राजघाट में राष्ट्रपति
दुबली-पतली काया पर धोती पहने और हाथ में लाठी लिए देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने की लड़ाई का बिगुल बजाने वाला वह शख्स अगर आज जिंदा होता,तो 153 बरस का होता. अपनी 153 वीं जयंती पर महात्मा गांधी आज पहले से भी ज्यादा प्रांसगिक हो गए हैं. चौतरफा फैली हिंसा व नफ़रत के इस माहौल में गांधी के विचार और भी ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए हैं लेकिन मुश्किल ये है कि गांधी के रास्ते पर चलने और उसे अपनाने में हमारे हुक्मरान अब भी परहेज करते हैं.
ताउम्र अहिंसा के रास्ते पर चलकर धर्म, जाति, लिंग या रंग के आधार पर उन्होंने कभी कोई भेदभाव नहीं किया. छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीति को मिटाने का एकमात्र श्रेय भी उन्हीं को जाता है,इसलिये मरने के बाद भी आज गांधी सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में जिंदा हैं. दुनिया के 70 देशों में लगी गांधी की प्रतिमा इसका सबूत है कि अपनी नीतियों पर अडिग रहने वाला एक निहत्था इंसान भी समाज-राष्ट्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ताकत रखता है.
हालांकि गांधी पर पुस्तक लिखने वाले कुछ लेखक दावा करते हैं कि गांधी भले ही सभी धर्मों को सम्मान देते थे लेकिन वे हिंदुत्व के समर्थक थे. पर,ये दावा इसलिय गलत है कि बेशक वे एक सनातनी हिन्दू थे लेकिन उसमें कट्टरता का कोई स्थान नहीं था. गांधी ने पहली बार जब कहा कि वे ‘रामराज’ लाना चाहते हैं, तो हिंदुत्व की कट्टरवादी विचारधारा रखने वालों की बांछें खिल गईं थीं लेकिन उसी सांस में गांधी ने यह भी साफ कर दिया कि उनका राम वह नहीं है जो राजा दशरथ का बेटा है! उन्होंने कहा था कि जनमानस में एक आदर्श राज की कल्पना रामराज के नाम से बैठी है और वे उस सर्वमान्य कल्पना को छूना चाहते हैं. इसलिए गांधी ने कहा कि हां,वे सनातनी हिंदू हैं लेकिन उन्होंने हिंदू होने की अपनी जो कसौटी बनाई ,वह ऐसी थी कि कोई कठमुल्ला हिंदू उस तक फटकने की हिम्मत नहीं जुटा सका.
गांधी जाति प्रथा के ख़िलाफ़ थे. उनसे एक बार किसी ने पूछा कि सच्चा हिंदू कौन है ? तो गांधी ने संत कवि नरसिंह मेहता का भजन उसके सामने कर दिया, “वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे / जे पीड पराई जाणे रे!” और फिर यह शर्त भी बांध दी- “पर दुखे उपकार करे तोय / मन अभिमान ना आणी रे!” महज़ इस एक भजन से ही उन्होंने उस जमाने में हिंदुत्व का झंडाबरदार बनने वालों को ये सबक दे दिया था कि सच्चे हिंदुत्व की असली परिभाषा क्या है. लेकिन फिर भी वेदांतियों ने गांधी ले तर्क से ही गांधी को मात देने की कोशिश करते हुए पूछा कि “आपका दावा सनातनी हिंदू होने का है तो आप वेदों को मानते ही होंगे, और वेदों ने तोजाति-प्रथा का समर्थन किया है. ”
तब गांधी ने दो टूक जवाब दिया, “वेदों के अपने अध्ययन के आधार पर मैं मानता नहीं हूं कि उनमें जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है लेकिन यदि कोई मुझे यह दिखला दे कि जाति-प्रथा को वेदों का समर्थन है तो मैं उन वेदों को ही मानने से इंकार करता हूं. ”
अपने जीवन में गांधी ने कभी खुद को किसी धर्मविशेष का प्रतिनिधि होने की न कोई कोशिश की और न ही ऐसा दावा ही किया. विभाजन से ठीक पहले हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बढ़ती राजनीतिक खाई को भरने की कोशिश को लेकर मोहम्मद अली जिन्ना और गांधी के बीच मुंबई में हुई वार्ता टूटने की बड़ी वजह ही यही थी. तब जिन्ना ने गांधी से कहा था कि “जैसे मैं मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर आपसे बात करता हूं, वैसे ही आप हिंदुओं के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करेंगे, तो हम सारा मसला हल कर लेंगे लेकिन दिक्कत यह है मिस्टर गांधी, कि आप हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करते हैं,जो मुझे कबूल नहीं है. ”
उसके जवाब में गांधी ने कहा, “यह तो मेरी आत्मा के विरुद्ध होगा कि मैं किसी धर्मविशेष या संप्रदायविशेष का प्रतिनिधि बन कर सौदा करूं! इस भूमिका में मैं किसी बातचीत के लिए तैयार नहीं हूं. “और मुंबई से लौटने के बाद गांधी ने फिर कभी जिन्ना से बात नहीं की. गांधी न कभी सत्ताधीश रहे, न व्यापार-धंधे की दुनिया से और न उसके शोषण-अन्याय से उनका कोई नाता रहा. न उन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने की वकालत की, न गुलामों का व्यापार किया, न धर्म-रंग-जाति-लिंग भेद जैसी किसी सोच का समर्थन किया. वे अपनी कथनी और करनी में हमेशा इन सबका निषेध ही करते रहे लेकिन रास्ता हिंसक नहीं था.
समाज में धर्म,जाति या और किसी भी तरह की हिंसा को बांझ मानने वाले गांधी मानते थे कि हिंसा का मतलब ही है कि आप मनुष्य से बड़ी किसी शक्ति को, मनुष्य का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, फिर चाहे वह शक्ति हथियार की हो, धन-दौलत या सत्ता की हो या फिर किसी उन्माद की हो. गांधी का यकीन था कि हिंसा से मनुष्य और मनुष्यता का पतन होता है, जिसके खिलाफ हम होते हैं, वह पहले से ज्यादा क्रूर और घातक हो जाता है और हिंसा हमारे निष्फल क्रोध की निशानी बन कर रह जाती है.
अपनी जिंदगी के अनुभव का निचोड़ समाज के सामने रखते हुए गांधी ने कहा था-‘सत्य ही ईश्वर’ है!”धर्म नहीं, ग्रंथ नहीं, मान्यताएं-परंपराएं नहीं, स्वामी-गुरु-महंत-महात्मा नहीं, सत्य और केवल सत्य!” सत्य को खोजना, सत्य को पहचानना, सत्य को लोक-संभव बनाने की साधना करना और फिर सत्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करना – यह हुआ गांधी का धर्म! यह हुआा दुनिया का धर्म, इंसानियत का धर्म! गांधी अगर एक चुनौती हैं,तो वे एक संभावना भी हैं और ऐसे गांधी की आज हमें जितनी जरूरत है, उतनी कभी नहीं थी शायद!
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