- आखिर सनातनी ही सोच क्यों बदले!
आजकल विज्ञापन कंपनियों को हिंदू त्योहारों, संस्कृति और उससे जुड़ी मान्यताओं की सोच बदलने की होड़ मची हुई है। पता नहीं इन विज्ञापन कंपनियों को सनातन धर्म से जुड़ी सोच ही क्यों बदलनी होती है। एक खास तरह के पैटर्न से ये कंपनियां हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती हैं। इन दिनों आमिर खान अभिनीत एक विज्ञापन को लेकर पूरे देश में विवाद छिड़ा है। यह विज्ञापन विवादित है या नहीं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन एक बात तय है कि पिछले कुछ सालों से हिंदू त्योहारों से ठीक पहले हिंदुओं की धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं पर कटाक्ष करनेवाले विज्ञापन जारी किये जा रहे हैं। आमिर खान का हाल का विज्ञापन भी इसकी एक कड़ी है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और ऐसे में यह संदेह पैदा होना स्वाभाविक है कि इस पूरे खेल के पीछे एक खास तरह का पैटर्न काम कर रहा है। इन विज्ञापनों में विदाई, कन्यादान, करवा चौथ, कुंभ मेला और दीपावाली के पटाखे से लेकर होली के रंगों तक से दिक्कत बतायी जाती है और धड़ल्ले से दूसरे धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं-परंपराओं का महिमामंडन किया जाता है। इन विज्ञापनों में हिंदू घृणा और बुजुर्गों-बच्चों का इस्तेमाल करके भी प्रोपेगंडा का प्रसार किया जाता है। सामान्य विज्ञापनों में जहां प्रयास होता है कि वे लक्षित जनता को अपना उपभोक्ता बना पायें, तो वहीं बॉलीवुड गिरोह के लोग कोशिश करते हैं कि क्रिएटिविटी के नाम पर विज्ञापन में भी हिंदू रीति-रिवाजों पर सवाल उठा सकें। आमिर खान हों या आलिया भट्ट, सबने बीते सालों में यही किया है। आखिर इस तरह की कथित क्रिएटिविटी का औचित्य क्या है और इनके पीछे की मंशा क्या है, इन सवालों के जवाब तलाशे जाने जरूरी हो गये हैं, क्योंकि कुछ सेकेंड या मिनट के ये विज्ञापन हर उम्र और वर्ग के लोग देखते हैं। इसका सीधा सा जवाब यही हो सकता है कि आजकल विज्ञापनों से लेकर बॉलीवुड की दुनिया हिंदुओं की धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं की खिल्ली उड़ा कर तात्कालिक लाभ अर्जित करना चाहती है। इन विवादित विज्ञापनों के पीछे की मंशा और अर्थशास्त्र का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बीते कुछ सालों में एक पैटर्न बहुत आम हुआ है और वह है हिंदू त्योहारों के आते ही हिंदुओं की धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं पर प्रहार करने का। पहले यह काम बॉलीवुड वाले अपनी फिल्मों के जरिये करते थे, फिर यह सब सोशल मीडिया पर होना शुरू हुआ और अब हाल यह है कि कुछ सेकेंडों वाले विज्ञापनों में भी हिंदूफोबिक सामग्री क्रिएटिविटी के नाम पर परोस दी जाती है।
हिंदू परंपराओं में बदलाव चाहते हैं मिस्टर परफेक्शनिस्ट
हाल में यह कारनामा लाल सिंह चड्ढा वाले आमिर खान ने किया। फिल्म के पर्दे पर बुरी तरह पिटने के बाद आमिर खान ने एयू बैंक का विज्ञापन किया। अब बैंक का विज्ञापन है, तो उस क्षेत्र में ग्राहकों को आनेवाली समस्याओं पर चर्चा होनी चाहिए थी। विज्ञापन में यह बताया जाना चाहिए था कि कैसे एयू बैंक अन्य बैंकों से अलग सुविधा देगा। लेकिन नहीं! विज्ञापन में दिखाया क्या गया? एक विवाह का सीन, जिसमें विदाई लड़के की होती है और गृह प्रवेश में पहला कदम लड़की की जगह उससे रखवाया जाता है। यह सब ड्रामा केवल इसलिए, क्योंकि बैंक की टैगलाइन थी कि बदलाव हमसे है। इसी टैगलाइन को चरितार्थ करने के लिए आमिर खान और कियारा आडवाणी ने हिंदू रीति-रिवाजों में बदलाव दिखा दिया, जैसे एक लड़के का घर जमाई होना क्रांति है, जबकि हकीकत यह है कि जरूरत पड़ने पर पति का पत्नी के घर पर रहना हमेशा से एक सामान्य बात रही है। फिर भी विज्ञापन में इस विदाई की परंपरा को ऐसे दर्शाया कि सालों से एक गलत प्रथा चलती आयी है और अब इसमें बदलाव के लिए मुहिम उन्होंने छेड़ी है। इस विज्ञापन में यह भी तो किया जा सकता था कि किसी दूसरे धर्म की परंपरा को दिखाया जाता और उसमें बदलाव की बात की जाती। यही नहीं, हिंदू धर्म पर प्रहार करते हुए कभी लेस्बियंस को करवा चौथ के त्यौहार को मनाते दिखाया जाता है, तो कभी विवाह में कन्यादान की रश्म को बोझ के रूप में दिखाया जाता है। वहीं जब मुसलिम त्योहारों में आमिर खान से जानवरों की कुर्बानी के बारे में पूछा जाता है, तो वह कहते हैं कि धर्म एक पर्सनल इशू है। इस पर मेरी टिपण्णी सही नहीं। वहीं सनातन धर्म में वह बदलाव की बात करते हैं।
ऐसे ही आॅनलाइन फूड डिलीवरी कंपनी जोमैटो के एक विज्ञापन को महाकाल से जोड़ने पर विवाद हो गया था। कंपनी का यह विज्ञापन एड एक्टर ऋतिक रोशन ने किया था। इसमें वह कह रहे हैं- थाली का मन किया, उज्जैन में हैं, तो महाकाल से मंगा लिया। महाकाल मंदिर के पुजारियों ने इस पर कड़ा विरोध जताया। उनका कहना था कि महाकाल मंदिर किसी थाली की डिलीवरी नहीं करता है। जोमैटो और ऋतिक रोशन इस विज्ञापन पर माफी मांगें। बवाल होने पर जोमैटो कंपनी ने माफी मांगते हुए विज्ञापन हो हटा लिया था। ऐसी कई और भी कंपनियां हैं, जिन्होंने हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया और बवाल होने पर माफी मांग ली, लेकिन वे अपने एजेंडा में कामयाब तो हो गये। यह हिंदू धर्म पर प्रहार और अपने प्रोडक्ट का प्रचार करने का फार्मूला बना लिया है।
दिलचस्प चीज यह है कि बॉलीवुड के लिए मिस्टर परफेक्ट आमिर खान अपनी फिल्मों में हिंदू देवी-देवताओं के अस्तित्व पर सवाल उठा देते हैं, विज्ञापन में रीति-रिवाजों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, मगर जब उनसे सवाल मजहब को लेकर पूछा जाता है, तो वह इसे निजी मसला कह कर किनारा कर लेते हैं। उनकी फिल्मों या विज्ञापनों में भी कभी तीन तलाक पर या हलाला पर सवाल नहीं उठता, जबकि ये मुद्दे वे हैं, जिनसे वाकई मुस्लिम समाज की महिलाएं त्रस्त हैं और सालों से इसके कारण पीड़ित होती रही हैं।
पटाखे सड़क पर जलाने के लिए नहीं होते
यह पहला विज्ञापन नहीं है, जहां आमिर खान हिंदू रिवाज पर ज्ञान देते नजर आये हैं। कुछ साल पहले भी उन्होंने सिएट टायर का विज्ञापन किया था, जिसमें दिखाया गया था कि कैसे सड़क गाड़ी चलाने के लिए होती है। वहां पटाखे नहीं जलाये जाते। यह विज्ञापन ठीक दीपावाली से पहले जारी किया गया था। अब कोई आमिर खान से अगर जाकर पूछे कि जब सड़क पटाखे जलाने के लिए सही नहीं होती, तो क्या नमाज पढ़ना वहां उचित हो सकता है? वह इस बारे में आखिर क्यों कुछ नहीं बोलते या उन्हें ऐसा लगता ही नहीं कि सड़क पर नमाज पढ़ने से यातायात बाधित हो सकते हैं? या यही विज्ञापन ईद या बकरीद से पहले जारी क्यों नहीं किये जाते।
कन्यादान पर सवाल उठानेवाली आलिया भट्ट
वास्तव में यह दोमुंहा रवैया केवल आमिर खान का नहीं हैं। वह अकेले इस दौर में हिंदू परंपराओं में बदलाव के पक्षकार नहीं बने बैठे हैं। पिछले साल आलिया भट्ट एक विज्ञापन में कन्यादान की परंपरा को बदलने की अपील करती आयी थीं। अपने विज्ञापन में आलिया भट्ट ने दिखाया था कि हिंदू किस तरह सालों से लड़कियों को दान करने की चीज बता कर दान करते आये हैं, जबकि असल में लड़कियां मान करने की चीज हैं। उनका यह विज्ञापन एक पूरे धड़े को उत्कृष्ट सोच का उदाहरण लगा था। वहीं हिंदुओं ने इस पर सवाल उठाकर आलिया को समझाया था कि हिंदू धर्म में कन्यादान के मायने क्या होते हैं और जिन्हें देश के राष्ट्रपति का नाम तक एक समय में नहीं पता था, वह हिंदू धर्म पर ज्ञान न ही दें।
तनिष्क का प्रोपगेंडा
आलिया भट्ट हों या आमिर खान, बॉलीवुड वालों ने हमेशा से ज्ञान देने के नाम पर हिंदू रीति-रिवाजों पर प्रश्नचिह्न लगाया है और एक विशेष समुदाय को शांत, शालीन और सभ्य दिखाया है। इस कड़ी में तनिष्क के उस विज्ञापन का उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें एक हिंदू दुल्हन के लिए गोदभराई की पूरी रस्म मुस्लिम परिवार द्वारा आयोजित की जाती है और ऐसे दर्शाया जाता है कि हिंदू औरतें अगर मुस्लिम परिवार में जाती हैं, तो उन्हें ऐसा ही सम्मान मिलता है। हास्यास्पद बात यह है कि तनिष्क का यह विज्ञापन उस समय में आया था, जब हिंदू समाज लव जिहाद जैसी घटनाओं पर लगातार जानकारी दे रहा था और इस बात पर चर्चा हो रही थी कि आखिर कैसे हिंदू महिलाओं को फंसा कर उनका धर्मांतरण कराया जाता है, उनसे निकाह होता है और फिर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है।
बता दें कि स्क्रीन पर हिंदू घृणा परोसने का काम पहले फिल्मों के जरिये धड़ल्ले से होता था। मगर पिछले कुछ समय से हिंदू जागरूक हुए और उन्होंने सवाल उठा कर फिल्मों का बॉयकॉट शुरू किया, तो ऐसे लोगों में चिंता बढ़ गयी कि अब कैसे प्रोपेगेंडा फैलायी जाये। ऐसे में इन्होंने विज्ञापनों का यह नया तरीका खोजा। विज्ञापन का काम वैसे अपने दर्शकों को अपना उपभोक्ता बनाना है, लेकिन उसमें भी प्रोपेगेंडा का तड़का मिले, तो इनके लिए वही सबसे बढ़िया विज्ञापन हो जाता है। आजकल विज्ञापन बनाते हुए ध्यान रखा जाता है कि किसी भी तरह मुस्लिम समुदाय को नकारात्मक स्वरूप में न दिखा दिया जाये और गलती से भी हिंदू सरल, शांत न नजर आये।
रेड लेबल की हिंदू घृणा
इस कड़ी में रेड लेबल चायपत्ती के कुछ पुराने विज्ञापनों का उल्लेख किया जा सकता है। चायपत्ती की इतनी बड़ी कंपनी ने एक नहीं, दो बार अपने विज्ञापनों में हिंदू विरोधी सामग्री दिखायी थी। एक विज्ञापन में बताया गया था कि कैसे हिंदू गणेश मूर्ति लेने आता है, लेकिन उससे ज्यादा ज्ञान मुस्लिम को होता है। मुस्लिम जैसे ही अपनी टोपी सिर पर पहनता है, हिंदू उससे भागने लगता है। फिर मुस्लिम व्यक्ति इतना अच्छा होता है कि उसे बुला कर चाय पिलाता और हिंदू की बुद्धि बदलती है। वह उसी से मूर्ति खरीदता है।
ऐसे ही दूसरे विज्ञापन में हिंदू दंपति हैं, जो अपने घर की चाबी भूल गये हैं। उनके घर के बगल में मुस्लिम औरत उन्हें चाय के लिए बुला रही है, पर हिंदू अपनी सोच के कारण उनके पास जाने से मना करते हैं। फिर चाय की खुशबू आती है और उन्हें एहसास कराती है कि हिंदू-मुस्लिम कुछ नहीं होता।
बच्चों का इस्तेमाल
विज्ञापनों के जरिये हिंदुओं के रीति-रिवाजों पर हमला, मान्यताओं को ठेस पहुंचाने का काम, त्योहारों पर सवाल उठाना बेहद आम होता जा रहा है। अपने प्रोपेगेंडा को फैलाने के लिए ये लोग बच्चों का भी इस्तेमाल करते हैं। सर्फ एक्सेल के विज्ञापन में दिखता है कि हिंदू लड़की मुस्लिम लड़के को रंगों से बचाते हुए मस्जिद ले जाती है। वहीं दूसरे विज्ञापन में संदेश दिया जाता है कि श्राद्धों के समय खाना ब्राह्मण को खिलाओ या फिर मौलवी को, बात एक ही है।
ऐसे तमाम विज्ञापनों के उदाहरण आज इंटरनेट पर मौजूद हैं, जिनका उद्देश्य केवल और केवल हिंदू घृणा का प्रचार-प्रसार करना है। बच्चों से बुजुर्गों का प्रयोग करते दिखाया जा रहा है कि हिंदू हमेशा गलत ही रहे। ऐसा लगता है कि आज के समय में विज्ञापन बनाने का मानक ही यह रह गया है कि या तो हिंदू परंपराओं पर सवाल उठा कर उन्हें बदलने का संदेश दो, वरना यह दिखाओ कि कैसे देश के हिंदुओं की सोच मुस्लिमों के प्रति बदली जानी चाहिए। आज जरूरत इस नैरेटिव को बदलने की है, अन्यथा देश एक नये किस्म के भंवर में फंस जायेगा।
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