जो लोग कहानी पढ़ने के शौक़ीन हैं, वे बख़ूबी जानते हैं कि हमारा लगभग सारा कथा-साहित्य मानवीय रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमता है। बात को सरलता से समझने के लिए हम प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी और ईदगाह, भीष्म साहनी की कहानी चीफ़ की दावत और वाङ चू, अमरकान्त की कहानी डिप्टी कलेक्टरी और दोपहर का भोजन और ज्ञानरंजन की कहानी पिता और घंटा को याद कर सकते हैं। जिन मानवीय रिश्तों का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, उन्हें एक बड़े मानसिक फलक पर समझना ज़रूरी है। ये रिश्ते जहाँ एक ओर ऐक्य और तादात्म्य से, आपसदारी और अनुराग से, प्रेम और गहरी समझ से, त्याग और अपार संवेदना से बनते हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें अलगाव और बिखराव, गलतफ़हमी और कुटिलता, स्वार्थ और अहंकार, नफ़रत और वैमनस्य की काली छाया भी मौजूद रहती है। कहने का मतलब यह है कि हर कथा कमोबेश मनुष्यता के अन्दर ही अपने बीज टटोलती है और मनुष्यता मोटे तौर पर इन सभी अच्छी-बुरी, ग्राह्य-त्याज्य, महान्-क्षुद्र मनोवृत्तियों का श्वेत-अश्वेत वितान है।
दूसरे शब्दों में, जीवन जिन सुन्दर-असुन्दर प्रतीतियों की, चेतना के जिन उद्दाम उछालों या उसके अप्रत्याशित अवरोहों की, मन में अकस्मात् दिखे इंद्रधनुषों या अवचेतन पर एकाएक छाये डरावने बादलों की अनन्त शृंखला मानी जाती है, हर कहानीकार जाने-अनजाने उन्हीं में कुछ को एक घटनाक्रम या विचार के रूप में गूँथता है जिसमें कुछ चरित्र एक चेतन-अचेतन आवाजाही करते हैं। पाठक कहानी पढ़ते समय इन घटनाओं या वैचारिक यात्राओं को अपनी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा मानकर जीता है और अपने अन्दर अचानक कुछ ऐसे भावों या कुछ ऐसी भावनाओं की गहमागहमी पाता है जो उसके अन्तर्मन में कहीं चुपचाप पड़ी थीं। बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है कि मानवीय रिश्तों की पड़ताल, उनकी ताक़त या उनकी निरर्थकता का भान, उनके सौन्दर्य और अमरत्व या उनसे जुड़े टूटन-भरे तजुर्बों का बोध ही प्रत्यक्षतः या परोक्षतः हर कहानी की पीठिका तैयार करता है भले ही कहानीकार इस तथ्य से अनजान हो कि वह कहानी के रूप में किसी विशिष्ट रिश्ते के बारे में बात करके ख़ुद को किसी तीव्र अनुभव या किसी वज़नी और दर्दीली अनुभूति से रिक्त कर रहा है।
ब्रज जी की कहानी तुम्हें क्या मतलब का शीर्षक ही ख़ुद में यह दहकता सवाल छिपाये हुए है कि क्या हमें उन्हीं लोगों से मतलब रखना चाहिए जिनसे हमारा जुड़ाव सुपरिभाषित हो और समाज द्वारा जिसे किसी भी बहाने ललकारा न जा सके। इस सवाल (जिसकी किरचें पाठक कहानी के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते यक-ब-यक महसूस करता है) को इसी तरह के तमाम शब्दों में दूसरे ढंगों से भी ढाला या व्यक्त किया जा सकता है। टिप्पणीकार सुनीता जी का यह कहना उनकी गहरी पाठकीय समझ का प्रमाण है कि ये शब्द तीन तमाचों जैसे लगते हैं। नीलिमा जी, जो अपनी टिप्पणी में कहानी के शीर्षक को मौजूँ (और एक तरह से चौंकाने वाला) बताती हैं, कहानी के मर्म तक अत्यन्त उत्कंठापूर्ण और वाज़िब तरीक़े से पहुँचती हैं। उन्हें भी यह सवाल, हम अनुभव करते हैं, एक तकलीफ़देह (और नागफनीनुमा) अनुभूति की तरह लगता है। टिप्पणीकार बबिता जी भी कहानी के बारे में अपनी बात कहते वक़्त शीर्षक में समाये तीन शब्दों की धार या उनका बेधक पैनापन शिद्दत से महसूस करती हैं। मुझे भी लगता है कि जैसे हर मकान में एक मुख्य दरवाज़ा होता है, उसी तरह कहानी का प्रश्नवाचक प्रकृति का (यानी एक सवाल उठाता) यह शीर्षक उसका प्रवेश और निकासी का द्वार (entry point और exit point) है।
‘मतलब’ एक अजीबोग़रीब शब्द है। इसकी व्यापकता और इसकी गहराई पर लम्बी बहस की जा सकती है। इसकी ध्वनियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ पाठक की मुलाक़ात एक जटिलता से कराती हैं। इंदु जिसे कथावाचक (मैं) और उसकी पत्नी सुष्मिता अपनत्व और सम्मान से इंदु भाभी कहते हैं, कपिल के दो बच्चों की माँ है। कहानी की शुरुआती पंक्तियाँ ही उसके व्यक्तित्व का तक़रीबन पूरा खाका खींच देती हैं। वह इकहरी देह की एक गोरी और सौम्य स्त्री है जो चण्डीगढ़ी और हिमाचली बोली जानती है। उसके अन्दर एक अपनापन है, परन्तु वह कपिल के चारित्रिक विचलनों आदि से समझौता नहीं कर पाती और आहत मन से उससे दूर जाने का निर्णय लेती है। वह जानती है कि कपिल जिसके साथ वह अपनी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा गुज़ार चुकी है, से बच्चों सहित उसका स्थायी अलगाव उसके लिए ख़ुद पर ज़ुल्म ढाने जैसा होगा, लेकिन वह अपने शेष जीवन और बच्चों के भविष्य पर उसकी छाया नहीं पड़ने देना चाहती। मामले का दिलचस्प पहलू यह है कि वह कपिल को छोड़ना भी चाहती है मगर तलाक़ देकर उसे पूरी तरह स्वच्छन्द यानी बन्धनमुक्त नहीं करना चाहती। उसका यह फ़ैसला जहाँ एक ओर उसके प्रतिकार-भाव का उछाल है, वहीं दूसरी ओर उसके अहं और उसकी स्व-चेतना की छलाँग भी है। कथावाचक और उसकी पत्नी हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र की चार दिन की यात्रा पर हैं। उन्हें इस बात का दुःख है कि इंदु जो बीस साल पहले एक रात अचानक अपने बच्चों के साथ ट्रेन में बैठकर शहर छोड़ गयी थी, से वे आज तक नहीं मिल पाये हैं जबकि इस बीच उन्हें वह बार-बार याद आती रही है। भ्रमण पर निकले दम्पत्ति को लगता है कि चार दिन की हिमाचल की यात्रा और खोजबीन उन्हें इंदु से अकस्मात् मिलवा देगी क्योंकि उसके इसी क्षेत्र में होने संभावना है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि ‘मतलब’ दुधारी तलवार की मानिन्द इंदु को लहूलुहान कर रहा है। वह कपिल की नज़रों से दूर होकर और उसे बच्चों के प्यार और सान्निध्य के सुख से वंचित करके उससे आग्रहपूर्वक बदला भी ले रही है, दूसरी तरफ़ उसे क़ानूनी तौर पर आज़ाद भी नहीं कर रही है। दोनों के बीच कोर्ट में केस चल रहा है। कपिल पेशी पर आता है तो कोशिश करके बच्चों से भी मिल लेता है। यह सब कुछ उसी तरह की बात है जैसे कोई पुल किसी नदी के दो पाटों को जोड़े भी, उनसे दूर जाने का पथ भी प्रशस्त करे। इंदु और कपिल के दाम्पत्य जीवन की वेदना और बिखरन को और उनके आपसी सम्बन्धों की अपारगम्य दरारों को कहानीकार ज़्यादातर कथावाचक और उसकी पत्नी की बातचीत के माध्यम से दर्शाता है। यह बातचीत कहानी का एक दिलचस्प हिस्सा है। इसमें उत्कण्ठा है, छींटाकशी है, चुहलबाज़ी है, विचारों का एक परिपक्व और गरमाहट-भरा आदान-प्रदान है। इस बातचीत के आईने से कहानी का कथ्य धूप की तरह टकराकर पाठक के मन पर रोचक ढंग से लहरें बनाता है।
कहानी, हम महसूस करते हैं, जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, ‘मतलब’ कहानी के सभी चरित्रों के इर्द-गिर्द मँडराता चलता है। कभी वह सुर्ख़ बादल की तरह सुहावने ढंग से साथ चलता है, कभी एक अदृश्य साँप की तरह दिमाग़ों में रेंगता दिखता है। इंतिहा तो तब होती है जब इंदु से मुलाक़ात होने की संभावना क्षीण होती देख कथावाचक दोस्ताना अंदाज़ में कपिल को फ़ोन करके उससे इंदु का मोबाइल नंबर माँगता है जो कपिल को पसन्द नहीं आता। ग़ुस्से में कपिल जो जवाब देता है, वह बंदूक़ से दागी गयी गोली जैसा मिलनातुर दम्पत्ति को हतप्रभ कर देता है। कपिल का जवाब देखिए,” जब मेरे ही उससे रिश्ते ख़त्म हो गये हैं तो तुम्हें क्या मतलब?”
मेरा मानना है कि हर कहानी का एक अन्तर्जगत् भी होता है। मोटे तौर पर इससे मेरा तात्पर्य चरित्रों के मनोविज्ञान से, उनके अन्दर उठ रहे वैचारिक प्रभंजनों से, उनके अंतर्मन की उथल-पुथल और तूफ़ानी हलचलों से है। कहानी के घटनाक्रम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी कर रहा कोई व्यक्ति किसी स्थिति को किस प्रकार लेता है और उस स्थिति में उसका आचरण कितना औसत या औसत से कम या ज़्यादा नज़र आता है, काफ़ी हद तक यही कहानी की आंतरिक बुनावट को तय करता है। कहा जाता है कि हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है। उक्त व्यक्ति के आचरण के शेड्स और काउंटर शेड्स (छाया और प्रतिच्छाया) से अन्य चरित्रों का आचरण आकार लेता है। हर सजग कहानीकार की रचना मुख्यतः एक सुनिश्चित भावभूमि पर तैयार होती है जो कहानी में आये चरित्रों के माध्यम से पाठक तक पहुँचती है। पाठक कहानी पढ़ते समय कहानी के समग्र प्रभाव के आधार पर उसे अच्छा या कम अच्छा मानता है। वह कहानी के अन्तर्जगत् वग़ैरह के बारे में सामान्यतः कुछ नहीं जानता जबकि वस्तुतः यह भीतरी दुनिया ही कहानी के प्रभाव की निर्मिति करती है। ब्रज जी की कहानी को, मेरा विचार है, कहानी के अन्तर्जगत् के आधार पर भी आँका जाना चाहिए। कपिल और इंदु के व्यक्तित्व का मूल्यांकन हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र के भ्रमण का आनन्द उठाते पति-पत्नी जिस तरह करते हैं, उसमें याराना भंगिमाएँ हैं। सुष्मिता ‘पुरुष-मन’ कहकर एक साथ दोनों पुरुषों को लपेटती है। पर-स्त्री का संदर्भ उनकी गुटरगूँ के दौरान हल्के से आता हैं मगर पाठक के मन में देर तक ठहरता है जैसे जलती हुई मोमबत्ती का मोम बह-बहकर किसी एक ही जगह पर जम गया हो। कुल मिलाकर पर-स्त्रीगमन ही वह अहम वजह दिखती है जिसने दो बच्चों की माँ को जीवन के एक कठिन मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। एक-दो स्थितियाँ और भी हैं जिनका आस्वाद मनोविज्ञान के धरातल पर उतरकर लेना सुखद होगा। इंदु से मिलने को आतुर सुष्मिता का यह अनुमान कि अब तो इंदु अधेड़-सी दिखने लगी होगी, एक स्त्रियोचित औत्सुक्य (प्रशंसा आमंत्रित करने का तेवर?) है, क्योंकि सुष्मिता जाने-अनजाने अपनी आयु की एक अंतरंग सहेली के बारे में बतिया रही है। सुष्मिता के पति की यह प्रतिक्रिया प्रेम से लबालब भरे किसी दीवाने शौहर की अभिव्यक्ति-सी लगती है कि ज़रूरी तो नहीं कि अधेड़ावस्था के कारण इंदु कम आकर्षक हो गयी हो क्योंकि सुष्मिता पहले की तुलना में अधिक सुन्दर दिखने लगी है। इस तरह सुष्मिता का तीर सीधे चिड़िया की आँख में लगता है। उसे अपने आकर्षित और भाव-विभोर पति की भावनाएँ जो प्रेम से सराबोर हैं, एक छोटी-सी, प्यारी-सी, नटखट-सी कोशिश से पता चल जाती हैं। एक अन्य प्रसंग भी पत्नियों के असुरक्षा-भाव, जिसके बारे में बतियाते हुए उन्हें कँपकँपी छूटती है, को बारीक़ी से खोलता है। इंदु-कपिल के अलगाव पर प्रतिक्रिया देते हुए सुष्मिता प्रेम और यात्रा-हुलास की मस्ती में डूबे अपने पति से कहती है कि इंदु पति से भले ही लड़ती रहती मगर उसे उससे बिछुड़ना नहीं चाहिए था। यहाँ हम देख सकते हैं कि स्त्रियाँ जो पत्नियों में रूपांतरित हो चुकी हैं और मायके से अलग एक नया और दूसरा तथा सन्तानमय जीवन जी रही हैं, अपने पति से बिछुड़ने के नाम पर काँप उठती हैं। ऐसे में इंदु का निर्णय उसकी ग्लानि और वैवाहिक क्षोभ की प्रचंडता के साथ-साथ एक स्वाभिमानी स्त्री की अडिगता और साहस से भरी उसकी मनःस्थिति को भी दर्शाता है। साथ ही, उसका यह निर्णय अपने दिभ्रमित पति को उसकी आवारगी और दुश्चरित्र जीवन-शैली के लिए सामाजिक और मानसिक रूप से दण्डित करने के उसके चट्टानी हठ का भी परिचायक है। कहानी के एक और प्रसंग, जिसे पाठक अनदेखा कर सकते हैं, पर भी गौर फ़रमाने की ज़रूरत है। इंदु की खोज के प्रयास में कथावाचक बस में बैठी एक सवारी से बेचैनी से पूछता है कि कांगड़ा में कोई ब्राह्मण परिवार रहता है क्या। सुष्मिता अपने पति के इस खोजी आचरण को किञ्चित् असहज पाती है और एक ऐसे अंदाज़ में, जिसमें छानबीन के कीटाणु हैं, सवाल करती है कि वह इतना उतावला क्यों हो रहा है। पाठकगण, जो पति हैं और पत्नी की नाराज़गी और उसके शक़्क़ी स्वभाव की चपेट में अक्सर आते रहते हैं, अनुभव करेंगे कि किसी पर-स्त्री के बारे में पति का उतावलापन पत्नी की छठी इन्द्रिय की पकड़ से अछूता नहीं रह पाता और अगर पति ने समझदारी से स्थिति को नहीं संभाला तो वह कई दिन तक उसके राडार पर रह सकता है। अंत में, यह भी देखा जा सकता है कि कम उम्र के बच्चों नेहू और शेखू का अपने पिता, दादा, नन्हें दोस्तों और सहपाठियों से एक झटके से अलग होने का भाव दो-तीन पंक्तियों में सिमटा होने के बावजूद पीड़ाजनक लगता है और द्रवित करता है। ब्रज जी की इस कहानी के अंतर्जगत् की पाठकगण अपने तरीक़े से भी टोह ले सकते हैं।
मुझे लगता है कि ब्रज जी को और कहानियाँ लिखनी चाहिए। स्वप्निल श्रीवास्तव और संजय कुन्दन जो मूलतः कवि हैं, कहानी के क्षेत्र में उतरकर एक अरसे से स्थापित कहानीकारों को चौंका रहे हैं।
समीक्षा
सत्येंद्र कुमार रघुवंशी
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