Childrens Day 2022 Article: एक समय तक जीवन का सबसे सुहाना और खुशनुमा दौर माने जाने वाला बचपन आज तनाव और अकेलापन से जूझ रहा है। आधुनिकता की जड़ सब कुछ हासिल करने का दबाव और तकनीकी सुविधाओं के जाल में उलझे बच्चे ना केवल भावनात्मक रिश्तों से दूर हो रहे हैं, अपने बचपन की स्वभाविकता को भी खोते जा रहे हैं। इनके पीछे के कारणों और समाधान ओं को तलाशने की जरूरत है।
बच्चों पर बढ़ता बोझ
आजकल के बच्चों के पास तमाम तरह की तकनीकी गैजेट्स, मनोरंजन के साधन और अनंत सूचनाओं वाली इंटरनेट की दुनिया है, फिर भी यह बच्चे तीन चार दशक पहले के बच्चों के मुकाबले कहीं ज्यादा नाखुश, गुस्से वाले, चिड़चिड़ा और तनाव से ग्रस्त नजर आते हैं। सवाल है ऐसा क्यों? शायद इसलिए क्योंकि आजकल के बच्चे बेफिक्र नहीं है। उनके कंधों पर उनके ही मां-बाप ने उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ लाद दिया है। फिर चाहे कितने ही साधन उनके पास हो, लेकिन बच्चे तनाव और अकेलापन झेलने को विवश हो जाते हैं। हाल के सालों में आई तमाम रिपोर्टें संभावनाएं जताती है कि जल्द ही पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी बच्चे बहुत अकेला होने वाले हैं। इसकी एक वजह तो मां-बाप की व्यस्तता है। लेकिन उससे भी बड़ी वजह है उच्च तकनीकी का हमारे रोजमर्रा के जीवन में छा जाना है।
बच्चों की बढ़ती चिंताएं
बचपन जीवन का एक ऐसा दौर होता है जब बगैर किसी तनाव और बेफिक्री के मस्ती में जिंदगी का आनंद लिया जाता है। लेकिन अब यह बात या तो किताबों में सिमट गई है या फिर पिछली पीढ़ियों के लोगों की जुबान तक सीमित रह गई है। हालांकि बच्चों के चेहरों पर फूलों से खिलखिलाती हंसी, शरारतें, रूठना मनाना और जिद पर अड़ जाना, ये कुछ बातें अभी भी बचपन को बचपन बनाए हुए हैं। लेकिन गुजरते दिन के साथ बचपन की यह छवियां धूमिल होती जा रही हैं। आज अधिकांश बच्चों के चेहरों पर चिंता या तनाव या फिर सजग मुस्कुराहट रहती है। उनके स्वभाव से निश्छलता, कोमलता और बेफिक्र गायब होती जा रही हैं। यह सब आज की जीवनशैली में विलीन हो गई है। एक जमाने में अपने पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चों के कंधों पर आज या तो भारी-भरकम बस्ता होता है या फिर उनके मन मस्तिष्क पर तमाम खूबियों में पारंगत होने का बोझ लादा होता है।
बचपन खोने का जिम्मेदार कौन
बच्चों में आए ऐसे बदलाव के लिए उनके मां-बाप भी जिम्मेदार है। आज के दौर में अधिकतर पेरेंट्स अपने बच्चों को हर फील्ड में परफेक्ट बनाने के फेरे में उनके अनमोल बचपन छीन ले रहे हैं। छोटी सी उम्र में ही उन्हें प्रतिस्पर्धा के दंगल में उतार देते हैं। इस चूहा दौड़ में बच्चे अपने स्वाभाविक बचपन को जी नहीं पाते। इसी प्रतिस्पर्धा में असफल रहने पर उनकी इतनी अपेक्षा की जाती है कि वह अपराध बोध का शिकार होकर अपने ही नजरों में गिर जाते हैं। जबकि प्रतिस्पर्धा की कशमकश में उनका बचपन उनकी मासूमियत पहले ही खो चुकी होती है। आधुनिकता दिखाने और कमरे से बाहर ना जाने की सुविधा को देखते हुए पेरेंट्स उन्हें फुटबॉल, बैडमिंटन और बैट बल्ला की जगह वीडियो गेम थमा देते हैं, जो उनके दिमाग को कुंद और कई बार हिंसक भी बना देती है। इनका स्वभाव उग्र हो जाता है दिनभर वीडियो गेम से चिपके रहने वाले बच्चों में सामान्य बच्चों की अपेक्षा चिड़चिड़ापन और गुस्सैल प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है।
बच्चों पर रियलिटी शोज का प्रेशर
टीवी चैनल पर आने वाले तमाम तरह के शोज भी बच्चों के मन में एक्स्ट्रा प्रेशर बढ़ाते हैं। ऐसे शोज बच्चों के कोमल मन में प्रतिस्पर्धा की भावना भर देते हैं। उन्हें अपने बचपन का ही साथी अपना प्रतिस्पर्धी नजर आने लगता है। उनके भीतर भावनात्मक रिश्ते बनाने की प्रवृत्ति खोने लगती है।
बच्चों की मौज मस्ती
बच्चों के बेहतर और स्वर्णिम विकास के लिए उनके भीतर खेलने की प्रवृत्ति बनी रहनी जरूरी है, नौकरी पेशा माता-पिता यह जानर भी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। दरअसल अपने बच्चों के लिए घर के अंदर ही कई किस्म के सुविधाएं जुटा देना, उन्हें व्यस्त रखना या किसी भरोसे छोड़ना एक फायदे का सौदा लगता है, क्योंकि उनके पास अपने बच्चों के लिए वक्त होता नहीं है। मल्टीटैलेंटेड बनाने के लिए बच्चों के बचपन को छीनकर उन्हें स्कूल के बाद ट्यूशन, डांस, स्पोर्ट्स, म्यूजिक क्लासेज और वीडियो गेम्स में व्यस्त रखते हैं। जबकि संपूर्ण विकास के लिए बच्चों को घर के बाहर की हवा बगीचे और दोस्तों के साथ मौज मस्ती भी चाहिए। पढ़ाई लिखाई अपनी जगह है, आज के दौर में उनकी अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन बच्चों का बचपन भी दोबारा लौटकर नहीं आ सकता, हमें यह नहीं भूलना चाहिए।
बच्चों के लिए एंजॉयमेंट जरूरी
इसे आधुनिक जीवन शैली की जरूरत कहें या दवाब, पेरेंट्स के दिलों दिमाग में कुछ बातें ऐसी घर कर जाती है कि वह बच्चे से जुड़ी हर गतिविधियों के फायदे की गतिविधियों में तब्दील कर देना चाहते हैं। उनसे बेनिफिट लेना चाहते हैं या तो यहां तक कि बच्चों की छुट्टियों को भी केवल एंजॉयमेंट तक नहीं समेटना चाहते हैं। उस दौरान भी बच्चों को प्रोजेक्ट और असाइनमेंट पूरा करने का प्रेशर देते रहते हैं। यही वजह है कि बच्चों को कहीं घुमाने लेकर जाना, सुबह बर्बाद करने सा लगता है। ऐसी छुट्टियों में भी बच्चों को कई तरह के एक्स्ट्रा एक्टिविटीज पर्सनैलिटी डेवलपमेंट क्लासेस में भेजना सही समझते हैं। कहने का सार यही है कि बच्चों का स्वर्णिम विकास हो इसके लिए नए दौर के कदमताल के साथ बच्चे अपना बचपन पूरी तरह जी पाएं, इसका ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी है।
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