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एक घंटा पहले
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राम माधव, सदस्य, बोर्ड ऑफ गवर्नर, इंडिया फाउंडेशन
ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न पश्चिम को सदियों से परेशान कर रहा है। 1078 ईस्वी में कैंटरबरी के आर्चबिशप एंसेल्म ने कहा था, कोई न कोई वैसी शक्ति अवश्य होनी चाहिए, जो हमारे जानने की क्षमताओं से परे हो। एंसेल्म का तर्क यह था कि चूंकि ईश्वर का नहीं होना जाना नहीं जा सकता, इसलिए उनका अस्तित्व स्वीकार किया जाना चाहिए। इस विचार ने सेमेटिक धर्मों में टकरावों को जन्म दिया।
इसी कारण नेपोलियन ने कहा था कि क्रूसेड का मतलब है इस आधार पर लोगों का एक-दूसरे की हत्याएं करना कि किसके पास एक बेहतर काल्पनिक मित्र है! 17वीं सदी में डच दार्शनिक स्पिनोजा ने ईश्वर की तुलना प्रकृति से की थी। फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्तेयर कैथोलिक चर्च के आलोचक थे और उन्होंने कहा था कि अगर ईश्वर का अस्तित्व नहीं होता तो उनका आविष्कार कर लिया जाता।
ज्ञानोदय युग के आस्तिकों के लिए ईश्वर तर्क-बुद्धि या नैतिकता का पर्याय था। लेकिन साथ ही मध्ययुगीन आस्था भी जीवित रही, जो ईश्वर को कल्पनातीत मानती थी। इस रस्साकशी से ईश्वर को मुक्त कराने की आवश्यकता थी। एक नया प्रबोधन समय की मांग था। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि हमें आध्यात्मिक मार्गदर्शन की जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी।
यह जरूरी है कि हम सभी धर्मों के द्वारा प्रस्तावित भलाई के संदेश को साझा मनुष्यता तक पहुंचाने के लिए एकजुट हो जाएं। ऐसे में क्या उन्हें पूर्वी धार्मिक आस्थाओं से मदद मिल सकती है, जो सार्वभौमिकता, बहुलता और पारस्परिकता का संदेश देती हैं? जो कहती हैं कि ईश्वर कल्पनातीत नहीं, बल्कि सर्वत्र व्याप्त है। कोई एक ईश्वर नहीं है, बल्कि जो कुछ है वही ईश्वरीय है!
एशिया के दो भिन्न कोनों से आने वाली दो प्रमुख मुस्लिम संस्थाएं जी-20 समिट में एक रिलीजन्स-20 फोरम लॉन्च करके इन प्रयासों की बागडोर सम्भालना चाहती हैं। 2022 में जी-20 की अध्यक्षता इंडोनेशिया के पास है और नेताओं की शिखर-वार्ता नवम्बर में बाली में होगी। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने व्यक्तिगत रुचि लेते हुए रिलीजन्स-20 फोरम को जी-20 के एजेंडा में स्थान दिलाया है।
सामान्यतया राजनीतिक नेतृत्व के लिए स्वास्थ्य, इकोनॉमी, जलवायु, तकनीकी के अलावा युद्ध, घृणा, कलह जैसे मसले ही मायने रखते आए हैं। लेकिन इस बात को अभी तक इतना महत्व नहीं दिया गया था कि धार्मिक और सांस्कृतिक नेता भी इसमें योगदान दे सकते हैं। इस संदर्भ में इंडोनेशिया की पहल मायने रखती है।
जो दो संस्थाएं इसमें अग्रणी हैं, वे हैं इंडोनेशिया की नाहदलातुल उलेमा (एनयू) और सऊदी अरब की मुस्लिम वर्ल्ड लीग (एमडब्ल्यूएल)। पश्चिम में अभी भी धर्मों का टकराव समाप्त नहीं हुआ है, जो साभ्यतिक संघर्ष के विचारों को जन्म देता है। 16वीं-17वीं सदी में प्रबोधन के नेताओं ने मुख्यतया ईसाईयत में व्याप्त समस्याओं पर बात की थी, अब वैसा ही आंदोलन इस्लाम में शुरू हो रहा है।
एनयू इंडोनेशिया की सबसे बड़ी मुस्लिम संस्था है, जिसके 9 करोड़ सदस्य हैं। वह पूर्वी मानवतावादी इस्लाम का प्रचार करती है। उसके अध्यक्ष याह्या चोलिल स्ताकुफ चरमपंथी तत्वों को खारिज करते हुए मानवीय मूल्यों को केंद्र में ला रहे हैं। यह संस्था काफिर होने के विचार को रद्द करती है और धर्म के प्रति प्यार के ऊपर देश के प्रति निष्ठा को तरजीह देती है।
वहीं डॉ. मोहम्मद बिन अब्दुल-करीम अल-इस्सा के नेतृत्व में एमडब्ल्यूएल भी इस्लाम के अधिक मानवीय रूप को प्रचारित कर रही है। वह इस्लाम की संकीर्ण और कट्टरपंथी व्याख्याओं को खारिज करती है। इस प्रगतिशीलता के पीछे क्राउन-प्रिंस मोहम्मद बिन सुलतान के अपरोक्ष सहयोग की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
आज एमडब्ल्यूएल चरमपंथ के विरुद्ध एक सख्त रवैया अख्तियार कर रही है और वह अकसर बहुलता का हवाला देती है। इन मायनों में अगर रिलीजन्स-20 मौजूदा धर्म-आधारित मूल्य-प्रणाली के बजाय एक ईश्वर-केंद्रित प्रणाली रचने में सफल होती है तो वह ऐतिहासिक बात होगी। क्योंकि पश्चिम की धर्म-आधारित प्रणाली की बुराइयां- जैसे नफरत, अलगाव और कैंसल-कल्चर- अब पूर्व के धर्मों में भी आ गई हैं।
मुस्लिम-बहुल इंडोनेशिया के बाद रिलीजन्स-20 अगले साल हिंदू-बहुल भारत में आएगा और 2024 में ईसाई-बहुल ब्राजील पहुंचेगा। यह प्रक्रिया दुनिया के इन तीन बड़े धर्मों में वैश्विक मूल्यों के विकास में मददगार साबित हो सकती है।
16वीं-17वीं सदी में प्रबोधन के अग्रणी नेताओं ने मुख्यतया ईसाईयत में व्याप्त समस्याओं पर बात की थी, अब वैसा ही आंदोलन इस्लाम में शुरू हो रहा है। सऊदी अरब और इंडोनेशिया इसका नेतृत्व कर रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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