कि आप हिंदी में बोलिए, चलेगा। दक्षिण के राज्यों में भाषण का स्थानीय भाषा में अनुवाद कराना औचित्यपूर्ण है, लेकिन उसी व्यवहार को गुजरात में दोहराने का कोई अर्थ नहीं।
इसमें दो राय नहीं कि राहुल गांधी ने अब तक की यात्रा में चेहरे पर शिकन नहीं आने दी है। वह हर दिन औसत 30 किमी चल रहे हैं, फिर भी तरोताजा दिखते हैं। इसे आत्म-अनुशासन, लक्ष्य के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया जा सकता है। उनके समर्थकों के अंदर उनका सम्मान भी बढ़ा होगा। अभी तक जिन राज्यों में वह गए, वहां अंतर्कलह से जूझ रही कांग्रेस कम से कम उन इलाकों में एकजुट रही, जहां से वह गुजरे। आम नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी अपने नेता को निकट से गुजरते देख सुखद अहसास हुआ होगा। इन सबके अंदर उत्साह और स्फूर्ति उत्पन्न हुई होगी। भाजपा, संघ और नरेन्द्र मोदी के विरोधियों को भी लगा होगा कि कांग्रेस में अभी उम्मीद बाकी है। लंबे समय बाद कांग्रेस अपने दृष्टिकोण से कोई व्यवस्थित कार्यक्रम कर पा रही है। यात्रा को डिजिटल और इंटरनेट मीडिया विभाग बिल्कुल सधे हुए तरीके से प्रस्तुत कर रहा है। शब्दों के संयोजन, गाने, संगीत, तस्वीरें और वीडियो सबके पीछे पेशेवर तैयारी साफ दिखती है। कह सकते हैं कि गांधी परिवार के सलाहकारों और रणनीतिकारों ने यात्रा की प्रभावी प्रस्तुति के लिए कड़ा परिश्रम किया है। यात्रा के रास्ते के चयन में भी सतर्कता बढ़ती गई और रास्ते में कौन लोग राहुल गांधी से मिलेंगे, बातचीत करेंगे, चलेंगे उन सबका चयन पहले से किया जाता है। अगर इन सबसे राहुल की छवि बदल जाए या वह स्वयं में बदलाव कर लें तो कांग्रेस के पुनर्जीवन की संभावना बन सकती है।
हालांकि यात्रा के योजनाकारों की दृष्टि 2024 लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में चमत्कार करने की है। यात्रा की दो-तिहाई दूरी की समाप्ति के बाद कहीं भी कांग्रेस के पक्ष में जनसमर्थन के व्यापक विस्तार का संकेत नहीं मिला है। केरल में उनके निकलने के बाद अंतर्कलह सतह पर आ गई। तमिलनाडु में आपसी संघर्ष इतना बढ़ा कि नेताओं का एक समूह दिल्ली आकर अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मिला। कर्नाटक में सिद्धारमैया और डी शिवकुमार के बीच जो शांति-सुलह दिख रही है, वह कब तक कायम रहेगी, कहना मुश्किल है। वहां विधानसभा का चुनाव अगले वर्ष होना है। इस यात्रा में राहुल गांधी ने मुख्यतः भाजपा, संघ, हिंदुत्व विचारधारा और नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया है। दक्षिण के राज्यों में कर्नाटक को छोड़कर भाजपा अभी शक्तिशाली नहीं है। वह तेलंगाना और तमिलनाडु में अवश्य कोशिश कर रही है। उसमें भी उन्होंने भाजपा और संघ के विरुद्ध वही बातें कहीं, जो पहले से बोल रहे हैं। महाराष्ट्र में वीर सावरकर की निंदा कर राहुल ने अपने राजनीतिक साझेदारों शिवसेना (उद्धव गुट) एवं राकांपा को भी असमंजस में डाल दिया।
यात्रा के आरंभ से ही दिख रहा था कि इसके पीछे उन सभी गैर-दलीय समूहों का सोच और ताकत है जो मोदी सरकार के विरुद्ध देशव्यापी वातावरण बनाकर 2024 में उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंकने का सपना संजोए हुए हैं। एनजीओ, एक्टिविस्ट, थिंक टैंक सर्वे संस्थाएं आदि इसमें शामिल हैं। इनका संघ, भाजपा और मोदी विरोध पहले से जाहिर है और पूरी क्षमता लगाकर भी ये भाजपा की चुनावी संभावनाओं को अभी तक खत्म नहीं कर सके हैं। राहुल गांधी का इनके साथ कदमताल करना ही बताता है कि कांग्रेस भारत की बदली हुई राजनीति और जनता के बदले मनोविज्ञान को समझ नहीं पा रही है। वैसे भी अगर संगठन नहीं हो तो यात्रा से जो भी थोड़ा बहुत माहौल बनेगा, उसे सशक्त कर चुनावी लाभ में बदला नहीं जा सकता। यात्रा के उपरांत की योजना कांग्रेस के पास नहीं है। अगर देश भर के संघ, भाजपा और मोदी विरोधी एनजीओ, एक्टिविस्ट मिलकर कोई आंदोलन कर भी लें तो इससे कांग्रेस को क्या लाभ होगा?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Edited By: Amit Singh
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