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- Minhaj Merchant Column America Wants India’s Help Against China, But Not Want India Move Forward
30 मिनट पहले
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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक
इतिहास में किसी और देश ने इतने युद्ध नहीं लड़े, इतने सम्प्रभु राष्ट्रों पर धावा नहीं बोला, इतने निर्वाचित नेताओं का कत्ल नहीं करवाया और इतनी सरकारों का तख्ता नहीं पलटा, जितना अमेरिका ने किया है। अमेरिका का न कोई स्थायी मित्र है, न ही स्थायी शत्रु। उसके लिए निजी हित ही स्थायी हैं। अमेरिका का सबसे पुराना सहयोगी है फ्रांस, जिसने 18वीं सदी में ब्रिटेन से आजादी की लड़ाई में उसका साथ दिया था।
इसके बावजूद उसने उससे दगा करने से संकोच नहीं किया और एयूकेयूएस सौदे पर दस्तखत कर दिए। इस सौदे के तहत अमेरिका की परमाणु शक्तिसम्पन्न पनडुब्बियां ऑस्ट्रेलिया को दी जाना थीं। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया ने रातोंरात फ्रांस से पनडुब्बियां खरीदने का 60 अरब डॉलर का करार रद्द कर दिया। जब अमेरिका फ्रांस के साथ ऐसा कर सकता है तो दूसरे देशों की क्या बिसात?
1972 में जब रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने चीन की यात्रा की थी तो इसके साथ ही अमेरिका का चीन से 30 साल लम्बा प्रेम-सम्बंध शुरू हो गया था। वह शीतयुद्ध का समय था और तब अमेरिका-चीन सम्बंधों का लक्ष्य सोवियत संघ काे टक्कर देना था। अमेरिका ने चीन को तकनीक और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी मुहैया कराई, जिससे वह पावरहाउस बनकर उभरा। लेकिन जब चीन की चुनौती बढ़ने लगी तो अमेरिका को लगा कि अब उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने दबदबे को कायम रखने के लिए एक नए सहयोगी की जरूरत है।
2008 की भारत-अमेरिका एटमी डील के चलते दोनों देशों के रिश्तों में नया अध्याय शुरू हुआ। भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था, सैन्य क्षमता और अमेरिका में स्थित भारतवंशियों की बड़ी तादाद ने भारत-अमेरिका सम्बंधों को मजबूत बनाया। लेकिन अमेरिका का भू-राजनीतिक पाखंड छुपा न रह सका। वह पाकिस्तान को घातक हथियारों की सप्लाई भी करता रहा।
अमेरिका ने भारत से कहा कि ये हथियार अंदरूनी आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान की मदद के लिए हैं, जबकि वह जानता था कि उनका इस्तेमाल भारत में आतंक फैलाने के लिए किया जाएगा। माना जाता है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में आतंक से लड़ाई में अमेरिका को धोखा दिया, जबकि वास्तव में वॉशिंगटन और इस्लामाबाद की मिलीभगत है और सीआईए से आईएसआई के नजदीकी ताल्लुकात किसी से छिपे नहीं हैं।
पाकिस्तान के डबल-गेम का मकसद था भारत को यकीन दिलाना कि पाकिस्तान अमेरिका को धोखा दे रहा है और अमेरिका की जानकारी में यह नहीं है। अमेरिका को यह समझने में समय लगा कि भारत एक बड़ी ताकत बनने जा रहा है और चीन के विरुद्ध वह उसका मूल्यवान सहयोगी सिद्ध हो सकता है। लेकिन अमेरिका यह भी नहीं चाहता कि भारत बहुत तेजी से आगे बढ़े।
इसलिए वह समय-समय पर इस तरह की ट्रैवल एडवाइजरी जारी करता रहता है : ‘भारत में अपराध और आतंकवाद के चलते अधिक सतर्कता बरतें। जम्मू-कश्मीर या भारत-पाकिस्तान सीमा के दस किमी दायरे की यात्रा से बचें। भारत में दुष्कर्म के मामले बढ़ रहे हैं। पर्यटन-स्थलों पर हिंसा की वारदातें हो रही हैं। भारत के कुछ प्रांतों में अमेरिकी नागरिकों को आपातकालीन सेवाएं मुहैया कराने में अमेरिकी सरकार समर्थ नहीं होगी, क्योंकि उन क्षेत्रों की यात्रा के लिए विशेष अनुमति लेना पड़ती है।’
यूएस स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा जारी की गई इस एडवाइजरी की भाषा चौंकाने वाली है। अमेरिकी थिंकटैंक भी समय-समय पर भारत में प्रेस की आजादी पर रोकटोक, लोकतंत्र पर खतरे और बढ़ते इस्लामोफोबिया आदि पर रिपोर्ट प्रकाशित करते रहते हैं। इसका मकसद भारत पर दबाव बनाए रखना है। आज भी भारत में अमेरिका का कोई राजदूत नहीं है। यूएस टूरिस्ट वीजा जारी होने में दो साल लग जाते हैं। अमेरिका अपने सहयोगियों से पूर्ण स्वामीनिष्ठा की मांग करता है, लेकिन भारत जरा अलग है।
2029 तक वह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी और दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता-बाजार बनने जा रहा है। अमेरिका या तो सैन्य मदद से- जैसा उसने वियतनाम, इराक, खाड़ी अफगानिस्तान, यूक्रेन में किया- या गुप्त अभियानों से- जैसा इराक, सीरिया में किया, या राजनीतिक हत्याओं से- जैसे लादेन और जवाहिरी को मारा गया- अपने लक्ष्य हासिल कर लेता है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध पर हाल में भारत से हुई कूटनीतिक वार्ताओं से अमेरिका को पता चल गया है कि वह एडवाइजरी और रिपोर्टों से भारत को अलग-थलग नहीं कर सकेगा।
भारत के पास सशक्त सेना है। वह न तो पश्चिम का स्वाभाविक सहयोगी है, न ही चीन की तरह अमेरिका का प्रतिद्वंद्वी है। वह ऐसी धुरी है, जिस पर आने वाले कल के भू-राजनीतिक समीकरण निर्भर करेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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